अपने देश को ‘मातृभूमि’ क्यों कहते हैं; ‘पितृभूमि’ क्यों नहीं कहते?
कुछ दिनों पहले जानी-मानी हस्ती किरण बेदी ने भारत के नाम और संस्कृति से जुड़े विषय पर सद्गुरु से बातचीत की। पेश है उस बातचीत की पहली कड़ी
कुछ दिनों पहले जानी-मानी हस्ती किरण बेदी ने भारत के नाम और संस्कृति से जुड़े विषय पर सद्गुरु से बातचीत की। पेश है उस बातचीत की पहली कड़ी:
किरण बेदी:
सद्गुरु हम शुरु से ‘वंदे मातरम’ सुनते आए हैं। हम अपने देश को मातरम यानी माता क्यों कहते हैं, पिता क्यों नहीं कहते? देश को ‘मातृभूमि’ क्यों कहते हैं, ‘पितृभूमि’ या दोनों क्यों नहीं कहते?
सद्गुरु:
हालांकि मूल रूप किसी देश का आशय वहां के लोगों से होता है, लेकिन किसी देश की सीमा और परिभाषा वहां की भूमि या धरती से जुड़ी होती है।
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किरण बेदी:
क्या इसके पीछे सिर्फ यही एक कारण है? इसकी शुरुआत कब से हुई थी?
सद्गुरु:
मैं तो कहूंगा कि मातृभूमि या देश को मां कहने का चलन इस देश यानी भारत से शुरू हुआ। उसकी वजह है कि यह इस धरती का सबसे प्राचीन देश है। दुनिया में एक राष्ट्र की आज जो समझ है, हमारा देश उससे बिलकुल अलग है। आधुनिक देश भाषा, धर्म, जाति, नस्ल और विचारधारा से मिलकर बने हैं – मूल रूप से समानता ही देशों को एक ठोस रूप देती है। लेकिन भारत में हम सब लोग अलग-अलग तरह के हैं, और हम एक साथ मिलकर अच्छे हैं। यही इस देश की प्रकृति है। यही वह भावना है जिसे हमें प्रोत्साहित करना चाहिए।
यूरोप के लोग जब यहां आए तो उन्हें एक बात समझ में नहीं आई कि यह एक देश कैसे हो सकता है? इस विविधतापूर्ण देश में जब कोई भी एक चीज सबको डोर से बांधने वाली नहीं है तो आखिर वो कौन सी चीज है, जो इस भूभाग को एक राष्ट्र बनाती है? यह कुछ ऐसी बात है जिस पर इस देश के लोगों और नेतृत्व दोनों को जरूर विचार करना चाहिए। वो चीज न तो भाषा है, न कोई धर्म है। न ही यह कोई जाति है। यहां राष्ट्रीयता सभी धर्मों से पहले आई। जब यहां कोई धर्म नहीं था, तब भी यह देश था। हिमालय और ‘इंदु सरोवर’ यानी हिंद महासागर के बीच की भूमि को हिंदुस्तान कहते हैं, जो दरअसल उसकी भौगोलिक व्याख्या है। यह किसी धर्म विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करता। हिंदुस्तान के तौर पर इस देश की पहचान कोई धार्मिक पहचान नहीं है, बल्कि यह इसकी भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान है।
धरती पर किसी और देश की तुलना में लंबे समय से जिस चीज ने हमें एक देश के रूप में बांधे रखा है, वह है हमारी तलाश - सत्य और मोक्ष की तलाश। यह हमेशा से ही जिज्ञासुओं की धरती रही है। इस तलाश में ही हमें एकता की प्राप्ति हुई। हम हमेशा जिज्ञासु और खोजी थे, किसी मत या सिद्धांत के विश्वासी नहीं। अगर हम समानता की तलाश करते तो यह विश्वासियों की भूमि होती, खोजियों की नहीं।
यह खोज या जिज्ञासा ऐसी नहीं थी, जिसका हमने आविष्कार किया। यह मानव मेधा की प्रकृति है कि वह जानना, अनुभव करना और मुक्त होना चाहती है।
आप इंसानों में आस्थाओं और विश्वासों की कितनी भी मिलावट कर लें, आप उनकी सोच बदलने की कितनी भी कोशिश कर लें, लेकिन जैसे ही वह एक बार अपनी बुनियादी जरूरतों की दहलीज को पार करता है, वह हमेशा जानने की कोशिश करता है - अपने अस्तित्व की प्रकृति को, इस सृष्टि को व आसपास मौजूद हर चीज की प्रकृति को। आप चाहें इसे विज्ञान कहें या आध्यात्मिक प्रक्रिया अथवा खोजबीन कह लें या जिज्ञासा - मूल रूप से इंसानी बुद्धि अपनी मौजूदा सीमाओं से निकल कर खुद को उन बंधनों से आजाद कराना चाहती है, जिसमें वह फिलहाल फंसी हुई है।
हमने अपने देश का निर्माण इसी चाहत, इसी जिज्ञासा के आधार पर किया है। जब तक हम अपनी इस जिज्ञासा को जीवंत रख पाएंगे, तब तक हम नष्ट नहीं हो सकते। अगर हम खुद को समानता की ओर रूपांतरित करने की कोशिश नहीं करेंगे तो हम हमेशा एक रहेंगे।