क्या हम चुन सकते हैं अपने मरने का ढंग?
क्या मृत्यु के संदर्भ में कोई चयन सम्भव है? क्या ये हमारे हाथ में है कि हम कैसे और कब मरेंगे? यहाँ सदगुरु समझा रहे हैं कि कैसे हम अपना भौतिक शरीर जागरूकतापूर्वक छोड़ सकते हैं, वे इसके लिये पहले कदम के रूप में यहाँ एक प्रक्रिया भी समझा रहे हैं।
सदगुरु: आप को ये समझना चाहिये कि हर वो चीज़ जिसका आप अनुभव कर सकते हैं, जीवन है। आप जिसे मृत्यु कहते हैं, वो भी जीवन ही है। तो क्या मृत्यु के बारे में हमारे पास कोई चुनने जैसी बातें हैं? निश्चित रूप से हैं। आप जिसे मृत्यु कहते हैं, वो बस जीवन का अंतिम क्षण है। वह अंतिम क्षण, जब आप अपने भौतिक शरीर की सीमाओं को लाँघ जाते हैं, और ये आप के जीवन में बस एक बार ही होता है। आप के जीवन में अन्य सभी बातें कई बार हो सकती हैं पर मृत्यु सिर्फ एक बार होती है, और ये अंतिम बात है जो आप करते हैं। मैं चाहता हूँ कि आप मृत्यु को जीवन के रूप में समझें, और कुछ नहीं। ये आप के जीवन का अंतिम काम है। क्या ये बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है कि आप इसे गरिमा पूर्वक और अदभुत ढंग से करने का फैसला करें? अगर आप इससे डरते हैं, यदि आप जीवन के तरीकों के बारे में अनजान हैं और आप मृत्यु के प्रति विरोध पैदा करते हैं तो स्वाभाविक रूप से आप उस संभावना को खो देंगे।
आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले लोग अपनी मृत्यु का समय, तारीख तथा स्थान स्वयं तय करते हैं। एक योगी हमेशा बहुत पहले जान लेना चाहता है कि उसकी मृत्यु का दिन और समय कौन सा है? वो इसे तय कर लेता है और कई साल पहले ही कह देता है, "मैं इस दिन, इस समय पर चला जाऊंगा"। और वो चला भी जाता है क्योंकि उसने चेतनता में शरीर छोड़ने के लिए जागरूकता का जरुरी स्तर पा लिया है। ऐसे लोग अपने शरीर को जागरूकतापूर्वक और उसे बिना कोई नुकसान पहुंचाये, छोड़ते हैं। जैसे आप अपने कपड़े छोड़ कर चल देते हैं, वैसे ही वे अपने शरीर को छोड़ कर चल देते हैं। अगर आप ऐसा कर सकें तो ये आप के जीवन की सर्वोच्च संभावना होगी। यदि आपकी जागरूकता इस सीमा तक बढ़ जाये कि आप जान लें कि एक जीव के रूप में, इस इकट्ठा किये हुए भौतिक शरीर के साथ आप कहाँ पर जुड़े हैं, तो आप अपने आप को इस शरीर से सही समय पर अलग कर सकते हैं।
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तो क्या ये आत्महत्या है? निश्चित रूप से नहीं। आत्महत्या तब होती है जब हताशा हो, क्रोध हो, डर हो, पीड़ा हो, सहन करने की योग्यता न हो। ये न तो आत्महत्या है, न ही इच्छामृत्यु। ये कुछ ऐसा है - आप इतने जागरूक हैं कि आप जानते हैं कि जीवन ने कब अपना चक्र पूरा कर लिया है और आप इसमें से बाहर निकल जाते हैं। ये मृत्यु भी नहीं है। इसे समाधि कहते हैं। ये तब हो सकता है जब किसी मनुष्य ने अपने अंदर इतनी जागरूकता विकसित कर ली हो कि वह अपने आप को उस भौतिकता से अलग कर सके जो उसने यहाँ इकट्ठा की है – जागरूकता के उस स्तर में वो शरीर छोड़ सकता है। लेकिन, अगर आप जागरूकता का ये स्तर न भी प्राप्त कर सकें तो भी आप उस अंतिम क्षण को अपने लिये अत्यंत गरिमामय, सुखद, आनंदपूर्ण एवं शांतिमय बना सकते हैं, यदि आप कुछ बातें सही ढंग से करें।
यदि आप इस तरह से शरीर छोड़ना चाहते हैं, तो कुछ तैयारी ज़रूरी है। ऐसा संभव नहीं है कि आप अपने जीवन को व्यर्थ जाने दें और मृत्यु का उपयोग कर सकें। अगर आप अपने जीवन में सदैव कुछ खास स्तर की जागरूकता बनाये रखें तो शरीर छोड़ने का क्षण भी जागरूकता में घटित हो सकता है। अगर आप अपना सारा जीवन बिना जागरूक रहे, बेहोशी में जीते हैं और आशा करते हैं कि अंतिम क्षण जागरूक होगा, तो ऐसी बातें लोगों के साथ नहीं होतीं।
आज रात को एक प्रयोग कीजिये। जाने का वह अंतिम क्षण - मैं इसे जाने का क्षण इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि आप उस क्षण में जागने की अवस्था से नींद में जाते हैं - तो उस क्षण में आप जागरूकता बनाये रखिये, उस क्षण को देखिये जब आप जागृत अवस्था में से निद्रा अवस्था में चले जाते हैं। ये आप के जीवन को अदभुत रूप से बदल देगा। आप इसे रोज़ सोते समय, एक प्रक्रिया की तरह नियमित रूप से करें। आप देखेंगे कि कुछ दिनों में ही आप उस अंतिम क्षण में जागरूक रह सकेंगे। ये एक सरल काम करने से, अचानक ही, आप के जीवन में सब कुछ बदल जायेगा, जीवन की मूल गुणवत्ता बदल जायेगी।
यदि आप जागने की अवस्था में से सोने की अवस्था में जागरूक हो कर जाते हैं तो समय आने पर जीवन से मृत्यु में जाने का वो अंतिम क्षण भी आप के लिये सम्पूर्ण गरिमा का पल होगा। इसके लिये और भी तरीके हैं।
भारत में, पारंपरिक रूप से, लोग यह पसंद करते हैं कि उनकी मृत्यु प्रियजनों के आस-पास न हो, क्योंकि अगर आप अपने परिवार के सामने मरते हैं तो कई प्रकार की भावनायें उठ खड़ी होती हैं। स्वाभाविक रूप से आप जीवन के साथ जुड़े रहना चाहेंगे। आप मृत्यु को गरिमा के साथ नहीं होने देंगे। तो लोग बहुत दूर, ऐसी जगहों पर जाते हैं जो आध्यात्मिक रूप से ऊर्जावान स्थान माने जाते हैं और वे अपना शरीर वहाँ छोड़ना चाहते हैं। आज भी ऐसा करने वाले लोग हैं। पश्चिम में शायद कोई भी इस तरह की बात नहीं सोचेगा, क्योंकि वहाँ लोग पारिवारिक वातावरण की सुविधा में ही मरना पसंद करते हैं। ये कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है। बुद्धिमानी इसमें है कि लोग मरने के लिये ऐसा स्थान पसंद करें जो आध्यात्मिक रूप से सहायक हो, ऊर्जावान हो और वे जितना हो सके उतनी गरिमा से शरीर छोड़ें। अगर आप ने अपना जीवन गरिमा से जिया है तो ये बहुत ही महत्वपूर्ण है कि आप की मृत्यु भी गरिमा से हो।