क्या मूर्ति पूजा सहायक है, आध्यात्मिक विकास में?
जब बच्चा छोटा होता है, तो अपनी मां से सटकर सोता है। मां के बदन से लगकर सोना उसे सुखद लगता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, तो आप उसे अलग सुलाना चाहते हैं, जो बच्चे के विकास के लिए जरूरी भी है। लेकिन अगर आप उसे अचानक अलग बिस्तर पर सुलाने लगेंगे, तो बच्चा बेचैन हो जाएगा। आखिर ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? ...
भारतीय परंपरा में मूर्ति पूजा प्राचीन समय से चली आ रही है। क्या ये हमारे आध्यात्मिक विकास में मदद करती है? जानते हैं कि कैसे ये पूजा हमारे आध्यात्मिक विकास से जुड़ी है...
सद्गुरु : जब बच्चा छोटा होता है, तो अपनी मां से सटकर सोता है। मां के बदन से लगकर सोना उसे सुखद लगता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, तो आप उसे अलग सुलाना चाहते हैं, जो बच्चे के विकास के लिए जरूरी भी है।
कुछ हद तक भगवान की प्रतिमा की जरूरत है
उसी तरह से हमें भी जीवन में एक तस्वीर की जरूरत होती है। भगवान की प्रतिमा भी ऐसी ही एक तस्वीर है, जिसे आपने अपने मन में भगवान की छवि के तौर पर बिठा लिया है। जब आपको जिंदगी की राह पर किसी का हाथ थामकर चलने की जरूरत होती है, तो आप ऐसा ही करते हैं। वैसे, एक तरह से यह ठीक भी है। जब तक आप आश्वस्त न हो जाएं कि अब आपको इस सहारे की जरूरत नहीं, तब तक किसी का हाथ थामने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन अगर आप यह सोचते हैं कि यही भगवान है, तो यह ठीक नहीं। आपने भगवान की छवि इसलिए गढ़ी कि कहीं न कहीं आप खुद को उससे जोड़ना चाहते थे। जब तक आपको सहारे की जरूरत है, आप इसका आनंद लीजिए, लेकिन आखिर में आपका मकसद होना चाहिए कि इस सहारे की निभर्रता से बाहर निकला जाए।
भारत एक ऐसा देश है, जहां लोगों ने मूर्ति या प्रतिमा बनाने की व्यापक प्रक्रिया को अपनाया। इससे दूसरी संस्कृतियों में यह गलतफहमी पैदा हो गई कि हम किसी गुड़िया को भगवान मानकर पूजते हैं। पर यह असलियत नहीं है। हमारे यहां लोग इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि हम ही वो शख्स हैं, जो किसी प्रतिमा या आकृति को गढ़ते हैं।
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अगर हम आधुनिक विज्ञान के दृष्टिकोण से देखें, तो हर चीज में एक ही ऊर्जा है, फिर भी दुनिया में सब कुछ एक जैसा नहीं है। अब यही ऊर्जा पाशविक भी हो सकती है और चैतन्य के रूप में भी काम कर सकती है। जब मैं कहता हूं ‘चैतन्य’ तो मैं आपको एक प्राणी के तौर पर नहीं देख रहा हूं। मैं सिर्फ इस शरीर की बात कर रहा हूं। अगर हम अपनी शारीरिक प्रणाली को एक खास तरह से व्यवस्थित करें तो इस भौतिक शरीर को दैवीय अस्तित्व में रूपांतरित किया जा सकता है।
मूर्ति निर्माण एक विज्ञान है
मूर्ति निर्माण के पीछे भी एक पूरा विज्ञान छिपा हुआ है। इसका मतलब है कि एक खास सामग्री से एक खास आकार की रचना करके उसमें ऊर्जा प्रवाहित की जाती है और वह इंसान जैसा हो जाता है। अलग-अलग प्रतिमाएं अलग-अलग तरीकों से बनाई जाती हैं और चक्रों को खास जगहों पर कुछ इस तरह पुनर्स्थापित किया जाता है कि वे प्रतिमाएं बिल्कुल ही अलग तरह की संभावनाएं बन जाती हैं। इसलिए मूर्ति-निर्माण वह विज्ञान है, जिसके जरिए एक खास तरीके से ऊर्जा को व्यवस्थित की जाती है, ताकि उसकी मदद से आपके जीवन में निखार आ सके।
भारत के प्राचीन मंदिरों का निर्माण पूजा-अर्चना के मकसद से नहीं किया जाता था। पर समय के साथ मंदिरों के स्वरूप में बदलाव आता गया और मंदिरों का इस्तेमाल पूजा पाठ के मकसद से किया जाने लगा। मंदिर निर्माण एक गहन विज्ञान है। जब मंदिर की बुनियादी चीजें - प्रतिमा का आकार और ऊंचाई, उसकी मुद्रा, परिक्रमा, गर्भ गृह, जिन मंत्रों के साथ उसे प्रतिष्ठित किया गया जाता है, ये चीजें पूरी तरह एक दूसरे से मेल खाती हों, तभी मंदिर में एक सकारात्मक ऊर्जा प्रणाली तैयार होती है।
मंदिरों की ऊर्जा आत्म-सात करने की परंपरा
भारतीय संस्कृति में किसी से यह नहीं कहा गया कि मंदिर जाने पर उसे क्या मांगना है और क्या नहीं। पर यह जरूर बताया जाता है कि जब भी मंदिर जाओ, वहां थोड़ी देर बैठो। लेकिन आज होता यह है कि हम मंदिर में जाते है और जमीन से अपना नितम्ब सटाकर जल्दी से बाहर आ जाते हैं। तरीका यह नहीं है। आपको वहां बैठना ही चाहिए, क्योंकि उस मंदिर में एक खास तरह का ऊर्जा मंडल मौजूद है। सुबह अपनी दिनचर्या शुरू करने से पहले या अपने रोजगार पर निकलने से पहले आप मंदिर में जाकर थोड़ी देर बैठें और फिर काम पर जाएं। यह जीवन के सकारात्मक स्पंदन से खुद को रीचार्ज करने जैसा है, जिससे आप एक अलग नजरिए के साथ दुनियादारी में प्रवेश करते हैं।\