पहले हम नाचते गाते थे....अब सिर्फ देखते हैं
देश के किसानों को उल्लासित करने वाली पोंगल व वैशाखी जैसी प्राचीन परंपराएँ नष्ट होती जा रही हैं। सद्गुरु कहते हैं कि सरकार व हर देशवासी गावों की तरक्की में सहभागी हो सकते हैं।
प हले इस देश में साल के हर दिन कोई न कोई त्योहार होता था। सब कुछ उत्सव का रूप ले लेता था। आज जुताई का दिन है, तो उसे एक उत्सव बना दिया। कल रोपाई का दिन है, तो उसके लिए अलग किस्म का उत्सव। वहां रोपाई के गीत और नृत्य का आनंद लिया जाता था। फसल कटाई का समय उत्सव का चरम रूप होता था, वही आज भी मकर संक्रांति, वैशाखी या पोंगल के रूप में मनाया जाता है।
बलबीर और दलबीर दसवीं कक्षा तक स्कूल गए हैं; लेकिन अब उन्हें सबके साथ नाचने-गाने में शर्म आती है। वे न इर के रहे न उधर के। इससे उनका स्वास्थ्य भी खराब हुआ है। पर ऐसे वे अकेले नहीं हैं। पिछले बीस वर्षों में ग्रामीण व्यक्ति का जीवन बहुत मुश्किल हो गया है। पुरानी परंपराएं पूरी तरह से नष्ट हो चुकी हैं, बाज़ारी अर्थव्यवस्था से जुड़ी बुराइयां पनप रही हैं, लेकिन इससे जुड़ी अच्छाइयां ग्रमीण व्यक्ति के आस पास नहीं फटकती।
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पहले वह जिन बातों पर गर्व करता था, आज वही उसके लिए शर्म का कारण बन गई हैं। गांव के लोगों के जीवन से उल्लास गायब हो गया है। पहले गांव के लोग मिल-जुल कर बुवाई-रोपाई से लेकर कटाई तक का काम हंसी-खुशी से करते और खेतों में नाचते-गाते थे। आज गांवों में नाचना-गाना गुजरे जमाने की बात हो गई है, वह सिर्फ देखने की चीजें हो गई हैं। लोग उसे टीवी और सिनेमा में बड़े चाव से देख रहे हैं।
ये ऐसी चीजें हो गई हैं, जिसे अब आप खुद नहीं करते। यह कोई छोटीमोटी बात नहीं है जो गांव के लोगों से छिन गई है और,उसकी कोई भरपाई नहीं हो पाई है। किसान के पास अपने लोक संगीत और लोक नृत्य के रूप में ऐसी थाती थी, जिससे उसे सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक आधार मिलता था। दुर्भाग्यवश कोई बेहतर चीज दिए बिना ही इस आधार को तेजी से नष्ट किया जा रहा है। आनंद और उल्लास के बिना यदि कृषि की जाएगी, तो उसका नतीजा किसानों की आत्महत्या और उन तमाम बुराईयों के रूप में ही सामने आएगा, जिन्हें हम आज देख रहे हैं।
हमें अपने देश की खूबियां मालूम होनी चाहिए। हालांकि यहां खेती से संबंधित सुविधाएं न के बराबर हैं, फिर भी हम अपने सवा अरब लोगों का पेट भरने के लिए अनाज तो पैदा कर ही रहे हैं। यह एक ऐसी उपलब्धि है, जिसे हमारे किसानों ने अपने पारंपरिक ज्ञान और कौशल से हासिल किया है। पर आज वह सब लुप्त हो रहा है। भविष्य में हमें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
इसलिए यह बहुत जरूरी है कि गांवों का सही मायने में कायाकल्प किया जाए। यह काम अकेले सरकार के बस का नहीं है। सरकार नीतियों में बदलाव करके लोगों को आर्थिक अवसर उपलब्ध करा सकती है, लेकिन किसी भी सरकार के लिए यह संभव नहीं है कि वह एक-एक व्यक्ति के पास जाकर उसका जीवन बदले। जरूरत इस बात की है कि औद्योगिक इकाइयां देश में एक-एक तालुका को गोद लेकर वहां प्रशिक्षण, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को बेहतर बनाने का काम करें। परोपकार की बजाए इसे लंबे समय का एक निवेश माना जाना चाहिए।
यदि आप नारियल का पेड़ उगाना चाहते हैं तो आप कुछ पाने के लिए आठ साल इंतजार करते हैं। इसी तरह यदि आप शिक्षा, पोषण जैसे पहलुओं पर निवेश करते हैं, तो थोड़े इंतजार के बाद ही आपको उसका फल मिल सकेगा। इस प्रक्रिया में स्वयंसेवी संस्थाओं और संबंधित जनसमुदाय के साथ-साथ उद्योग जगत को भी शामिल होना पड़ेगा। हमारा ईशा फाउंडेशन इस बात पर अमल कर रहा है।
हम हमेशा भारत को 120 करोड़ लोगों के देश के रूप में सोचते हैं। लेकिन सोचने का यह तरीका ठीक नहीं है। आप एक जिले के बारे में सोचिए और उसे बदलने में लग जाइए।