क्या अवतार पुरुष भी कभी-कभी असहाय हो जाते हैं?
हम अक्सर यह सोचते हैं कि अगर किसी को गुरु या फिर भगवान का अवतार माना जाता है, तो फिर ऐसे मनुष्य को दुनिया में सब कुछ ठीक कर देना चाहिए था। क्या सचमुच कोई ऐसा है जो सब कुछ ठीक कर दे, या हमारी सोच ही दोषपूर्ण है ? हवन हमारे कर्मकांड का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है यह जानना कि हवन में अर्पित क्या करें? आइए जानते हैं इन दोनों बातों से जुड़े सवालों के जवाब...
प्रश्न:
सद्गुरु आपने बताया कि कृष्ण के गुरु, अपने बेटे का अपहरण होने पर उन परिस्थितियों से निपट नहीं पाए। आखिर इतने महान गुरु होकर भी वह उस मुश्किल परिस्थिति को क्यों नहीं संभाल पाए ?
सद्गुरु:
जो लोग वास्तव में महान थे, ऐसा नहीं है कि अपनी जिंदगी में वे सब कुछ ठीक से संभाल सके। लेकिन ये वे लोग थे, जिन्होंने हर हाल में संतुलन बनाए रखा और अपने जीवन के मकसद को पूरा करते चले गए। उन्होंने एक आम आदमी के मुकाबले कहीं ज्यादा कठोर, मुश्किल और चुनौती भरे हालातों का सामना किया। इसके बावजूद, वे उस रास्ते से नहीं डिगे, जिसे वे सही मानते थे। जाहिर है, उनका यही गुण उन्हें महान बनाता है।
अपने मार्ग पर हमेशा कायम
ऐसा ही कुछ कृष्ण के जीवन में भी हुआ। जो लोग कहते फिरते थे कि वे कृष्ण के लिए अपनी जान भी दे सकते हैं, अचानक उनके खिलाफ होकर उन्हें भला बुरा कहने लगे। लेकिन यह बात कृष्ण को अपने मार्ग से हिला नहीं सकी। वे वही करते रहे जिसे वे अपने और आसपास के लोगों के लिए ठीक समझते थे। इसी बात से एक इंसान महान बनता है, न कि इस वजह से कि उसमें सब कुछ ठीक कर देने की क्षमता है। दुनिया में कोई ऐसा इंसान नहीं है, जो सब कुछ ठीक कर दे।
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प्रश्न:
भगवत्-गीता में कहा गया है कि कुछ लोग भगवान को चीजें अर्पण करते हैं, जबकि कुछ लोग ब्रह्म की अग्नि में खुद को अर्पित कर देते हैं। कुछ लोग अपने सुनने की शक्ति को स्थिर-मन की अग्नि में समर्पित कर देते हैं, जबकि कुछ लोग अपनी इंद्रियों की अग्नि में इंद्रिय-सुख की चीजों की भेंट चढ़ाते हैं। सद्गुरु, कृपया इसे स्पष्ट करें।
सद्गुरु:
यह कर्मकांड और आध्यात्मिक प्रक्रिया के बीच अंतर बताने के लिए है। आर्य-परंपरा कर्मकांड पर आधारित है, जिसका मुख्य हिस्सा है- हवन। हवन का अर्थ है, अलग-अलग तरह के फायदे के लिए, अग्नि में तरह-तरह की चीजों को अर्पित करना। हवन में सब तरह की चीजें अर्पित की जाती थीं, जैसे दूध और घी से लेकर सोना और अनमोल पत्थर तक। किसी जानवर की बलि से लेकर इंसान तक की बलि चढ़ाई जाती थी। ये रिवाज कुछ खास किस्म के लाभ देते हैं, लेकिन इन पंक्तियों में इसकी सीमा पर जोर दिया गया है। आप जो भी अर्पित करते हैं, उससे आपको छोटे-मोटे लाभ ही होते हैं।
चीज़ें नहीं, खुद को ही अर्पित कर दें
अहम बात यह है कि आप केवल चीजें ही अर्पित न करें, बल्कि आप खुद को ही ब्रह्म को अर्पित कर दें। ब्रह्म का अर्थ है - इस सृष्टि का आधार जो सर्वव्यापी है, निराकार है। तो अग्नि को चीजें अर्पित करने के बजाय अगर आप खुद को उस अनंत को अर्पित करें, तो यह ज्यादा अच्छा तरीका है। अब इंद्रियों को चीजें अर्पण करने की बात करते हैं। आपकी आखें कुछ सुखद देखना चाहती हैं- यह इंद्रियों को भेंट चढ़ाना है। आपके कान कुछ अच्छा सुनना चाहते हैं, आपकी जीभ भी कुछ स्वादिष्ट चखना चाहती है - ये सब भी अपनी इंद्रियों को अर्पित करने जैसा है।
सद्गुरु के बचपन की यादें
मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं। मेरे बचपन की बात है। उन दिनों हम मैसूर में रहा करते थे। मेरे पिताजी रेलवे में अधिकारी थे, इसलिए हम सारे देश में घूमा करते थे। हर साल हम अपने परिवार के साथ कम से कम एक महीने के लिए घूमने जाते थे, लेकिन हम हमेशा उन जगहों पर ही जाते थे, जहां ट्रेन जाती थी। भारतीय रेलवे बहुत फैली हुई है इसलिए हम लगभग हर जगह जा चुके थे। लेकिन हम कभी ऊटी नहीं जा पाए, जो मैसूर से बस 85 किलोमीटर दूर है। इसकी वजह थी कि ट्रेन चामराजनगर पर ही रुक जाती है और उसके आगे रेल की पटरी ही नहीं है।
सुंदर बाहरी परिस्थितियों में किसी ने अपने जीवन का अंत किया
हमने देखा कि रेल की पटरियों पर भारी भीड़ जमा है। मैं उन बच्चों में से नहीं था, जो अपने पिता की उंगली पकड़कर चलते हैं। पिताजी के कार से उतरने से पहले ही मैं भीड़ वाली जगह पहुंच गया था। वहां कोई ट्रेन से कुचल गया था। लोग कह रहे थे कि उस आदमी ने आत्महत्या की है, उसने ट्रेन के आगे कूदकर अपनी जान दे दी थी।
इसका अर्थ यह हुआ कि आप अपनी इंद्रियों को चाहे जितनी भी भेंट चढ़ा लें, जीवन सीमित और अधूरा ही बना रहता है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप अपनी इंद्रियों को किस तरह खुश करने की कोशिश करते हैं, अंत में आप असंतुष्ट और अधूरे ही रहेंगे। लेकिन अगर आप अपनी इंद्रियों को ही अपने मन की अग्नि में भस्म कर देते हैं - यहां मन का मतलब जागरूकता से है - यानी अगर आप अपनी जागरूकता से अपनी इंद्रियों को हरा पाते हैं, तो आप इंद्रियों से परे चले जाते हैं। हम शुरू से ही अपनी इंद्रियों से परे जाने की बात करते रहे हैं। जब आपके अनुभव आपकी इंद्रियों की अनुभूति से परे चले जाते हैं, केवल तभी आनंद का अहसास आपके साथ टिक पाएगा।