नवरात्रों में डांडिया का अपना ही एक रंग होता है। ये उत्सव के रंग को और भी गहरा कर देता है। सद्‌गुरु बता रहे हैं कि उत्सव का कितना महत्व है हमारे जीवन में – 

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जश्न को किसी खास अवसर तक सीमित नहीं होना चाहिए। आपका सारा जीवन, आपका अस्तित्व ही एक जश्न बन जाना चाहिए।
नवरात्रि के दौरान हर उम्र के लोग हर रात डांडिया रास मनाते हैं। इसका चलन वृंदावन से शुरू हुआ। इसकी शुरुआत कृष्ण की लीला और राधा तथा गोपियों के साथ उनके रास से मानी जाती है। सद्गुरु बताते हैं, ‘रस शब्द से मतलब जूस या अर्क है, लेकिन वह जुनून को भी दर्शाता है।’ डांडिया एक तालबद्ध और उल्लास से भरा नृत्य है, जिसमें नाचने वाले अपने दोनों हाथों में करीब 10-12 इंच लंबी डांडिया की छड़ियां थामे हुए ताल से ताल मिलाते हैं। वे ताल पर नपे-तुले कदम उठाते हुए, दूसरे नर्तकों के हाथों में मौजूद डांडिया की छड़ियों से अपनी छड़ियां टकराते हैं।

वृंदावन में कृष्ण की  पहली रास लीला के बारे में शिव को जब पता चला तो उन्होंने ने भी वहां जाने का मन बना लिया, लेकिन वहाँ जाने के लिए गोपियों की तरह तैयार होने की शर्त थी।

शिव को पौरुष का शिखर, पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ पुरुष माना जाता है। इसलिए शिव से स्त्री बनने का अनुरोध बहुत अजीब था। लेकिन रास पूरे जोर-शोर से चल रहा था और शिव वहां जाना चाहते थे। उन्होंने इधर-उधर देखा। कोई नहीं देख रहा था, उन्होंने एक गोपी के कपड़े पहने और उस पार चले गए। शिव किसी भी बात के लिए तैयार हो सकते हैं!

जश्न की मूल प्रकृति स्त्रैण होती हैस्त्रैण का मतलब है उल्लास, उल्लास से छलकना है। आपको जीवन का हर पल ऐसे ही बिताना चाहिए और उल्लासपूर्ण जीवन जीना चाहिए। जश्न को किसी खास अवसर तक सीमित नहीं होना चाहिए। आपका सारा जीवन, आपका अस्तित्व ही एक जश्न बन जाना चाहिए।

Images courtesy: anurag agnihotri from flickr