आध्यात्म बनाम धर्म

सदगुरु : जैसे ही आदमी धार्मिक हो गया तो दुनिया के सारे संघर्ष खत्म हो जाने चाहिये थे। दुर्भाग्यवश, पूरी दुनिया में, धर्म ही हर कहीं संघर्षों का मुख्य कारण बना है, जिससे, धरती पर, हजारों वर्षों से, सबसे ज्यादा लोग मरे हैं और सबसे ज्यादा लोगों को दुख दर्द मिला है। इसका मुख्य कारण ये है कि सारे धर्म बस, यकीन करने या विश्वास करने की प्रणालियों से पैदा हुए हैं। 

यकीन कहाँ से आता है? विश्वास करने का मतलब ये है कि आप जानते नहीं हैं। अगर आप कुछ जानते हैं तो उसमें विश्वास करने का कोई सवाल नहीं उठता, आप बस उसको जानते हैं। मिसाल के तौर पर, क्या आपको यकीन है कि आपके दो हाथ हैं, या फिर आप ये जानते हैं? आपकी अगर आँखें न भी हों, तो भी आप जानते हैं कि आपके पास हाथ हैं। हाथों के बारे में आप जानते हैं पर ईश्वर में आप विश्वास करते हैं! क्यों? 

अपने स्वभाव से आप जो पा सकें, उस पूरी तरह शांतिमय अवस्था और आज के समय में आपके असंतुलन की अवस्था इन दोनों के बीच जो अंतर है, उसे धर्म ने भर दिया है।
 

विश्वास का सवाल इसलिये खड़ा होता है, क्योंकि आप यह मानने को तैयार नहीं हैं कि आप जानते नहीं हैं। आप उस चीज़ में विश्वास करते हैं जो आपके लिये सांस्कृतिक और सामान्य रूप से सुविधाजनक है। आप चाहे विश्वास करें कि ईश्वर है या न करें कि ईश्वर है, दोनों में कोई फर्क नहीं है - दोनों ही अवस्थाओं में आप एक ही नाव में हैं। आप किसी ऐसी बात में यकीन रख रहे हैं, जो आप जानते ही नहीं I   जब आप किसी ऐसी चीज़ में विश्वास रखते हैं तो आप एक खास भरोसे, आत्मविश्वास के साथ घूम सकते हैं।

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भरोसे के बिना, विश्वास एक संकट ही है। आज संसार में आप यही देख रहे हैं। विश्वास प्रणालियाँ लोगों में बड़ी मात्रा में भरोसा भर देती हैं और यही भरोसा, बिना ज़रूरी स्पष्टता के, इस धरती पर एक बहुत बड़ी विपत्ति है। सारी दुनिया में संघर्ष हमेशा एक आदमी के विश्वास और दूसरे आदमी के विश्वास के बीच रहा है। जब आप विश्वास कर लेते हैं कि आपका रास्ता ही सही है और किसी दूसरे को भी विश्वास है कि उसी का रास्ता सही है तो ये स्वाभाविक ही है कि उन दोनों में झगड़ा होगा।

विश्वास प्रणालियाँ बहुत सुविधाजनक होती हैं, यही उनके पैदा होने की वजह भी है। वे एक सांत्वना हैं। सांत्वना की ज़रूरत उन्हीं को होती है जो खो गये हैं, अशांत हैं। दुर्भाग्यवश, मानवता का एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसी अवस्था में बहुत लंबे समय से है और अब, उन्हें सांत्वना देते रहना बहुत ज़रूरी हो गया है। आपको उनसे बस यही कहना है, "चिंता मत करो, भगवान तुम्हारे साथ हैं"! उनको बस यही चाहिये। मुद्दा ये नहीं है कि भगवान आपके साथ है या नहीं। आपको बस ये लगना चाहिये कि कोई आपके साथ है। इसकी वजह से बहुत सारे लोग ठीकठाक रहते हैं, पागल नहीं हो जाते, नहीं तो वे टूट जायेंगे।

अपने स्वभाव से आप जो पा सकें, उस पूरी तरह शांतिमय अवस्था, और आज के समय में आपके असंतुलन की अवस्था - इन दोनों के बीच जो अंतर है, उसे धर्म ने भर दिया है। अगर आपको सांत्वना चाहिये तो ये आपकी ज़रूरत है। ज्यादातर लोगों को सांत्वना चाहिये, मुक्ति नहीं। ये सांत्वना एक तरह से बेहोशी की दवा है - ये आपको सुला देती है। अब चुनना हमें है कि हम बेहोशी में सोना चाहते हैं या फिर अपने जीवन में एक नयी संभावना के साथ जीवंत रहना चाहते हैं।

आध्यात्मिकता और धर्म के बीच अंतर

कहीं न कहीं, सभी धर्मों की शुरुआत आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में हुई। पर, अपने को संगठित करने की उत्सुकता में उनकी मूल बातें खो गयीं। धर्म क्या है - वो आध्यात्मिकता जो खराब हो चुकी है! आईये, हम धर्म और आध्यात्मिकता के बीच के अंतर को समझें। जब आप अपने आपको किसी धर्म के साथ जोड़ते हैं, तो आप अपने आपको विश्वास करने वाला घोषित कर देते हैं। पर, जब, "मैं आध्यात्मिक मार्ग पर हूँ" ऐसा आप कहते हैं तो आप अपने आपको जानने की इच्छा रखने वाला, जिज्ञासु कहते हैं। तो विश्वास करने और जिज्ञासा करने, जानने, खोजने में क्या अंतर है?

आप सिर्फ उसी चीज़ को खोज सकते हैं जिसे आप जानते नहीं हैं, या, दूसरे शब्दों में, खोजने, जानने की प्रक्रिया की मूल बात यह है कि आपने ये समझ लिया है कि आप अपने जीवन का मूल स्वभाव नहीं जानते हैं। आप नहीं जानते कि आप कौन हैं, क्या हैं, कहाँ से आये हैं और कहाँ जायेंगे? आप जानना चाहते हैं, जानने की कोशिश कर रहे हैं कि जब आप "मैं नहीं जानता" की अवस्था में हैं आप किसी के साथ झगड़ेंगे नहीं।

आध्यात्मिक प्रक्रिया में सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात ये है कि आप अपने ही साथ पूरी तरह से ईमानदार हों, और ये स्वीकार करने को तैयार हों कि मैं 'जो जानता हूँ', वो जानता हूँ और 'जो नहीं जानता', वो नहीं जानता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसने क्या कहा, चाहे कृष्ण, जीसस, बुद्ध या और किसी ने भी कुछ भी कहा हो - हो सकता है कि वे सत्य ही कह रहे हों - और उनके लिये हमारे अंदर पूरा सम्मान है - पर, आप नहीं जानते, आपने इसका अनुभव नहीं किया है, आपने इसे देखा नहीं है!

आप पूरी तरह से ईमानदार क्यों नहीं हो सकते कि आप नहीं जानते? "मैं नहीं जानता", इसमें एक जबर्दस्त संभावना है। यही है जानने का आधार। जब आप स्वीकार करते हैं कि आप नहीं जानते, तभी जानने की संभावना खुलती है। जैसे ही आप इस संभावना को अपने विश्वास से - जो आपके लिये सुविधाजनक है - तोड़ देते हैं, तो आप जानने की सारी संभावनाओं को खत्म कर देते हैं। आप ऊपर देखते हैं या नीचे देखते हैं या अपने चारों ओर देखते हैं, इससे आपके लिये कोई आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू नहीं होती।

आध्यात्मिक प्रक्रिया तभी शुरू होती है जब आप अंदर की ओर देखते हैं। अंदर न तो उत्तर में है न दक्षिण, पूर्व या पश्चिम में। जो अंदर है, उसका कोई आयाम नहीं है। बिना आयाम की चीज़ तक वही पहुँच सकता है जो अपने अंदर एकदम ईमानदार हो। दूसरों के लिये ईमानदार होने को मैं आपसे नहीं कह रहा - इसमें बहुत सी समस्यायें हो सकती हैं। मैं तो आपसे खुद के साथ ईमानदार होने के लिये कह रहा हूँ। क्या आपको यह एक चीज़ (अपने साथ ईमानदारी) मिलनी नहीं चाहिये?

धर्म से जिम्मेदारी की ओर

मानवता के इतिहास में अभी यह पहली बार ही है कि इतने सारे लोग अपने आपके बारे में सोच सकते हैं। भूतकाल में आपके पुजारी, पंडित, गुरु या शास्त्र आपके लिये यह काम करते थे। आपको अपने ही लिये सोचने की भी इजाज़त नहीं थी। अभी तो आप अपने लिये सोच सकते हैं। अपने आपके लिये सोचने का मतलब यह है कि जब तक कोई चीज़ तार्किक रूप से सही न हो, तब तक आप उसे स्वीकार नहीं करेंगे। जैसे ही आप तर्कपूर्ण ढंग से सोचना शुरू करेंगे, स्वाभाविक रूप से आपके मन में सवाल खड़े हो जायेंगे। अगर आप 3 गहरे, चुभने वाले सवाल पूछेंगे तो सभी धर्मों, शास्त्रों और स्वर्गों का आधार ही टूट जायेगा।

बहुत लंबे समय से हम सोचते रहे हैं कि अगर कुछ सही है तो वो हमारी वजह से है, और जो कुछ भी गलत है वो ईश्वर की वजह से है। अब इस सोच को बदलने का समय आ गया है। हमें यह समझना होगा कि हमारी सभी समस्याओं का स्रोत हमारे अंदर ही है और अगर, हमें समाधान चाहियें तो वो और कहीं नहीं है, हमारे अंदर ही उपलब्ध है। मूल रूप से इसका मतलब यही है कि मानवता अब धीरे-धीरे धर्म से जिम्मेदारी की तरफ बढ़ने लगी है। अगर दुनिया धर्म से जिम्मेदारी की तरफ आ जाये तो मनुष्य की क्षमता पूरी तरह से विकसित हो सकेगी।

नहीं तो, हर किसी के पास उसके द्वारा की जा रही सारी बकवास, उसके खुद के सारे गलत कामों के लिये बहाने भी हैं, और ईश्वर की मंजूरी भी है। मानवीय बुद्धिमत्ता का स्वभाव यह है कि अगर आज आप कोई बेवकूफी भरा काम करते हैं, तो रात में ही आप की बुद्धिमत्ता आपको परेशान करेगी -"मैंने यह क्यों किया"? पर, अगर ये आपके भगवान या शास्त्रों की सम्मति से है तो आप पूरे आत्मविश्वास के साथ बेवकूफी भरे काम कर सकते हैं। यह सब बंद होना ज़रूरी है। हमें मानवता को धर्म की ओर से ज्यादा जिम्मेदारी की ओर ले जाना होगा।