अध्यात्म : जीवन के साथ एक प्रेम सम्बंध
यहाँ सदगुरु एक भोगवादी व्यक्ति और एक आध्यात्मिक व्यक्ति के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए समझा रहे हैं कि कैसे आध्यात्मिकता, जीवन के साथ कभी न टूटने वाला प्रेम सम्बंध है।
भौतिकतावादी व्यक्ति उस कुत्ते की तरह है जिसके आगे हड्डी लटका कर उसे रेस जीतने के लिये प्रेरित किया जाता है। बस हड्डी पाने के लिये कुत्ता तेज गति से भागता है पर वो उसे नहीं मिलती। एक भौतिकतावादी व्यक्ति हमेशा बाहरी परिस्थितियों से प्रेरित होता है।
तो मैंने बस ये सोचा कि वे कौन सी बातें हैं जो लोगों को कुछ करने के लिये प्रेरणा देती हैं, लोगों को कब और कहाँ प्रेरणा की आवश्यकता पड़ती है? आप को प्रेरणा की ज़रूरत तभी होती है जब आपके जीवन में कोई ऐसी चीज़ न हो, जो आप वाकई करना चाहते हैं। अगर आप वाकई कुछ करना चाहते हैं तो आप को किसी प्रेरणा की कोई ज़रूरत नहीं है। क्या भोजन करने जाने के लिए आपको प्रेरणा की ज़रूरत होती है? लेकिन, हाँ, आप में से कुछ लोगों को साधना करने के लिये, सुबह जल्दी उठने के लिये प्रेरणा अवश्य देनी पड़ती है।
जब लोग बहुत ज्यादा प्रेरित हो जाते हैं तो वे कोई महान कार्य कर सकते हैं – या वे बिल्कुल मूर्खतापूर्ण काम भी कर सकते हैं। प्रेरणा हमेशा बुद्धिमानी के साथ नहीं आती। जब हमें कोई अत्यंत उद्देश्यपूर्ण व लक्ष्य-केन्द्रित काम करना हो, तो हमें ज्यादा समझदार, ज्यादा लक्ष्य केंद्रित लोगों की आवश्यकता होती है। ऐसे लोग जिन्हें किसी के द्वारा प्रेरणा दिये जाने की कोई ज़रूरत ना हो, जो स्पष्ट रूप से जानते हों कि उन्हें क्या करना है। अगर हममें यह स्पष्टता है कि हम क्या करना चाहते हैं तो हम जो चाहते हैं उसे रचने की हमारी योग्यता, प्रेरित लोगों की योग्यता से कहीं बेहतर होगी। प्रेरित लोगों का समूह किसी कम समय तक चलने वाली गतिविधि के लिये तो ठीक है, पर यदि कोई दीर्घकालीन कार्य करना हो तो ऐसे लोगों की ज़रूरत होगी जो हर हाल में वो काम करना चाहते हैं।
भौतिकतावादी और आध्यात्मिक : अंतर क्या है?
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एक भौतिकतावादी या सांसारिक व्यक्ति और एक आध्यात्मिक व्यक्ति में अंतर बस यही है कि - भौतिकतावादी व्यक्ति उस कुत्ते की तरह है जिसके आगे हड्डी लटका कर उसे रेस जीतने के लिये प्रेरित किया जाता है। बस हड्डी पाने के लिये कुत्ता तेज गति से भागता है पर वो उसे नहीं मिलती। एक भौतिकतावादी व्यक्ति हमेशा बाहरी परिस्थितियों से प्रेरित होता है जबकि आध्यात्मिक व्यक्ति को किसी बाह्य प्रेरणा की ज़रूरत नहीं होती, क्योंकि वह वही करता है जो वह वाकई करना चाहता है।
आध्यात्मिक प्रक्रिया जीवन जीने का एक ज्यादा बुद्धिमानीपूर्ण तरीका है, क्योंकि इसका अर्थ यह है कि आप सृष्टि के निर्माता की बुद्धि के साथ लय में हैं। आप चाहे जितना भी गहरा सोच लें, उसकी तुलना उस बुद्धिमानी से नहीं हो सकती जो ये शरीर बना रही है, कीचड़ में फूल उगा रही है, मिट्टी को भोजन - भोजन को मानव शरीर - और उस शरीर को फिर से मिट्टी बना रही है, जो ग्रहों को गोल घुमा रही है और जो सौर मंडल एवं तारा मंडलों को कार्यरत रखे हुए है - वह जो इस सृष्टि का आधार है। आप चाहे किसी भी प्रकार के अत्यंत स्मार्ट विचार पैदा कर लें, किसी भी प्रकार के सिद्धांत औरसमीकरण आप बना लें, वे सभी बस उस बुद्धिमानी को समझने के लिये हैं जो इस सृष्टि का स्रोत है।
आप जिसे विज्ञान कहते हैं, वह बस सृष्टिकर्ता की बुद्धिमानी को समझने का प्रयत्न है। आप जिसे तकनीक कहते हैं वह और कुछ नहीं, बस पहले से ही बनी हुयी, जीवन की तकनीकों की एक तुच्छ नकल मात्र है। तो आप जिसे मानवीय या तार्किक बुद्धिमानी कहते हैं वह उस बुद्धिमानी की तुलना में कुछ नहीं है जो सृष्टि का आधार है। अगर आप उस बुद्धिमानी के साथ एक होना चाहते हैं, जो इस सृष्टि का आधार है तो आप आध्यात्मिक हैं। सामान्य रूप से भोगवादी जीवन उस सर्वोत्कृष्ट बुद्धिमानी के साथ लय में नहीं होता। तो क्या इसमें कुछ गलत है ? क्या भोजन करना, कपड़े पहनना, रहने के लिये एक मकान बनाना गलत है ? ये सब काम करना गलत है ? मुद्दा वो नहीं है ! लेकिन अगर आप सहायक भोजन को ही मुख्य भोजन बना देंगे तो ये जीने का एक मूर्खतापूर्ण तरीका होगा। हम मकान बनाते हैं, कपड़े पहनते हैं, खाना खाते हैं। हम यह सब कुछ करते हैं क्योंकि हम जीना चाहते हैं, और पूरी तरह से जीना चाहते हैं। हम सिर्फ जीना ही नहीं चाहते बल्कि हम उस जीवन को उसकी पूर्णता में जानना, समझना चाहते हैं।
यदि आप जीवन को बस ऊपर ऊपर से जी रहे हैं, तो जिंदा रहने का ये तरीका बुद्धिमानीपूर्ण नहीं है। आध्यात्मिक प्रक्रिया जीवन का फल खाने, उसके रस को पाने, जीवन के मूल को समझने के लिये है। हम सिर्फ इसका स्वाद ही नहीं चखना चाहते, बल्कि हम इसे पूर्ण रूप से जानना और समझना चाहते हैं।
आध्यात्मिक प्रक्रिया : जीवन के साथ एक प्रेम सम्बंध
आध्यात्मिक प्रक्रिया जीवन से तलाक लेने की बात नहीं है। बल्कि ये जीवन के साथ कभी न भंग होने वाला प्रेम संबंध है। ये ज़रूरी क्यों है ? बस इसलिये कि जीने का ये एक ज्यादा बुद्धिमान तरीका है। कोई भी मनुष्य जान बूझ कर मूर्ख बनना नहीं चाहता। यहाँ तक कि कोई मनुष्य यदि कुछ इधर-उधर करता है, उल्टी-सीधी हरकतें करता है, वह भी मूर्ख कहलाना नहीं चाहता और यही दिखाने की कोशिश करता है कि वह कितना होशियार है। लेकिन अगर आप ये सोचते हैं कि आप सृष्टि की एक अत्यंत विशिष्ट रचना हैं, आप अगर ऐसा सोचते, महसूस करते और जीवन का अनुभव इस तरह करते हैं जैसे कि इस अस्तित्व में आप बिलकुल अकेले हैं, तो आपका तथाकथित तर्क आप के विरुद्ध ही काम करेगा।
फ्रेंच क्रांति के तुरंत बाद की बात है, फ्रेंच लोगों ने सिर काटने वाली एक मशीन ‘गिलोटाईन’ बनायी। वह बहुत सफ़ाई से सिर काटती थी। जब ऐसी मशीन बनी, तो वे उसका उपयोग भी ज्यादा से ज्यादा करना चाहते थे। तो जब भी उन्हें कोई सिर दिखता तो वे उसे काट डालना चाहते थे। एक दिन वहाँ तीन लोगों को मारने के लिये लाया गया -- एक वकील, एक पादरी और एक इंजीनियर। उन्होंने वकील को तख्ते पर लिटाया, उसके सिर पर टोप पहनाया और ब्लेड खींचा लेकिन वो नीचे नहीं गिरा। किसी तकनीकी ख़राबी की वजह से। कानून के अनुसार उन्हें उसको तुरंत मारना था और ऐसा नहीं हो सका, तो अब उसको प्रतीक्षा करने की यातना सहनी पड़ी, जिसका मतलब था कि वह उन पर अदालत में मुकदमा कर सकता था। तो उन्होंने उसे जाने दिया। फिर उन्होंने पादरी को तख्ते पर लिटाया और ब्लेड खींचा। फिर भी कुछ नहीं हुआ। अब उन्हें लगा कि यह कोई दैवी इशारा है और उन्होंने उसे भी जाने दिया। अब बारी इंजीनियर की थी और वो बोला कि उसे टोप पहनाये बिना ही मारा जाये। जब वो नीचे लेटा और उसने ऊपर देखा तो बोल पड़ा, "अरे, मैं तुम्हें बताता हूँ कि इसमें क्या समस्या है"?
तो आजकल मनुष्य का तर्क इसी तरह से काम कर रहा है। ये उस बुद्धिमानी का विकृत रूप हो गया है जो हमारे अंदर और सबके अंदर सृष्टि का स्रोत है। सब कुछ जिसे आप छूते हैं -- खाने के लिये भोजन, साँस लेने की हवा, वो पृथ्वी जिस पर हम चलते हैं, और वो सारा आकाश जिसमें हम हैं -- हर एक चीज़ में सृष्टिकर्ता का हाथ है, और इसे हर वह व्यक्ति स्पष्ट रूप से समझ सकता है जो इस तरफ पर्याप्त ध्यान देता है। एक मनुष्य जो सबसे बड़ा काम कर सकता है, वो ये है कि वह इस बुद्धिमानी के साथ लय में रहे और यह सुनिश्चित करे कि वह सृष्टिकर्ता के काम को विकृत ना करे। "इस तरह क्या मैं अपना जीवन जी सकता हूँ ? क्या मैं जो चाहता हूँ वो कर सकता हूँ"? आप जो चाहें कर सकते हैं, वो भी सृष्टिकर्ता के काम को विकृत किए बिना – इसके लिए आपको बस सृष्टिकर्ता के काम के साथ लय में होना होगा। यदि आप उसके साथ लय में नहीं हैं, तो आप अपने आप में एक अलग बुद्धिमानी बन जाएंगे। सृष्टि में आपकी ऐसी बुद्धिमानी के लिये कोई स्थान नहीं है।
आध्यात्मिक प्रक्रिया में दीक्षित होने का अर्थ यह है कि आप में उस बुद्धिमानी को गति दी गयी है जो सृष्टि के निर्माण का स्रोत है, आप को बस उसे अपना कार्य करने देना है। अपने मूर्ख दिमाग को नहीं चलाना है। इसका अर्थ ये नहीं है कि मैं मानवीय तर्क के विरुद्ध हूँ। ऐसा बिल्कुल नहीं है। आजकल विश्व में बहुत सारी कृत्रिम (आर्टिफीशियल) बुद्धिमानी है। कम्प्यूटर वास्तव में बहुत होशियार हो गये हैं। लेकिन कोई भी कम्प्यूटर कभी भी किसी मनुष्य की बराबरी नहीं कर सकता। भविष्य में ऐसा कंप्यूटर बनाया जा सकता है जो लगभग हर वो चीज़ कर सकेगा जो आज मनुष्य कर रहा है, पर मनुष्य की बेवकूफी के साथ तो वो भी बराबरी नहीं कर सकेगा। तो हम मनुष्य हमेशा अतुल्य ही रहेंगे!
तर्क समस्या नहीं है। समस्या ये है कि आप एक विशिष्ट बुद्धिमानी बन जाते हैं जो किसी काम की नहीं होती। आप एक सर्व समावेशी बुद्धिमानी नहीं रहते। योग का अर्थ है “सर्व समावेशी” होना जिससे आप की बुद्धिमानी किसी भी प्रकार से उस बुद्धिमानी को विकृत ना करे जो आप के अंदर और बाहर हर वस्तु की रचना का स्रोत है।
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