प्रश्न 1 : सद्‌गुरु, संघर्षों और विपत्तियों से भरे हुए इस विश्व में आप, एक ज्यादा शांतिमय तथा सामंजस्यपूर्ण विश्व बनाने में भारत की ख़ास विशेषताओं की क्या भूमिका देखते हैं ?

सद्‌गुरु : यह दुनिया सिर्फ एक ग्रह नहीं है। दुनिया का अर्थ है, इसके लोग। अगर आप वास्तव में शांति के लिये चिंतित हैं, तो बदलाव की ज़रूरत व्यक्तिगत स्तर पर है। शांत लोग एक शांत विश्व का निर्माण करते हैं। तो, हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी में हमें ज़रूरत है शांति की संस्कृति की - कैसे लोग अपने शरीर को, अपने मन को, और साथ ही अपनी भावनाओं और ऊर्जाओं को एक शांतिमय अवस्था में बनाये रख सकते हैं!

हमारी संस्कृति में, कुछ पीढ़ियों पहले, हर व्यक्ति के जीवन में कुछ सरल प्रक्रियायें होती थीं जो उनकी आतंरिक खुशहाली का ख्याल रखती थीं। दुर्भाग्यवश, आज अगर आप एक शब्द - योग - का उच्चारण करते हैं तो लोगों को बस एक ही ख्याल आता है कि आप को अपने शरीर को तोड़-मरोड़ कर किसी असंभव सी लगने वाले मुद्रा में लाना है। नहीं। योग, एक ख़ास स्तर पर अपने अंदर सही ढंग की रासायनिक स्थिति बनाने का विज्ञान है।

 

 

अपने अंदर एक ऊर्जावान, संतुलित तथा आनंदपूर्ण परिस्थिति बनाने के लिये हमारी संस्कृति में गहन तकनीकें हैं। हमें बस इन्हें सीखने और अमल में लाने की चाह होनी चाहिए। हर एक विचार और भावना के सामानांतर हमारे शरीर में एक रासायनिक प्रक्रिया होती है। अगर आप शांत हैं तो आप के शरीर के अंदर रासायनिक अवस्था एक ख़ास तरह की होगी, और अगर आप वैसी रासायनिक स्थिति अपने अंदर बना सकें, तो आप स्वाभाविक रूप से शांत रहेंगे। सही प्रकार के अभ्यास कर के आप अपनी अंदरूनी रासायनिक अवस्था में परिवर्तन ला सकते हैं, और इसको उस स्तर पर ला सकते हैं कि बाहरी परिस्थिति चाहे जैसी हो, आप हमेशा शांत रहेंगे। शांति और आनंद इस बात की गारंटी हैं कि आप अप्रिय काम नहीं करेंगे। अगर आप अपने अंदर सुखद अवस्था में हैं, तो आप दूसरों के साथ अप्रिय व्यवहार क्यों करेंगे?

हमारी संस्कृति में ऊर्जावान, संतुलित तथा आनंदपूर्ण आंतरिक परिस्थिति का निर्माण करने की गहन तकनीकें हैं। हमें बस इन्हें सीखने और अमल में लाने की इच्छा चाहिए। यदि कोई ऐसा काम है जिसे करने के लिये हमारे देश के लोगों को प्रतिबद्ध होना चाहिए, तो वह है पूरी दुनिया के आंतरिक बदलाव का रास्ता बनाना।

प्रश्न 2 : हम जब भारत की सूक्ष्म शक्तियों की बात करते हैं, तो आप को क्या लगता है कि इसके मुख्य तत्व क्या हैं? भारत की इन सूक्ष्म शक्तियों का सार क्या है?

सद्‌गुरु : राष्ट्र बनते हैं, वंश, धर्म, भाषा या जातीयता के आधार पर। हालांकि, भारत आश्चर्यजनक रूप से इन सब तथा और भी कई अन्य तत्वों के जटिल मेल का परिणाम है। समानता या एकरूपता एक राष्ट्र के बनने का आधार होती है। लेकिन भारत इस फॉर्मूले के बिल्कुल विपरीत है।

भूतकाल में हम भले ही 200 राजनैतिक टुकड़ों में बंटे हुए थे, फिर भी हमें एक ऐसी इकाई के रूप में देखा जाता था जिसमें सांस्कृतिक एकता थी। लेकिन इस उपमहाद्वीप को एक अस्तित्व, एक इकाई के रूप में क्यों देखा जाता था? देखें तो यहाँ हर 50 मील की दूरी पर लोग अलग दिखते हैं, अलग भाषा बोलते हैं, उनका पहनावा, भोजन अलग हैं - उनके बारे में सब कुछ अलग है। इसका कारण यह है कि यह भूमी हमेशा से जिज्ञासुओं की रही है, यह ज़मीन विश्वास करने वालों की नहीं है। यही इस संस्कृति का सार है।

Iएक जिज्ञासु कभी विश्वास करने वाला नहीं हो सकता क्योंकि आप तभी खोज करते हैं जब आप यह समझ जाते हैं कि आप जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते। दुनिया में आज सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जिज्ञासु प्रवृति की संस्कृति का निर्माण करना चाहिये, धर्म आधारित नहीं। संसार में सभी झगड़ों का मूल एक ही है, चाहे लोग इसे अच्छे और बुरे के बीच का संघर्ष बतायें, और वह है, एक व्यक्ति का विश्वास बनाम दूसरे व्यक्ति का विश्वास, चाहे वह धार्मिक हो या अन्य प्रकार का। जिस पल आप किसी एक चीज़ को मान लेते हैं, उस पर विश्वास कर लेते हैं, तो आप दूसरी सभी चीजों के लिये अंधे हो जाते हैं।

और जब आप खोजते हैं, तो कोई ऐसी चीज़ है जिसके लिये आप प्रयास करेंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके लिये आप झगड़ा करेंगे। विश्व को इसकी बहुत आवश्यकता है। हम जब झगड़ते हैं, तो नष्ट करते हैं। जब हम प्रयास करते हैं, तो निर्माण करते हैं।

 

प्रश्न 3 : पिछले कुछ वर्षों में, भारत की वैश्विक छवि उन्नत हुई है, और इसके साथ ही भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत की मान्यता भी बढ़ी है। आप पूरी दुनिया से भारत के आध्यात्मिक मूल्यों को मिलने वाली सकारात्मक प्रतिक्रिया को कैसे समझायेंगे?

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सद्‌गुरु: हमेशा से माना जाता है कि समृद्धि, संपन्नता से खुशहाली आती है। लेकिन यूरोप में, जहाँ कई दशकों से लगातार समृद्धि बनी हुई है, 38% लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्त हैं। अमेरिका में लगभग 70% वयस्क लोग डॉक्टरों से दवाईयां लेते हैं। ये तो खुशहाली नहीं है।

आजकल लोग ज्यादा तनावग्रस्त तथा मानसिक रोगी हैं, और अपनी आतंरिक समस्याओं से निपटने के लिये वे जो भी तरीके आजमा रहे हैं, वे काम नहीं कर रहे। इसलिए योग की ओर मुड़ना बहुत स्वाभाविक है। मनुष्य की खुशहाली के लिये, यौगिक विज्ञान ही एकमात्र तकनीक है जो 1500 से भी ज्यादा वर्षों से जीवित है। आज 2 करोड़ से भी ज्यादा लोग किसी न किसी रूप में योग का अभ्यास कर रहे हैं, वह इसके फायदों की वजह से है। यह वास्तव में काम करता है!

 

 

योग का मूल उद्देश्य है कि आप के जीवन के अनुभव को इतना बड़ा और सर्व-समावेशी बना दें, कि आप केवल एक व्यक्ति न रह जायें, बल्कि एक ब्रह्मांडीय प्रक्रिया बन जायें। मैं सामान्य रूप से कभी इसके लाभों के बारे में बात नहीं करता क्योंकि मैं उन्हें योग के साईड इफ़ेक्ट मानता हूँ। लेकिन निश्चित तौर पर इसके शारीरिक और मानसिक लाभ तो हैं ही। ज्यादा शांत, आनंदपूर्ण एवं स्वस्थ्य होने के रूप में आप स्पष्ट बदलाव पाते हैं, और ऐसे बहुत से लोग हैं जो चमत्कारिक रूप से अपनी असाध्य बीमारियों से बाहर आ गये हैं। लेकिन यह योग का मूल स्वभाव नहीं है। योग का मूल उद्देश्य आप के जीवन के अनुभव को इतना बड़ा और सर्व समावेशी बनाना है कि सिर्फ एक व्यक्ति होने की जगह, आप एक ब्रह्मांडीय प्रक्रिया बन जायें।

हर व्यक्ति की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अभी जो है, उससे कुछ अधिक हो जाये। आप जो खोज रहे हैं, वह असीमित विस्तार है। असीमित विस्तार कभी भी भौतिक साधनों से नहीं हो सकता। ये तभी हो सकता है जब भौतिकता से परे, कोई आयाम आप के अंदर एक जीवित वास्तविकता बन जाये। इस आयाम का अनुभव करना ही योग का सच्चा उद्देश्य है। तो इस अर्थ में, वह सिर्फ योग ही है जो मानवीय खुशहाली को सही तौर पर संबोधित कर सकता है। लेकिन हमें यह भी समझना चाहिये कि राष्ट्र की सुदृढ अर्थव्यवस्था एवं राजनीतिक प्रभाव के बिना आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक आयाम का कोई महत्व नहीं रह जाता, वे एक अपंग पक्षी की तरह हो जाते हैं।

प्रश्न 4 : आप सारी दुनिया में घूमें हैं तथा भारत की आध्यात्मिकता और परंपराओं के बारे में बात कर रहे हैं। तो भारतीय मूल्यों एवं योग जैसी आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के बारे में विश्व की प्रतिक्रिया को आप कैसे देखते हैं?

सद्गुरु : मैं सारी दुनिया में देख रहा हूँ कि आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के लिये लोग जैसे दरवाजे खोल रहे हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। यहाँ तक कि विश्वविद्यालय भी, जो प्रतिरोध के अंतिम गढ़ होते हैं, इन्हें अपना रहे हैं। शिक्षाविद् कभी भी दिव्यदर्शिता या आध्यात्म को अपने जीवन का भाग नहीं बनाते, लेकिन अब वे भी अपने विद्यार्थियों के लिये सप्ताह भर के सत्रों का आयोजन कर रहे हैं।

और तीन साल पहले, संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ को अपनाया था, तब 177 राष्ट्रों ने इस प्रस्ताव को समर्थन दिया और आगे बढ़ाया। किसी अन्य प्रस्ताव को कभी भी ऐसा समर्थन नहीं मिला था। यह लगभग ऐसा था जैसे सारा विश्व भारत द्वारा यह कदम उठाये जाने का इंतज़ार कर रहा था।

इंसानी खुशहाली तब तक नहीं आएगी, जब तक हम अन्दर की ओर नहीं मुड़ते, क्योंकि हर इंसानी अनुभव अन्दर ही पैदा होता है। ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ का अर्थ है कि हम खुशहाली को विज्ञान की तरह देख रहे हैं, किसी विश्वास की तरह नहीं, आप के लिये कुछ संयोग से हो जाये, ऐसे नहीं। हम खुशहाली लाने के लिये सितारों की ओर नहीं देख रहे। हम जागरूकता पूर्वक एक वैज्ञानिक प्रक्रिया की ओर देख रहे हैं, जो खुशहाली लाएगी।

खुशहाली की तलाश में लोगों ने हमेशा ऊपर (भगवान) की ओर देखा, और हमेशा लड़ते रहे। फिर उन्होंने बाहर की ओर देखा और धरती को तहस-नहस कर दिया। लेकिन खुशहाली तभी आयेगी जब हम अंदर की ओर मुड़ेंगे। बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता अंदर की ओर है। मानव खुशहाली तब तक नहीं मिलेगी जब तक वे अंदर की ओर नहीं मुड़ते क्योंकि मनुष्य के सभी अनुभव अंदर से ही पैदा होते हैं। जब आप यह बात समझ लेते हैं, तब योग बहुत सार्थक हो जाता है। जैसे-जैसे मानवीय बुद्धिमत्ता और तेज होगी, आप देखेंगे कि अगले 25 - 50 वर्षों में, योग सारी दुनिया में एक नियम बन जायेगा, यह अपवाद नहीं रहेगा। “बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता अंदर की ओर है।”

प्रश्न 5 : भारत की सूक्ष्म शक्तियों को आगे बढ़ाने के लिये क्या किया जाना चाहिये? आप की दृष्टि में, सरकार तथा अन्य संघठनों की भारत की सांस्कृतिक पहुँच को बढ़ाने में क्या भूमिका होनी चाहिये ?

सद्गुरु : भारत को 'आगे बढ़ाने' या 'ढकेलने' की बात काम नहीं करने वाली। हमें इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिये कि कौन हमारी बात मान रहा है, कौन नहीं। हम अगर उन्नत होते और चमकते हैं, अगर हम प्रकाशमान हैं तो लोग ज़रूर ही उस दिशा में आयेंगे। हमें ऐसे व्यक्तियों के निर्माण में निवेश करना चाहिये जो लोगों को दिशा दिखाने के लिये एक प्रकाशगृह हों।

इस संस्कृति की विशेषता, व्यक्तिगत प्रतिभा को निखारना रहा है। दुर्भाग्यवश, पिछली कई पीढ़ियों से हमने इसमें पर्याप्त निवेश नहीं किया है। लंबी अवधि से, हमारे यहाँ जबर्दस्त प्रभावकारी व्यक्तित्व उभरे हैं। यौगिक कथायें बताती हैं कि कैसे यहाँ पर इस तरह के मनुष्य पैदा हुए जिनसे देवता भी ईर्ष्या करते थे। उस तरह की महान प्रतिभायें इस देश में रही हैं। तो, यह वो चीज़ है जिस पर हमें ध्यान देना चाहिये। यदि आप हर पीढ़ी में इस तरह के लोग निर्मित करें, उसके बाद देखते हैं कौन इस देश को नज़रंदाज़ कर सकता है।

प्रश्न 6 : पिछले कुछ वर्षों में, हमारे यहाँ राष्ट्रवादी जुनून और प्रांतीयता काफी बढ़ी है। आप इन विभाजनों को दूर करने, और ध्रुवीकरण को कम करने में सांस्कृतिक कूटनीति की क्या भूमिका देखते हैं?

सद्गुरु : मुझसे यह बार-बार पूछा जाता है कि क्या भारत एक असहिष्णु देश बनता जा रहा है? अपने आसपास, जहाँ तक मैं साम्प्रदायिक और अन्य प्रकार के संघर्षों के सन्दर्भ में देखता हूँ, मुझे लगता है कि पिछले 70 वर्षों में हमारी जो स्थिति रही है, उसकी अपेक्षा आज हम काफी बेहतर हैं। आज आप किसी भी गाँव में, किसी भी समुदाय में जाईये, जाति और समुदाय के भेदभाव, काफी मात्रा में कम हो गये हैं, पर आज भी इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकी है। बात सिर्फ यह है कि आज वह हर व्यक्ति, जिसके पास फोन है, पत्रकार हो गया है। तो देश के किसी भी कोने में कोई भी घटना घटती है, तो वो आपकी बैठक में आ जाती है।

दूसरी बात ये है कि आज बहुसंख्यक समुदाय में एक तरह की असुरक्षा की भावना बढ़ गयी है, क्योंकि देश के कई हिस्सों में जनसांख्यिकीय बदलाव तेजी से और प्रयत्नपूर्वक हो रहे हैं। इसके बारे में कोई बात करना नहीं चाहता, पर उत्तरपूर्व में, लक्ष्यद्वीप में, केरल में पिछले 30 -40 वर्षों में जनसांख्यिकीय बदलाव बहुत तेजी से हुए हैं ।

अगर ऐसे बदलाव कई सौ वर्षों में होते हैं तो ये लोगों का चयन है। लेकिन जब ये इतने कम समय में होता है और इसके लिये इतने सक्रीय अभियान चलते हैं, तो अन्य लोग असुरक्षित महसूस करेंगे ही, क्योंकि आप को नहीं पता कि कल आप के साथ क्या होगा ? आप देख सकते हैं कि आईएसआईएस के कारण क्या हो रहा है, और काश्मीर में क्या हुआ है, जहाँ एक ख़ास समुदाय को दो दशक पहले, सारे के सारे समुदाय को, अपने घर, इलाके छोड़ कर भागना पड़ा था। तो सभी में यह समझ होनी चाहिये कि इतनी तेजी से जनसांख्यिकीय बदलाव न करें।

प्रश्न 7 : क्या आप को लगता है कि सूक्ष्म शक्तियों से आतंकवाद के अभिशाप को, और उसे बढ़ावा देने वाली घातक विचारधाराओं को कम करने में मदद मिल सकती है? यदि हां, तो किस तरह से ?

सद्गुरु : जैसा कि मैंने पहले कहा, व्यक्तिगत बदलाव ही एकमात्र हल है। हमें इस दुनिया को ऐसा बनाना चाहिये जहाँ हर व्यक्ति एवं जीवन को यह अवसर मिले कि वह अपने आप को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त कर सके, क्योंकि यही वो बात है जो जीवन को आगे बढ़ाती है। इस संस्कृति, जिसे हम भारत कहते हैं, के पास ऐसे साधन हैं जिनसे ऐसी दुनिया बनाई जा सकती है, जिसमें अंदर की गति हो, जो हर मनुष्य को बिना किसी दूसरे जीवन को बाधा पहुंचाये, उसकी पूर्ण संभावना तक खिलने में सहायक होगी।

इसके साथ ही मैं यह भी कहूंगा हमें समझना चाहिये कि धार्मिक आतंकवाद क्यों होता है? हालाँकि कोई भी इसे कहना नहीं चाहता, सिर्फ एक ही नहीं, दुनिया की कई धार्मिक पुस्तकों में यह स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है, "जो हमारे साथ नहीं हैं, मार दिये जाने योग्य हैं"।

चाहे किसी भी कारण से ये उत्तेजित करने वाले शब्द पवित्र ग्रंथों में आये हों, अब समय आ गया है कि जो लोग इन ग्रंथों को मानते हैं, उन समझदार लोगों को इन ग्रंथों में से ऐसे शब्द निकाल देने चाहिये जो उचित नहीं हैं। यदि सभी धार्मिक समुदाय अपने धार्मिक ग्रंथों में से हिंसा को प्रोत्साहन देने वाले शब्दों को निकाल देने पर विचार करने के लिये तैयार हों, तभी किसी समाधान की सम्भावना होगी। हमें आतंरिक बदलाव की क्रांति की आवश्यकता है, दूसरों को बदलने के लिये बाहरी आक्रामकता की नहीं।

प्रश्न 8 : विश्व के सभी महाद्वीपों में भारतीय मूल के लगभग 3 करोड़ लोग रहते हैं। इस वर्ष, इनमें से बहुत से लोग, पवित्र नगरी वाराणसी में होने वाले 15वें प्रवासी भारतीय दिवस के अवसर पर आयेंगे। भारतीय संस्कृति एवं मूल्यों के प्रचार-प्रसार में, आप प्रवासी भारतीयों की क्या भूमिका देखते हैं ?

सद्गुरु : मैं कहूंगा कि अगर आप में अखंडता है, तो भारत में करने को बहुत कुछ है। मैं अखंडता पर जोर दे रहा हूँ क्योंकि भारत में इसकी बहुत कमी है। इस देश में हमें जो चाहिये वो आवश्यक रूप से सिर्फ विदेशी मुद्रा नहीं है। धन तो हमारे पास है। हमें ऐसे लोग चाहियें जो भ्रष्टाचार से मुक्त हों, स्पष्ट हों, उद्देश्य पर केंद्रित हो, तथा पूर्ण रूप से निष्ठावान हों।

आज भारत आर्थिक समृद्धि की दहलीज़ पर है। मैं जब आर्थिक समृद्धि की बात करता हूँ तो शेयर बाजार की बात नहीं कर रहा। हमारे देश में ऐसे 60 करोड़ लोग हैं जिन्होंने जीवन भर ठीक से खाना नहीं खाया है। हम अगर अगले 5 से 10 वर्षों तक सही ढंग से काम करें तो हम बड़ी संख्या में लोगों को जीवन के एक स्तर से दूसरे स्तर पर ले जा सकते हैं - सिर्फ परोपकार से नहीं, बल्कि प्रगति के मार्ग से।

हम सीमा पर बैठे हैं और हम सही मार्ग पर हैं। समस्या ये है कि हम सीमा पर बहुत ज्यादा दिनों से हैं। विशेष रूप से जब आप सही मार्ग पर हों और आप एक ही जगह पर बहुत लंबे समय तक बैठे रहें तो आप कुचल दिए जायेंगे। यह महत्वपूर्ण है कि हम चलें और तेज़ चलें। तो अगर आप को लगता है कि आप में अखंडता है तो कृपया आईये और भारत में रहिये। यहाँ बहुत कुछ करने की ज़रूरत है।