अमृत और विष आपके ही अंदर है
अमृत – जो आपको आनंद से भर सकता है और विष - जो आपके जीवन को दयनीय बना सकता है, दोनों के स्रोत आपके भीतर हैं। जरुरी साधना आपको अमृत-पान करा सकती है थोड़ी से चूक आपके अंदर विष भी भर सकता है। तो फिर क्या करें?
सद्गुरु: जैसे-जैसे वैज्ञानिक इंसानी दिमाग की प्रकृति की खोज कर रहे हैं और इसके लिए बेहतर उपकरण भी हमें मिले हैं, आधुनिक मनोवैज्ञानिकों और न्यूरोसाइंटिस्ट्स के सामने एक चीज साफ हो गई है। वह यह कि इंसानी दिमाग के बारे में वे जितना जानते हैं, अभी उससे कहीं ज्यादा पता लगाना बाकी है।
आज्ञा चक्र से जुड़ा है बिंदु स्राव
जिस तरह चिकित्सा के क्षेत्र में शरीर विज्ञान होता है, उसी तरह योग में भी एक पूरा योगिक शरीर विज्ञान है। योगिक शरीर विज्ञान का जो पहलू आधुनिक न्यूरोसाइंस से किसी रूप में मिलता-जुलता है, वह ‘पीनियल ग्लैंड’ - जिसे शीर्षग्रंथि कह सकते हैं, से जुड़ा है। इस ग्रंथि को हमेशा से आज्ञा चक्र से जोड़ कर देखा गया है। आज न्यूरोसाइंटिस्ट्स का भी कहना है कि शीर्षग्रंथि से होने वाले स्राव इंसान के मूड और अनुभवों को नियंत्रित और संयमित करते हैं। अगर आपकी उस ग्रंथि से लगातार और पर्याप्त स्राव होता है, तो भीतर से आनंदित होने में आपको कोई समस्या नहीं होगी।
बाहरी मदद से चेतना ऊपर नहीं उठ सकती
मेडिकल साइंस से लेकर सड़क छाप नशीली दवाओं तक ने यह साफ कर दिया है कि रसायन आपके भीतर सुखद और अप्रिय अनुभव पैदा कर सकते हैं, जो आपके लिए बहुत वास्तविक होते हैं। बाकी लोग यह कहते हुए इसे खारिज कर सकते हैं कि आप इसे खुद पैदा करते हैं। मगर वास्तव में हर चीज आप खुद ही पैदा करते हैं। अंतर बस इतना है कि आप उसके लिए बाहरी मदद लेते हैं या नहीं। अगर अभी आप बैठे-बैठे आनंदित हो जाएं, तो इसका मतलब है कि आप बाहरी मदद के बिना खुद आनंद उत्पन्न कर रहे हैं। अगर यही आनंद आप बाहरी उकसावे से पैदा करते हैं, तो अनुभव के स्तर पर वह समान हो सकता है, मगर अंत में वह शरीर को नुकसान पहुंचा सकता है। साथ ही ऐसा अनुभव किसी तरह की चेतना नहीं लाता। अचेतन अनुभव चाहे कितने भी बड़े हों, इंसान के विकास और रूपांतरण में उनका कोई महत्व नहीं होता।
योगिक शैली का महत्वपूर्ण अंग है बिंदु
योगिक शरीर विज्ञान का एक पहलू बिंदु है, जिसके बारे में आधुनिक मेडिकल साईंस कोई चर्चा नहीं करता और जिसे मैं अपने अंदर लगातार जाग्रत रखता हूं। बिंदु का मतलब है, एक बेहद छोटा सा स्थान।
हिन्दू शैली में बाल काटना
हिंदू जीवन शैली में, जब कम उम्र के ब्राह्मण बालकों को आध्यात्मिक साधना की दीक्षा दी जाती है, तो वे इस बिंदु पर बालों का एक गुच्छा छोड़कर सिर के बाकी बाल मुंडवा लेते हैं। आप दुनिया में कहीं भी चले जाएं, आप देखेंगे कि अगर वे कोई ऐसी क्रिया कर रहे हैं, जिसे वे आध्यात्मिक मानते हैं, तो वे बिंदु को ढककर रखते हैं। इसलिए उन्होंने छोटी टोपियों या किसी कपड़े का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। दुनिया में हर कहीं, कभी न कभी कुछ लोग इस बारे में जागरूक थे और उन्होंने शायद इसकी चर्चा भी की। मुझे ठीक-ठीक पता नहीं कि उन्होंने क्या कहा मगर मैंने लोगों को ये चीजें करते देखा है। अगर कोई यहूदी संस्कृति से है, तो वह शायद बता पाए कि क्या इस टोपी को पहनने के बारे में कुछ खास बताया गया है?
यहूदी शैली में टोपी पहनना
एक साधक: जब आप कोई आध्यात्मिक क्रिया करते हैं तो सिनेगॉग (यहूदियों का उपासना-घर) जाते समय आप इस टोपी को पहनते हैं। इससे यह पता चलता है कि आप सिर्फ एक इंसान हैं, ईश्वर नहीं। यह सम्मान का प्रतीक है और आपके तथा ईश्वर के बीच अंतर को बताता है।
सद्गुरु: किसी और को कुछ कहना है?
दूसरा साधक: यह एक संबंध है, जिससे आपको याद रहे कि ईश्वर का अस्तित्व है। आप यह टोपी हमेशा पहन कर रखते हैं ताकि आप यह बात भूल न जाएं। यह अंतर के लिए नहीं, बल्कि आपके अंदर या आस-पास मौजूद ईश्वर की याद दिलाने के लिए होता है।
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सद्गुरु: पता नहीं, न्यूरोसर्जन्स का ध्यान इस ‘बिंदु’ पर कब जाएगा! अगर उनकी नजर पड़ भी जाए, तो यह इतना छोटा है कि वे उसे अनदेखा कर सकते हैं। लेकिन अगर आप अपने शरीर पर खास तरह से ध्यान दें, तो यह हमेशा मौजूद होता है। मगर इन चीजों की कल्पना करना मत शुरू कर दीजिएगा।
अमृत और विष दोनों ही आपके भीतर हैं
कई बार जब लोग कुछ ध्यान प्रक्रियाओं में होते हैं, तो वे अभिभूत हो जाते हैं क्योंकि उनके अंदर ‘अमृत का गिलास’ थोड़ा छलकने लगता है। वे अब तक घूंट-घूंट पीना नहीं सीख पाए होते हैं। अगर आप किसी छोटे बच्चे को पानी से भरा गिलास पकड़ा दें, तो वह पीते समय हर तरफ उसे गिराएगा। इसी तरह लोगों का अमृत छलकने लगता है क्योंकि उन्हें आराम से पीना नहीं आता। अगर वे जरूरी साधना करें तो कुछ समय बाद धीरे-धीरे वे पूरी चेतनता में उससे पी सकते हैं। जब आप चेतनता में उसे पीते हैं, तो शरीर की हर कोशिका और आपके जीवन का हर पल आनंदपूर्ण होता है।
लेकिन इस बिंदु के दो पक्ष हैं। आपने जो टोपी के दो कारण बताये, दोनों रुचिकर हैं। दोनों सही हो सकते हैं – थोड़े विकृत पर वे किसी तरह की समझ से जुड़े हैं। इस बिंदु का एक और पहलू यह है कि इससे जहरीला स्राव भी होता है।
दुनिया में बहुत सी सभ्यताएं ऐसी हैं जिन्हें इस बात की जानकारी थी। कुछ टोपी पहनते हैं, कुछ के पास सिर पर पहनने वाला कपड़ा है, कुछ ने दूसरे इंतजाम किए हैं। आप ध्यान देंगे तो पता चलेगा कि उन सभ्यताओं में मानसिक असंतुलन का स्तर हमेशा कम होता है।
पहले स्थिरता, फिर परमानंद
चाहे आप जीवन में जिस भी चीज को पाना चाहते हों – पैसा, धन-दौलत, सत्ता, ईश्वर या आत्मज्ञान – मुख्य रूप से आप अपने भीतर मधुरता की एक चरम भावना की खोज में होते हैं। आपको बस यह चुनाव करना है कि आप उसे संयोगवश पाना चाहते हैं या पूरी चेतना में।
बहुत सी सरल प्रक्रियाएं और विधियां हैं, जिन्हें मस्तिष्क में मौजूद अमृत की ओर जाने के लिए नहीं, बल्कि आपके भीतर जरूरी आधार बनाने के लिए तैयार किया गया है ताकि जब आप कृपा के जरिये उससे टकराएं, तो आप पागल न हो जाएं। अगर आपका आधार स्थिर नहीं है, तो ज्यादा मधुरता आपको पागल बना सकती है।
योग में आप जो साधना करते हैं, उनका लक्ष्य पहले परमानंद नहीं, स्थिरता पाना होता है। स्थिरता परमानंद से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर परमानंद स्थिरता से पहले मिल जाए, तो आप चूर-चूर हो सकते हैं। स्थिरता आने के बाद परमानंद बहुत शानदार होता है। योगिक प्रणाली में क्रियाओं को इस तरह तैयार किया गया है कि शुरुआत में हर चीज का उद्देश्य स्थिरता लाना होता है।
परमानंद की प्रक्रियाएं लिख कर नहीं रखी गईं
परमानंद की प्रक्रियाओं को कभी शिक्षा के रूप में नहीं दी गई, न ही कहीं लिख कर रखा गया। ऐसी चीजें सिर्फ खास तरह के प्राणियों की मौजूदगी में ही होती हैं क्योंकि ये बहुत व्यक्तिपरक होती हैं। इसलिए बेहतर है कि उन्हें लिख कर न रखा जाए। तंत्र की कुछ किताबों में इसे लिखने की कोशिश की गई है, जो मेरे ख्याल से बहुत गैरजिम्मेदाराना है। मान लीजिए, आप एक ऐसी पुस्तक पढ़ते हैं, जिसमें पहले दो अध्याय अपने अंदर स्थिरता लाने की कुछ सरल क्रियाओं के बारे में हों और अंतिम पांच अध्यायों में खुद को परमानंद के स्तर पर ले जाने के सरल तरीकों की चर्चा हो, तो आप किसे अपनाएंगे? आप परेशानी को दावत देंगे। ये असल में अज्ञानी लोग होते हैं, जो वास्तविकता का सिर्फ अंदाजा लगाते हुए उसके बारे में कुछ लिखने की कोशिश करते हैं। लोग स्थिरता लाने की कोशिश नहीं करेंगे, वे परमानंद की कोशिश करेंगे और इस कोशिश में वे चूर-चूर हो जाएंगे। अगर आपने अपने अंदर स्थिरता लाने के लिए मेहनत नहीं की है, तो परमानंद में आप अपने शरीर को संभाल नहीं पाएंगे।
सिर्फ साधना पर ध्यान देना जरुरी है
जो चीज अभी आपके अनुभव में नहीं है, उसकी इच्छा कभी न करें क्योंकि फिर आप गलत चीजों की इच्छा करेंगे। बस अपनी साधना करें। इसलिए परंपराओं में हमेशा विश्वास पर जोर दिया जाता रहा है। क्योंकि अगर हम पहले ही कोई चीज समझा देंगे, तो कुदरती तौर पर आप गलत चीजों की कल्पना कर लेंगे और उसे पाने की कोशिश करेंगे। आप उसकी चिंता न करते हुए रोज अभ्यास कीजिए। उससे ही नतीजे मिलेंगे।
अगर आप नहीं जानते कि एक पौधा किस तरह बड़ा होता है और मैं आपको कीचड़ और कमल का एक खूबसूरत फूल दिखाकर कहूं कि ये दोनों चीजें एक ही हैं, यह उससे ही बना है। तो क्या आप मेरी बात पर विश्वास करेंगे? विश्वास दिलाने का कोई उपाय नहीं होगा। इसके लिए पागलपन की हद तक के भरोसे की जरूरत होती है। यही वजह है कि हम आम तौर पर उन चीजों की बात नहीं करते। क्योंकि इसे तर्क की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। इसके लिए जीवन को थोड़ा दुरुस्त करने की जरूरत होती है।
एक आदमी अदालत में गया। वह मुलजिम था। जज ने उसे देखकर पूछा, ‘क्या आपके पास वकील है?’ आदमी बोला, ‘नहीं, मगर जूरी में मेरे कुछ अच्छे दोस्त हैं।’
यह भी इसी तरह है। आप इसे तर्क से नहीं तौल सकते। इसीलिए गुरु का अस्तित्व है क्योंकि आपको थोड़े-बहुत पैरवी की जरूरत होती है। उस पैरवी के बिना आप छलांग नहीं लगा सकते। आप हमेशा इसी तरफ खड़े रह जाएंगे। थोड़ी बहुत मरम्मत, कुहनी या धक्का मारे बिना आप इस रेखा को पार नहीं कर पाएंगे।
संपादक की टिप्पणी:
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