प्रश्नकर्ता : सद्‌गुरु, कभी-कभी मुझे लगता है कि कुछ परिस्थितियां या घटनाएं पहले भी कभी ठीक ऐसे ही, हूबहू, घट चुकी हैं। फ्रेंच में इसे ‘देजा-वू’ यानी पूर्वानुभव कहते हैं। क्या सचमुच ऐसा होता है? यह कैसे संभव है?

सद्‌गुरु:

मैं इसको घिसा हुआ रेकॉर्ड प्लेट कहूंगा, जिसमें कोई शब्द बार-बार बजने लगता है। आपके साथ एक ही चीज बार-बार नहीं होनी चाहिए। कम से कम अब तो आपके साथ कुछ नया होना चाहिए। चाहे वह अच्छा हो या बुरा, इससे फर्क नही पड़ता। क्या आप चाहते हैं कि आपके साथ बार-बार वहीं चीजें हों? कृपया ऐसी चीजों की कामना मत कीजिए, वर्ना आपकी हालत भी घिसे हुए रेकॉर्ड प्लेट की तरह हो जायेगी, जिससे गाने की एक ही लाइन बार-बार बजती है। अगर आप बहुत ज्यादा डरे हुए हैं तो जाहिर है कि आपका दिमाग बार-बार वही चीजें दोहराएगा और हर नई चीज से आपको डर लगेगा। तो वही बेकार की चीजें आपके जीवन में घटित होती रहेंगी और कुछ भी नया नहीं होगा। अब आप इसे चाहे जो नाम दे लीजिए, ‘देजा-यू’ कह लीजिए या ‘देजा-मी’, लेकिन आप कहीं भी चले जाइए, आपके साथ वही चीजें दोहराई जाती रहेंगी। आज अधिकतर लोगों के साथ यही ‘देजा-वू’ हो रहा है, वही चीजें बार-बार हो रही हैं, चाहे वो जहां भी जाएं।

एक बार शंकरन पिल्लै एक मनोचिकित्सक के पास गए। मनोचिकित्सक वो है, जो आपसे ढेर सारे सवाल करता है, लेकिन उनके कोई जवाब नहीं देता और अंत में आपसे अपनी फीस भी वसूलता है। तो इस मनोचिकित्सक ने भी शंकरन पिल्लै से तमाम सवाल पूछे और फिर अंत में उसे अपना बिल पकड़ा दिया। इस पर शंकरन ने उससे कहा, ‘ये सारे सवाल तो रोज मेरी पत्नी भी मुझसे पूछती है, लेकिन कम से कम वह इसकी फीस तो नहीं वसूलती।’

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आप अभी जहां कहीं भी हैं, उसका ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाना, उसी से अपने जीवन का सृजन करना, यही महत्वपूर्ण है।
अगर आप बहुत ज्यादा देजा-वू के चक्कर में पड़ेंगे तो आपको जीवन की समस्या और उसके समाधान में कोई अंतर ही नहीं लगेगा। दोनों आपको एक ही लगने लगेंगे। यह कहना आज-कल एक फैशन बन गया है कि ‘ओह, मैं पहले भी यहां आया था।’ लोग मेरे पास आकर अकसर पूछते हैं, ‘सद्‌गुरु, क्या मैं पिछले जन्म में भी आपके साथ था?’ मैं कहता हूं, ‘उन सारे बेवकूफों से मैंने पहले ही छुटकारा पा लिया था। अगर आप यहां एक बार फिर आ गए हैं, तो इसका मतलब है कि पिछली बार आप एक असफल उक्वमीदवार रहे हैं।’

तो फिर यह सवाल क्यों है कि मैं पहले भी यहां था या नहीं? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप अभी यहां हैं, बस यही अहम है। ‘क्या मैं यहां दूसरी बार हूं, तीसरी बार हूं?’ इन सवालों का कोई मतलब नहीं है। मैं अभी यहां हूं, या कहीं और हूं, इससे फर्क नहीं पड़ता। आप अभी जहां कहीं भी हैं, उसका ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाना, उसी से अपने जीवन का सृजन करना, यही महत्वपूर्ण है। आप पहले यहां थे या नहीं थे, यह मायने नहीं रखता है। तो आप इसके बारे में खोज न करें, वरना आप अनजाने में ही उन्हीं परिस्थितियों में बार-बार पड़ते रहेंगे। आप खुद के साथ ऐसा मत करें।

सवाल है कि क्या ऐसा होता है? जी हां, ऐसा होने की काफी संभावना है। खासकर अगर आपकी याददाश्त खराब है, तो आपके साथ ढेर सारी ‘देजा-वू’ घटनाएं घट सकती हैं। मान लीजिए आप किसी ऐसे इंसान से मिलते हैं, जिसे आपने एक दिन पहले ही देखा था, लेकिन आपको कल की घटना याद नहीं है। आज उससे मिलने पर शायद आप कहें, ‘ओह, लगता है कि मैंने आपको अपने पिछले जन्म में कहीं देखा है।’ बेशक, बीत हुआ कल, आपका पिछला जीवन है, आपका अतीत है।
जीवन ने आपको एक ऐसी सुरक्षा दी है, कि आपको कुछ चीजें याद नहीं रहतीं। इसे ऐसा ही रहने दीजिए।
सिर्फ  यही जीवन आपको काफी उलझाए हुए है, इसलिए इन सारी चीजों का पीछा मत कीजिए। मान लीजिए आपको अपने पिछले दस जन्मों की बातें याद भी हों, तो आप उनका क्या करेंगे? क्या आप पागल नहीं हो जाएंगे? क्या आप दस जन्मों की याददाश्त, भावनाओं और समस्याओं को संभाल पाएंगे। क्या एक साथ अपनी दस सास की कल्पना कर सकते हैं? नहीं न? तो उसकी कामना मत कीजिए। मान लीजिए आपको दस जन्म याद हैं और अचानक आपको अपनी दस-दस सास एक साथ अपने आसपास बैठी नजर आने लगें तो क्या आप इस पल को जी पाएंगे? बेहतर तो होगा कि आप उन्हें पहचाने ही नहीं। मान लीजिए वे वास्तव में हैं, फिर भी आप उन्हें न पहचानें।(हंसते हैं) जीवन ने आपको एक ऐसी सुरक्षा दी है, कि आपको कुछ चीजें याद नहीं रहतीं। इसे ऐसा ही रहने दीजिए। जब तक कि आप इतने परिपक्व या निरासक्त नहीं हो जाते, कि आपके सामने आपके पिछले जन्म की मां, पत्नी या पति व बच्चे बैठे हों, और आप उनके प्रति बिना किसी भावना के, बिना किसी ममता या आसक्ति के, बिना किसी दिक्कत के उन्हें सहज दृष्टि से देख सकें, जब तक आप इस अवस्था तक नहीं पहुंच जाते, तब तक पुरानी चीजें याद न रहना ही आपके लिए बेहतर होगा। अगर ऐसा नहीं होता तो आपका जीवन बहुत बड़ा झंझट हो जाएगा। इसलिए किसी भी चीज को याद रखने की जरूरत नहीं है।

प्रश्नकर्ता : कभी-कभी मुझे किसी जगह पर जाकर ऐसा लगता है कि मैं पहले भी यहां आ चुका हूं। क्या यह ‘देजा-वू’ है? जब मैं पहली बार आपसे मिला था तो मैं रोया क्यों था?

सद्‌गुरु:

आपको चाहे जो अनुभव हों, वे चाहे जैसे भी हों, आप बस उनका आनन्द लीजिए, फिर उन्हें जाने दीजिए, उन्हें जमा मत करते जाइए। अगर आप इन्हें बटोरने लगे, तो एक समय के बाद आप वहम के शिकार हो जाएंगे, आपको मतिभ्रम होने लगेगा।
लोग अकसर तब रोते हैं जब वे या तो कुछ बहुत बुरा देख लेते हैं, या फिर जब कुछ बहुत अच्छा देख लेते हैं। मुझे नहीं पता कि आपका अनुभव क्या था? इसे मैं आप पर ही छोड़ता हूं। (हंसते हैं) इसलिए इन चीजों के बारे में परेशान मत होइए। अगर आप इन चीजों को लेकर ज्यादा चिंता करेंगे, तो आप अपने दिमाग के उस हिस्से पर काबू नहीं रख पाएंगे जिसका काम होता है हरदम कल्पना करना। तब यह अपने आसपास जो कुछ भी देखेगा, उसे लेकर तरह-तरह की कल्पना करना शुरू कर देगा। तब उसे हर चीज में ‘देजा-वू’ दिखाई देगा। खुद के साथ ऐसा मत कीजिए। आपको चाहे जो अनुभव हों, वे चाहे जैसे भी हों, आप बस उनका आनन्द लीजिए, फिर उन्हें जाने दीजिए, उन्हें जमा मत करते जाइए। अगर आप इन्हें बटोरने लगे, तो एक समय के बाद आप वहम के शिकार हो जाएंगे, आपको मतिभ्रम होने लगेगा।
जब भी आप किसी चीज के बारे में दो-तीन बार बात करते हैं, तो वह आपके दिमाग में अपनी एक मजबूत छाप बना लेती है।
यही वजह है कि ईशा में जब लोग अपने अनुभवों के बारे में बात करते हैं तो हम उनको इस बारे में हमेशा मुंह बंद रखने को कहते हैं। आपको जब भी किसी कार्यक्रम के बारे में किसी से कुछ साझा करना है या बताना है तो इससे हुए फायदों के बारे में बताइए, न कि इससे हुए अनुभवों के बारे में। बात करनी हो तो आप यह बताएं कि इससे आपके जीवन में क्या और कैसा रूपांतरण हुआ। आप अपने दिमाग में होने वाले मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल को मत गिनाइए, क्योंकि जब भी आप किसी चीज के बारे में दो-तीन बार बात करते हैं, तो वह आपके दिमाग में अपनी एक मजबूत छाप बना लेती है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो कुछ समय बाद आप यह भी नहीं समझ पाएंगे कि क्या असलियत है और क्या कल्पना।
अगर आप अपने अनुभवों में गहराई लाना चाहते हैं, तो आपको एक आसान से नियम का पालन करना होगा कि आपको न तो उन अनुभवों को सच कहना होगा और न ही झूठ।
अगर आप अपने अनुभवों में गहराई लाना चाहते हैं, तो आपको एक आसान से नियम का पालन करना होगा कि आपको न तो उन अनुभवों को सच कहना होगा और न ही झूठ। फिर ये अनुभव चाहे सच्चे हों या झूठे, चाहे असली हों या काल्पनिक, आपने उन्हें महसूस किया, बस इतना ही काफी है। इनके बारे में आप कोई सीमा रेखा खींचने की कोशिश न करें, और न ही उनका कोई विश्लेषण करें कि यह अनुभव असली था, और यह मेरी कल्पना थी, ये सब मत करें। कल्पना भी अपने आप में अनुभव है। अनुभवों को जमा मत कीजिए, उनके प्रति एक खुला रुख अपनाएं। अगर आप इन्हें जमा करेंगे तो आप वहम में जीने लगेंगे, क्योंकि आपके पास याददाश्त और कल्पना के बीच अंतर करने की कोई सीमा-रेखा नही है। इससे ये सारी चीजें आपस में गड्ड-मड्ड हो जाएंगी। तो सबसे अच्छा होगा कि आप उन्हें वहीं छोड़ दें।

Images courtesy:Wordpress

 

यह लेख ईशा लहर से उद्धृत है।

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