कंस वध लीला और कृष्ण का शंखनाद
लीला में अब तक आपने पढ़ा कि कैसे कृष्ण ने चाणूर को हराया और उसे मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद बारी कंस वध की थी। कंस ने लाख बचने की कोशिश की, लेकिन अंत में आकाशवाणी सच साबित हुई और कंस कृष्ण के हाथों मारा गया।
निर्दोष लोगों की भीड़ परेशान हो गई। इस भीड़ में औरतें और बच्चे भी थे। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे कहां जाएं। चारों ओर अफरा-तफरी मच गई। कृष्ण ने जब यह नजारा देखा, तो उन्होंने तय किया कि अब कुछ करना ही होगा। जिस रस्सी से अखाड़ा बनाया गया था, वह उसके ऊपर से कूदे। उधर कंस तेज गुस्से में अपनी तलवार निकालता हुआ उनकी ओर बढ़ रहा था। कृष्ण के चाचा अक्रूर ने कंस को रोकने की कोशिश की, लेकिन कंस ने घूमकर अक्रूर को नीचे पटक दिया। इतने में कृष्ण कंस की ओर दौड़े और उसे बालों से पकड़कर अखाड़े की ओर खींचने लगे। कंस के हाथों से तलवार की पकड़ छूट गई और वह गिर गया। कृष्ण कंस को घसीटते हुए अखाड़े में ले आए और उसकी तलवार लेकर एक ही वार में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। फिर उन्होंने वह शंख लिया, जो कंस के पास था। जीत का शंखनाद किया और ऐसे ही सब कुछ रुक गया। लोग यह जान चुके थे कि भविष्यवाणी सच हो गई। कंस एक सोलह साल के बालक के हाथों मारा जा चुका था। सब कुछ थम सा गया। कुछ लोगों ने जश्न मनाना शुरू कर दिया। कृष्ण बोले - शांत हो जाइए। यह जश्न मनाने का समय नहीं है। हमारा राजा मर गया है। यह समय शोक करने का है।
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मैंने वही किया जिसकी जरूरत थी, लेकिन यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसका हमें जश्न मनाना चाहिए। कृष्ण ऐसे ही थे। वहां से उनका काम शुरू हुआ। इस तरह मुक्तिदाता और समाज के उद्धारक के तौर पर उनकी पहचान स्थापित हुई, क्योंकि पहले ही यह भविष्यवाणी हो चुकी थी कि सोलह साल की उम्र में वह इस अत्याचारी को मार देंगे।
यह शख्स, जिसे हम कृष्ण के नाम से जानते हैं, आगे चलकर एक बहुआयामी व्यक्तित्व का स्वामी हुआ। कभी एक चंचल बालक की तरह, तो कभी एक प्रेमी के रूप में, कभी एक राजा की तरह, तो कभी राजनीतिज्ञ की तरह और कभी एक योद्धा के रूप में उन्होंने अपनी जिंदगी के हर पहलू को संभाला।
उनकी हर भूमिका को अच्छे से निभाने की खूबी सबको मंत्रमुग्ध कर देती है। धर्म की स्थापना करने के लिए देश को उन्होंने न जाने कितनी बार तोड़ा-मरोड़ा। तीस की उम्र तक आते-आते वह एक परम शक्ति के रूप में स्थापित हो चुके थे। कई लोगों ने उन्हें अपने राज्य देने चाहे लेकिन वह तमाम राजाओं के बीच एक मध्यस्थ की तरह ही बने रहे। उन्हें ‘धर्म गोप्ता’ के रूप में जाना गया, जिसका अर्थ होता है धर्म और न्याय का साथ देने वाला। उन्होंने कभी किसी राज्य पर शासन नहीं किया, हालांकि उनके पास ऐसा करने की ताकत और योग्यता दोनों थीं।
आगे जारी ...