अंतिम संस्कार क्यों महत्वपूर्ण हैं?
किसी की मृत्यु के बाद उसके लिये की जाने वाली क्रियायें क्यों महत्वपूर्ण हैं? ये सिर्फ मानसिक सांत्वना के लिये नहीं हैं, बल्कि मानवीय प्रणाली के काम करने के तरीके की एक गहरी समझ की वजह से बनी हैं। सद्गुरु समझा रहे हैं कि कैसे मृत्यु के बाद की क्रियायें मृत व्यक्ति और जीवित लोगों के लिये भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
सदगुरु : यह शरीर और कुछ नहीं बस इकट्ठा की हुई चीज़ों का ढेर है। यह धरती का बस एक टुकड़ा भर है, जिसे हमने उठा लिया है। हमने अपने शरीर के रूप में जो कुछ भी उठाया है, उसका हरेक कण, हरेक परमाणु हमें एक-एक करके यहीं छोड़ना होगा। जब हम मन के बारे में बात करते हैं तो मृत्यु की प्रक्रिया में, विवेक करने वाली बुद्धि भी यहीं छूट जाती है। यह सारी जानकारी जो इकट्ठा की गयी है - सूक्ष्म शरीर, सूक्ष्म मन और वह जानकारी जिसे कर्म कहा जाता है यानि हमारा सॉफ्टवेयर - ये सब ऐसी ही बनी रहती हैं, पर विवेक बुद्धि चली जाती है।
मान लीजिये कि आज आप कहीं पढ़ते हैं कि शेयर बाज़ार में मंदी है और आप सोचते हैं कि आपका बहुत नुकसान हो गया है। फिर भी, अगर आपके पास पर्याप्त विवेक बुद्धि और समझ हो तो आप सोचेंगे, "ठीक है, मेरा इतना चला गया है पर अभी भी मेरे पास इतना तो है। आज मुझे खुश रहना चाहिये"। तो आप अपने आपको किसी और चीज़ में व्यस्त कर लेते हैं और खुश रहते हैं। अगर आपकी यह विवेक बुद्धि चली जाये तो आप मजबूरी में अवसाद या डिप्रेशन की स्थिति में आ जायेंगे। फिर, जिस भी प्रकार की आपकी गुणवत्ता है, उसके रुझानों के हिसाब से ही आप व्यवहार करेंगे। जब कोई अपना शरीर छोड़ता है तो उसकी विवेक बुद्धि चली जाती है। उसके बाद आप सिर्फ अपने उन रुझानों के हिसाब से काम करते हैं, जिस हिसाब से आपका सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म मन आपको चलाते हैं।
और, ये उस सॉफ्टवेयर पर निर्भर करता है जो आपके अंदर मौजूद है। चूंकि, अब न तो विवेक बुद्धि रहती है, न ही कोई तमीज़ (व्यावहारिक ज्ञान), तो जिसका शरीर छूट गया है उसके मन में अगर आप सुखद अवस्था की एक बूंद भी डाल दें तो यह सुखद अवस्था लाखों गुना बढ़ जाती है। ऐसे ही, अगर आप उसके मन में दुखद अवस्था की एक बूंद भी डालते हैं तो दुखद अवस्था भी लाखों गुना बढ़ जाती है। ये थोड़ा सा वैसा ही है जैसा छोटे बच्चों के साथ होता है - वे खेलने निकल जाते हैं तो जब तक इतने थककर चूर नहीं हो जाते कि आगे खेल ही न पायें, तब तक खेलते रहते हैं क्योंकि ये व्यावहारिक ज्ञान उनमें नहीं होता कि कब रुकना चाहिये! मृत्यु के बाद व्यावहारिक ज्ञान पूरी तरह से गायब हो जाता है, एक बच्चे जितना भी नहीं रहता। तो, तब आप मन में जो भी गुण डालते हैं वो लाखों गुना बढ़ जाता है।
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इसी अवस्था को स्वर्ग और नर्क कहा जाता है। अगर आप अस्तित्व की सुखद अवस्था में जाते हैं, तो हम इसे स्वर्ग कहते हैं। अगर आप अस्तित्व की दुखद अवस्था में जाते हैं तो हम इसे नर्क कहते हैं। ये दोनों कोई भौगोलिक स्थान नहीं हैं बल्कि अनुभव के स्तर की वास्तविकतायें हैं, जिनमें से होकर वह जीव गुज़र रहा है जिसने अभी ही अपना शरीर छोड़ा है। ऐसी बहुत सी क्रियायें हैं जिनसे आप किसी तरह से, उस बिना व्यावहारिक ज्ञान वाले मन में सुखद अवस्था की, मधुरता की एक बूंद डाल दें, जो लाखों गुना बढ़ जाये और वो जीव, सूक्ष्म शरीर खुद के बनाये हुए 'स्वर्ग' में रह सके। मृत्यु के बाद की क्रियाओं के पीछे का मूल विचार यही है।
मृत व्यक्ति का ध्यान रखना
ऐसी भी क्रियायें होती हैं जिनसे मृत व्यक्ति की अगली यात्रा पर कम से कम कुछ असर डाला जा सके। इसी आधार पर सारी मृत्यु क्रियायें बनीं हैं। जब कोई मर जाता है तो पहला काम जो पारंपरिक रूप से लोग करते हैं वह है मृत शरीर के दोनों पैरों के अंगूठों को एक साथ बाँध देना। यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे मूलाधार को कुछ इस तरह से सख्त कर दिया जाता है कि उस जीवन को वहाँ से शरीर के अंदर फिर से प्रवेश न मिले। जो जीवन इस जागरूकता के साथ नहीं जिया है कि 'मैं यह शरीर नहीं हूँ', वो जीवन शरीर के किसी भी खुले भाग में से होकर फिर से शरीर के अंदर जाने की कोशिश करेगा, खास तौर पर मूलाधार से हो कर! मूलाधार वह जगह है जहाँ जीवन शुरू होता है और शरीर जब ठंडा पड़ना शुरू करता है, तब यही शरीर का आखिरी गर्म भाग होता है।
पारंपरिक रूप से हमनें हमेशा ऐसा कहा कि किसी के मरने पर उसके शरीर को एक खास समय में जला देना चाहिये। इसका कारण यह है कि जीवन शरीर में वापस आने की कोशिश करता है। शरीर को जलाना, मृत व्यक्ति के बाद जीवित रहने वालों के लिये भी महत्वपूर्ण है। अगर आपके किसी एकदम प्रिय व्यक्ति की मौत हो जाये तो आपका मन उपद्रव करना शुरू कर देता है, यह सोचते हुए कि शायद कोई चमत्कार हो जाये और भगवान उसे वापस ले आये। ऐसा कभी किसी के साथ हुआ नहीं है पर फिर भी, मन तो अपने खेल खेलता है क्योंकि उस व्यक्ति के लिये आपकी अपनी भावनायें हैं। इसी तरह से, जिस जीवन ने अपना शरीर छोड़ दिया है, उसे भी लगता है कि वह शरीर में वापस आ सकता है।
शरीर को जलाने का विज्ञान
अगर आप इस नाटक को रोकना चाहते हैं तो डेढ़ घंटे के अंदर ही मृत शरीर को जला देना चाहिये। आजकल लोगों ने इस समय को 4 घंटे तक यह सुIनिश्चित करने के लिये बढ़ा दिया है कि वह वास्तव में मर गया है। पर, शरीर को जितना जल्दी हो सके, ले जाना चाहिये। किसानों के बहुत से समाजों में मृत शरीर को दफनाने की परंपरा है क्यों कि वे ऐसा मानते थे कि उनके पूर्वजों के शरीर जिस मिट्टी में से आये थे, उन्हें उसी मिट्टी में वापस जाना चाहिये जिसने उनका पोषण किया था। आजकल तो आप अपना खाना स्टोर्स में से खरीदते हैं तो पता ही नहीं कि ये आता कहाँ से है? तो, अब दफनाने की विधि करना ठीक नहीं है। पुराने समय में, जब वे मृत शरीरों को अपनी ही जमीन में दफनाते थे तो शरीरों पर नमक और हल्दी लगा देते थे जिससे वे जल्दी ही मिट्टी में मिल जायें। शरीर को जलाना इसलिये भी बेहतर है क्योंकि इससे पूरा मामला ही खत्म हो जाता है। आपने देखा होगा कि जब किसी परिवार में किसी की मौत हो जाती है तो लोग रोते, चिल्लाते रहते हैं पर जैसे ही शरीर का अग्नि संस्कार हो जाता है, वे शांत हो जाते हैं क्योंकि अचानक ही सबको यह सच समझ में आ जाता है कि अब सब कुछ खत्म हो चुका है। यह न सिर्फ पीछे रह जाने वालों के लिये ठीक है बल्कि उस जीव के लिये भी ठीक है, जिसने अभी-अभी शरीर छोड़ा है क्योंकि जब तक शरीर था, उसे लगता था कि वह वापस आ सकता है, पर अब कोई संभावना नहीं बचती।
मृत्यु के बाद की क्रियाओं का महत्व ("डेथ : एन इनसाइड स्टोरी' किताब से लिये गये अंश)
मृत्यु के बाद की क्रियायें सिर्फ मृत व्यक्ति को, उसकी आगे की यात्रा में मदद देने के लिये ही नहीं हैं, बल्कि ये पीछे छूट गये लोगों के लिये भी हैं क्योंकि वह अगर अपने पीछे बहुत से अशांत, दुखी जीवों को छोड़ गया हो तो उनका जीवन भी अच्छा नहीं रहेगा। ऐसा नहीं है कि उन्हें भूत आकर पकड़ेंगे। पर, इसका असर वातावरण पर पड़ता है। जो रह गये हैं, उन पर ये मानसिक ढंग से असर डालेगा। आसपास के क्षेत्र में जीवन की क्वालिटी पर भी इसका असर होगा। यही वजह है कि दुनिया की सभी संस्कृतियों में मृत व्यक्तियों के लिये अपनी अपनी खास ढंग की क्रियायें हैं।
सामान्य रूप से, ये पीछे रह गये नज़दीकी, प्रिय व्यक्तियों के कुछ खास मानसिक मामलों को ठीक करने के लिये हैं। किसी न किसी ढंग से, इनमें कुछ सार्थकता भी है और कुछ विज्ञान भी! पर, शायद, दूसरी किसी संस्कृति में इतनी विस्तृत क्रियायें नहीं है जितनी भारतीय संस्कृति में हैं। जितनी समझ और गहराई से भारतीय संस्कृति ने मृत्यु पर ध्यान दिया है, उतना किसी और संस्कृति ने नहीं दिया है। जैसे ही मृत्यु होती है, वहीं से लेकर, बल्कि, उससे पहले से भी, ऐसी पूरी प्रणालियाँ हैं जिनसे कोई व्यक्ति सबसे ज्यादा फायदेमंद तरीके से संसार छोड़ सके। हर संभव दृष्टिकोण से जीवन को देखने के बाद, भारतीय संस्कृति में, यह कोशिश की गयी है कि मुक्ति के लिये हर संभव चीज़ की जाये।
अगर मृत्यु होने ही वाली है तो वे उसका उपयोग भी, किसी तरह से, मुक्ति के लिये करना चाहते हैं। तो उन्होंने मर रहे व्यक्ति और मरे हुए व्यक्ति, दोनों के लिये शक्तिशाली क्रियायें बनायी हैं। अब तो ये क्रियायें और ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी हैं क्योंकि धरती पर लगभग हर व्यक्ति बिना जागरूकता के, जीवन की यांत्रिक व्यवस्था के बारे में बिना किसी समझ के मरने लगा है। पुराने दिनों में ज्यादातर लोग संक्रमण और रोगों से मरते थे। तो, उनके लिये, शरीर से परे का विज्ञान बनाया गया। जब वे शरीर में थे तो शायद घर के लोगों को पता ही नहीं चलता था कि उन्हें बिमारी क्या थी या उन्हें सही इलाज ही नहीं मिलता था या वे किसी और कारण से मर जाते थे। तो, कम से कम, मरने के बाद लोग उन्हें इस तरह से मदद करना चाहते थे जिससे वे ज्यादा देर तक इधर उधर न भटकें और जल्दी ही उनका विलय या विसर्जन हो जाये। इसी तरह से अंतिम संस्कार के पीछे का सारा विज्ञान विकसित हुआ। दुर्भाग्य से, अब तो ये सब अर्थहीन क्रियायें बन कर रह गया है क्योंकि लोगों के पास जरूरी समझ या काबिलियत ही नहीं है।
अगर हम मृत लोगों पर ठीक से ध्यान नहीं देते, तो उस समाज के किशोरावस्था के बच्चों को बहुत परेशानी होती है। शरीर छोड़ चुके जीव जो पहला काम करते हैं, वो है किसी किशोर उम्र के लड़के/ लड़की की तरफ जाना क्योंकि वे सबसे ज्यादा असुरक्षित और आसान जीवन होते हैं। किशोरावस्था को आप पिघलती धातुओं जैसी अवस्था का मानवीय रूप कह सकते हैं। जब, सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, बल्कि हर तरह से जब विकास और बदलाव तेजी से हो रहे होते हैं, तो ऐसी अवस्था में जीवन बहुत जल्दी किसी भी तरह के असर में आ जाता है। अगर उनके आसपास कोई सकारात्मक या नकारात्मक ऊर्जा हो तो उसे किशोर उम्र के बच्चे सबसे जल्दी सोख लेते हैं। किशोर उम्र में, लड़कों की तुलना में, लड़कियाँ और ज़्यादा आसानी से इस तरह की बातों की चपेट में आ जाती है। पर किशोरावस्था के पहले के बच्चे, खास तौर पर 8 -10 साल तक की उम्र के बच्चे सामान्य रूप से इस तरह के प्रभावों में नहीं आते, उन पर ये असर नहीं करता। प्रकृति उनकी इस तरह से सुरक्षा करती है तो आपको उन्हें ज्यादा सुरक्षा देने की ज़रूरत नहीं है।
ज्यादातर 10 से 20 साल तक की उम्र के बच्चों पर ऐसी बातों का असर होता है। मैं जब असर होने की बात कर रहा हूँ तो ये उनके हॉरमोनल बदलाव या शराब/नशीले पदार्थों के संदर्भ में नहीं है। ऐसा भी हो तो सकता है पर यहाँ बात कुछ दूसरी तरह के असर के बारे में है जिनकी चपेट में ये बच्चे आ सकते हैं। आजकल आप देख सकते हैं कि किशोरावस्था में बच्चों को कितनी तकलीफों, समस्याओं का सामना करना पड़ता है? पुरानी पीढ़ियों में किशोरावस्था की इतनी समस्यायें नहीं थीं। इसका एक कारण यह भी है कि हम मृत लोगों का सही ढंग से ध्यान नहीं रख पा रहे हैं। ये कुछ ऐसा है जैसे वो सॉफ्टवेयर इधर उधर भटक, लटक रहे हैं और किशोर उम्र के बच्चे उनकी चपेट में आ जाते हैं। इसीलिये, या तो जागरूकता पूर्वक जानने से या फिर अपनी समझ से सभी संस्कृतियों में लोग अपने किशोर उम्र के बच्चों के लिये एक सुरक्षात्मक वातावरण बनाते हैं।