घर वापसी और चर्च पर हमले : क्या है सच? - भाग 1
इकोनॉमिक टाइम्स समाचारपत्र के साथ एक विस्तृत साक्षात्कार में, सद्गुरु भारत में हिंदू जीवनशैली, घरवापसी और समाज के छिट-पुट तत्वों द्वारा राष्ट्रीय संवाद को आकर्षित करने की कोशिश के बारे में बता रहे हैं।
प्रश्न:
आपने कई बार जोर देकर कहा है कि हिंदुत्व कोई ‘वाद’ नहीं है, कि वह किसी खास मत व्यवस्था को नहीं दर्शाता... कि हिंदू जीवनशैली कोई संगठित मत व्यवस्था या विश्वास नहीं बल्कि मोक्ष या मुक्ति का विज्ञान है... क्या आप कृपया इस बात को विस्तार से समझा सकते हैं?
सद्गुरु:
चलिए पहले हम समझते हैं कि हिंदू क्या है। यह हिमालय और हिंद महासागर के बीच पड़ने वाली भूमि है। यहां पर हर कोई – पुरुष, स्त्री, केंचुआ – एक हिंदू है क्योंकि हिंदू एक भौगोलिक पहचान है। आज भी उत्तर भारत में इस देश को हिंदुस्तान कहा जाता है क्योंकि लोग भूमि की बात करते हैं, धर्म की नहीं। बाकी दुनिया हमें हिंदू कहती है क्योंकि उन्होंने हमें खुद से अलग पाया। हमारे पास कोई एक भगवान नहीं था। कोई किसी चीज में विश्वास नहीं करता था। हर घर में 25 अलग-अलग देवी-देवता थे।
आज भी, अगर आप किसी फिल्म अभिनेता की तस्वीर लें जो थोड़ा संत जैसा दिखता हो और लोगों से कहें कि वह एक बड़े संत हैं, तो वे उस तस्वीर को पूजा कक्ष में रखकर उसकी पूजा करना शुरू कर देंगे। इस भूमि का चरित्र या स्वभाव ऐसा है कि हम किसी भी ऐसी चीज के आगे जरूर झुकते हैं, जो प्रेरणादायी हो, जो हमें रास्ता दिखाती है, जो किसी न किसी रूप में हमसे थोड़ी ज्यादा हो।
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दूसरे लोगों के पास एक ईश्वर था, एक मूल विश्वास था जिसने उन्हें वह बनाया जो वे हैं। हम आस्थावान या विश्वास करने वालों में नहीं हैं, हम जिज्ञासुओं की, खोजियों की भूमि हैं। हम ईश्वर की खोज नहीं कर रहे हैं। हम अपनी मनोवैज्ञानिक और दैहिक प्रक्रिया को फंदा समझते हैं और उसके चक्रों से मुक्ति की खोज में होते हैं। हम जानते हैं कि कोई भी चीज जो खुद को दुहराती है, वह एक फंदा है। हमने अपनी बुद्धि से समझा है कि अगर आप किसी जगह काफी लंबे समय तक रहें, तो चाहे वह कितनी भी बढ़िया जगह हो, वह एक फंदा बन जाता है। जीवन का चरम लक्ष्य मुक्त होना है, किसी इंसान से नहीं, इसका मतलब कोई राजनीतिक या आर्थिक आजादी नहीं, बल्कि उससे आजाद होना है जो हमें नियंत्रित करता है।
हम मुक्ति के खोजी हैं। हम सत्य के भी खोजी हैं क्योंकि जीवन को संचालित करने वाले नियमों के बारे में जानकर ही आप उन्हें तोड़ सकते हैं और उनके परे जा सकते हैं। हमारे पास जो ईश्वर हैं, वे ऐसे लोग हैं जो इस धरती पर पैदा हुए। कृष्ण, राम और शिव इसी भूमि पर आए। इन लोगों ने यहीं अपना जीवन जिया, उनकी पत्नियां थीं, उन्होंने कुछ मसले सुलझाए और कुछ में नाकाम रहे। वे बादलों में तैरने वाले देवदूत नहीं थे। वे किसी और दुनिया में नहीं रहते थे। वे हर उस चीज से गुजरे, जिससे यहां हर स्त्री-पुरुष को गुजरना पड़ता है।
घर वापसी: राजनीतिक दांव-पेंच की प्रतिक्रिया
प्रश्न:
अगर यहां हर कोई हिंदू है, तो घर वापसी अभियान का क्या मतलब है? कौन घर आ रहा है और कहां से?
सद्गुरु:
कुछ खास राजनैतिक और सांस्कृतिक हालात की प्रतिक्रिया में जो हो रहा है और देश का चरित्र, ये दोनों अलग-अलग चीजें हैं। घर वापसी जैसे मुद्दे पहली बार उठ रहे हैं क्योंकि पहले चाहे हमारे गले पर तलवार रख दी जाती थी, हम नहीं बदलते थे, हमारे सिर पर बंदूक रखी जाती थी और हमें तोपों से बांध दिया जाता था, मगर हम नहीं बदलते थे। लेकिन अब देखने में आ रहा है कि पैसा और दूसरे तरह के प्रलोभन बहुत से लोगों को बदलने पर मजबूर कर रहे हैं। ऐसा शायद पहली बार हो रहा है। लोग असुरक्षा की भावना के कारण प्रतिक्रिया कर रहे हैं क्योंकि उन्हें खतरा महसूस हो रहा है और वे देख रहे हैं कि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा बदल रहा है। और लोग जब बदल जाते हैं, आगे बढ़ जाते हैं तो उन्हें लगता है कि वे इस देश के नहीं हैं। वे कुछ अलग तरीके से व्यवहार करने लगते हैं।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कोई ईसाई या मुसलमान होकर इस देश में नहीं रह सकता। उन्हें रहना चाहिए। अगर इस देश का कोई सुदूर कोना है, जहां किसी ने ईसामसीह का नाम नहीं सुना है, वहां किसी परिवार को ईसामसीह की तस्वीर देकर कहिए कि वह एक अद्भुत इंसान हैं। वे बिना उनका नाम जाने उनकी पूजा करना शुरू कर देंगे। इस्लाम निराकार इबादत की बात करता है। योगिक प्रणाली निर्गुण से संबंधित है। ये चीजें नई नहीं हैं। उनके साथ हमारा कोई टकराव नहीं है।
मगर जब उसे एक राजनीतिक ताकत के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, और आप कुछ और बनते हुए कोई चुनाव जीतते हैं, तो ऐसी चीजें शुरू होती हैं। राजनीतिक दांव-पेंच को धार्मिक प्रक्रिया समझने की गलतफहमी न पालें। मगर हमें समझना चाहिए कि दुनिया के सारे धर्म सिर्फ संख्या के बारे में सोचते हैं। अगर आप संख्या के बारे में नहीं सोचते, तो आप अपनी संख्या खो देंगे। वे इस सरल निष्कर्ष पर पहुंचे हैं और इसीलिए ऐसी चीजें करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें निश्चित रूप से वे बहुत कामयाब नहीं हो पाए हैं।
प्रश्न:
मगर हाल में सांसद और हिंदू धर्मनेता हिंदू स्त्रियों को यह भी बता रहे हैं कि वे कितने बच्चे पैदा करें।
सद्गुरु:
ऐसे बयानों की वजह एक तरह की असुरक्षा होती है। उन्हें लगता है कि किसी और की संख्या बढ़ रही है, इसलिए हमें अपनी संख्या भी बढ़ानी चाहिए। यह ऐसा करने का मूर्खतापूर्ण तरीका है। इससे आप गरीब भी हो जाएंगे और आपके पास एक बड़ा और दुखी परिवार होगा। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि वे सही हैं या गलत हैं मगर आपको देखना चाहिए कि ये सभी बयान सिर्फ प्रतिक्रियाएं हैं।
सबसे अहम चीज यह है कि सभी भारतीयों के लिए समान कानून होने चाहिए। सभी भारतीयों को कानून के उसी दायरे में आना चाहिए। इस देश में अगर आप ऐसा करेंगे, तो अच्छी तरह रह पाएंगे, अगर ऐसा करेंगे तो आप मुसीबत में पड़ सकते हैं। हर किसी के सामने यह बात स्पष्ट होनी चाहिए। यह अभी स्पष्ट नहीं है। लोगों को लगता है कि कानून पक्षपातपूर्ण है। इसके बाद वे अपने कानून शुरू करते हैं।
भारत सरकार किसी से चार बच्चे पैदा करने के लिए नहीं कह रही है, न ही प्रधानमंत्री कह रहे हैं। अगर कोई ऐसी चीजों का सुझाव दे रहा है, तो यह उसके ऊपर है। क्या कोई उसकी बात सुनने जा रहा है? किसी की दादी कह सकती है कि वह अपने बच्चों के दस नाती-पोते देखना चाहती है। वह जानती है कि अगर घर में ज्यादा बच्चे होंगे, तो उसकी कद्र ज्यादा होगी। हर इंसान अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ऐसी चीजें कह सकता है। हो सकता है कि किसी को समर्थकों की कमी हो, इसलिए वह लोगों से ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए कह रहा हो। मैं उनके इरादे नहीं जानता मगर ऐसी चीजें एक किस्म की असुरक्षा और इस तरह के राजनीतिक हालात से पैदा होती हैं जो कुछ लोगों के लिए मतदाता वर्ग बन गया है।
धर्म खुले-आम कहते हैं, ‘ज्यादा बच्चे पैदा करो। गर्भनिरोधक उपाय मत अपनाओ।’ उसकी प्रतिक्रिया में अगर इस देश में कोई कुछ कहता है, तो यह एक बड़ी चीज बन जाती है मानो पूरा देश या प्रधानमंत्री कह रहे हों कि आपको इतने बच्चे पैदा करने ही हैं। बहुत सारे लोगों की अपनी कोई छवि नहीं होती, इसलिए वे ऐसी चीजें कहते हैं। और मीडिया हमेशा इसे अनावश्यक रूप से तूल देता है। मीडिया एक नामालूम सी साध्वी पर इतना ध्यान क्यों दे रहा है?
फिलहाल, इस देश के लोग जिन हालात में रह रहे हैं, मैं किसी नेता या किसी खास पार्टी का प्रशंसक नहीं हूं। मगर पहली बार हमारे पास एक ऐसा नेतृत्व है जो भारत का निर्माण कर रहा है। जब ऐसी कोई कोशिश होती है, तो हर नागरिक का फर्ज है कि वह इसमें सहयोग दे। चुनाव आने पर यदि जरूरत हुई तो हम उनके खिलाफ लड़ लेंगे मगर लोकतंत्र का मतलब यह नहीं है कि हम पांच सालों में हर समय चुनाव के लिए तैयार रहें। चुनावी भाषण छह या सात महीनों के लिए होते हैं।
इस देश की समस्या यह है कि कम से कम 30 से 50 करोड़ लोगों के लिए दोपहर का भोजन अगले दिन के लिए टल जाता है। जब हालात ऐसे हों, तो सिर्फ कुछ लोगों के मूर्खतापूर्ण बयानों के कारण संसद में महत्वपूर्ण फैसलों को कैसे टाला जा सकता है? हर देश में बहुत से पागल होते हैं। हमारे देश में भी हैं। ऐसे लोग जो कहते हैं, वह देश का मुख्य मुद्दा नहीं है। पिछले छह महीनों में मैं दुनिया भर में जहां भी गया हूं, लोग आकर मुझे बताते हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री पर गर्व है। आप साफ तौर पर यह महसूस कर सकते हैं। दुनिया भर के नेता आकर मुझसे कहते हैं, ‘मोदी यह कर देंगे, मोदी वह कर देंगे।’ पहले मुझे लोगों के सामने देश की छवि को उठाना पड़ता था। मगर पहली बार, लोग हमें इज्जत से देख रहे हैं।
क्या अल्पसंख्यक समूह वाकई खतरे में हैं?
प्रश्न:
घर वापसी अभियान और चर्चों पर हालिया हमले के बाद कई अल्पसंख्यक समूहों का यह कहना है कि उनकी असुरक्षा की भावना बढ़ गई है या यह कि पिछले चंद महीनों से वे निशाने पर हैं। इस बारे में आपका मत क्या है?
सद्गुरु:
किसी को नहीं लगता कि वे निशाने पर है क्योंकि कोई निशाने पर है ही नहीं। कुछ छोटे-मोटे अराजक तत्वों और छिटपुट घटनाओं को छोड़कर, हम एक शांतिपूर्ण देश हैं, जहां कानून को मनवाने की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसा यहां के लोगों की वजह से ही है। इस देश में कानून को जबरन लागू की जरूरत नहीं पड़ती। किसी छोटे से गांव में जब आप संकट के दौरान पुलिस को फोन करते हैं तो उसे वहां पहुंचने में दो घंटे लग जाते हैं। यहां का सामान्य चरित्र शांतिपूर्ण है और इसे इसी तरह रहने देना चाहिए। आप एक अरब लोगों को पुलिसवालों और बंदूकों से काबू में नहीं कर सकते।
उन्हें खुद अपने आप को संभालना है और उन्होंने अच्छी तरह संभाला भी है। यह सारा उपद्रव डरावना तो है मगर इसमें कोई धार्मिक रुझान नहीं हैं। यह बस शरारती लोगों का एक समूह है। आपको इसे धार्मिक रंग नहीं देना चाहिए। इससे लोगों के बीच दरार आती है। अगर किसी महिला से बलात्कार होता है, तो यह एक लैंगिक मुद्दा है। हमें इसे बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। जिन लोगों से यह किया, वे गिरफ्तार होंगे और डीएनए प्रमाण भी है। उन्होंने ऐसा किया क्योंकि वे पहले भी ऐसी चीजें करके बच कर निकलते रहे हैं। अल्पसंख्यक किसी निशाने पर नहीं हैं। जब आप चर्चों को हुए नुकसान पर नजर डालते हैं, तो उसे देखकर लगता है कि उसके पीछे एक खास मकसद है, नफरत या किसी और चीज के कारण नहीं।
ऐसी कोई नफरत ही नहीं है। हर दिन मैं हजारों लोगों के संपर्क में आता हूं। आम लोगों में ऐसी नफरत देखने को नहीं मिलती। ऐसा सिर्फ सांप्रदायिक घटनाओं के दौरान देखने को मिलता है, जिनके पीछे बहुत हद तक राजनीतिक चाल होती है। शायद ही कभी सही मुद्दे भड़क कर सांप्रदायिक तनाव में बदल गए हों। अब इस सारे मामले का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया जा रहा है और भारत को अलग-थलग करते हुए एक डरावनी जगह के रूप में पेश करने की कोशिश हो रही है, जहां धार्मिक अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं। उनके खिलाफ निश्चित रूप से कोई घेराबंदी नहीं हो रही है। उन्हें एक नागरिक के सभी अधिकार हासिल हैं और ज्यादातर भारतीय धार्मिक पहचान से दूर हैं।
अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक वाली यह सारी चीज राजनीतिक दलों की बनाई हुई है। मेरा कहना है कि सभी वंचितों को, चाहे उनका धर्म कोई भी हो, शिक्षा के अवसर दिए जाएं। हमारे पास अभी एक ऐसा प्रधानमंत्री है जो दिन में 20 घंटे काम करते हुए देश पर ध्यान देने की कोशिश कर रहा है। चाहे आप उनसे सहमत हों या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, देश के लिए यह अच्छा है। किसी भी देश के विकास के लिए, उसे गति देने की जरूरत होती है। प्रधानमंत्री वह गति दे रहे हैं। हमें इसका लाभ उठाना चाहिए। देश के लिए उन्होंने बहुत कम समय में जो संवेदना जगाई है, उसे कम करके नहीं आंकना चाहिए। अगर उस संवेदना को बल नहीं मिला, तो वह मर जाएगी और उसे फिर से जगाने में और 10 साल लग जाएंगे। किसी देश के जीवन में भले हो, मगर एक पीढ़ी के जीवन में 10 साल कोई छोटा समय नहीं है। 10 सालों में एक पूरी पीढ़ी गुजर जाती है।