क्या आप अपनी सोच को बदल सकते हैं?
क्या अपनी सोच को बदलना संभव है? क्या हम अपने विचारों और भावनाओं को जैसा हम चाहते हैं, वैसा बना सकते है? सद्गुरु इन सवालों का जवाब दे रहे हैं।
प्रश्नः मेरे विचार और भावनाएं वाकई मेरे काबू में नहीं हैं। तो मैं जानना चाहता हूँ कि क्या हम अपनी सोच और भावनाओं को बदल सकते हैं और अपने विचार और भावनाएं सचेतन रूप से पैदा कर सकते हैं?
सद्गुरु: मन मुख्य रूप से याद्दाश्त के एक खास संग्रह के आधार पर काम करता है। यह याद्दाश्त का एक जटिल जाल है जो आपको एक विशेष लक्षण प्रदान करता है। यह याद्दाश्त आपके जीवन में जागते और सोते हुए हर पल में जमा हो रही है। आपने जो याद्दाश्त जमा की है, उसके ज्यादातर हिस्से के बारे में आप अचेतन हैं क्योंकि वह बहुत बड़ी मात्रा में जमा हो रही है। तो कई चीजें जो आप इतनी आसानी से करते हैं, उदाहरण के लिए दो टांगों पर चलने जैसी साधारण चीज, वह बस आपकी हड्डियों और मांसपेशियों के कारण ही नहीं है, बल्कि आपके पास मौजूद याद्दाश्त के कारण है। शरीर याद रखता है कि चलते कैसे हैं। अगर आप वह भूल जाएं तो आप चल नहीं सकते।
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कर्मगत छाप
जब हम याद्दाश्त कहते हैं, तो लोग मन के बारे में सोचने लगते हैं, लेकिन शरीर में मन की अपेक्षा बहुत, बहुत ज्यादा याद्दाश्त होती है। आपके दादा के दादा के दादा की नाक आपके चेहरे पर लगी हुई है क्योंकि आपके शरीर के अंदर किसी चीज को वह याद है। आपका शरीर अभी भी याद रखता है कि दस लाख साल पहले कोई व्यक्ति कैसा था और अभी भी उसका असर दिखता है। तो शरीर की याद्दाश्त मन की याद्दाश्त से कहीं बड़ी है। इस याद्दाश्त को हम कर्मगत छाप कहते हैं। एक ऐसा समय था जब भारत में, समाज आपकी कर्मगत छाप को संभालने की कोशिश कर रहा था। इसी मकसद से जातियां और गोत्र और दूसरी चीजें शुरू की गई थीं। लेकिन वो अब पूरा खत्म हो गया है। तो आपको उसे अपने भीतर ही संभालना होगा।
सचेतन स्तर पर आपके विचार किस तरह के हैं, वह बस उस याद्दाश्त से तय होता है जो आपने इस जीवन में अपने जन्म से अब तक सचेतन रूप से जमा की है। इस सचेतन याद्दाश्त को प्रारब्ध कहते हैं। लेकिन आपके अंदर ये विचार किस तरह की भावनाएं पैदा करते हैं, वह मुख्यतया याद्दाश्त की एक अचेतन प्रक्रिया से आता है। वह याद्दाश्त सचेतन याद्दाश्त से कहीं बड़ी है और ‘संचित’ कहलाती है। संचित का अर्थ है कर्म-तत्व का अचेतन संग्रह, जो अपने ही तरीके से कार्य करता रहता है। यह स्वयं को अभिव्यक्त करने के संदर्भ में सक्रिय नहीं है, लेकिन यह आपको लाखों अलग-अलग तरीकों से प्रभावित करने में सक्रिय है। क्या इसका मतलब यह है कि आप पूरी तरह से पूर्व निर्धारित हैं और आप कुछ बदल नहीं सकते? नहीं। इसी आधार की वजह से आप मौजूद हैं। आप खुद का क्या बनाना चाहते हैं वो अब भी आपके ऊपर है। नियति कोई तयशुदा चीज नहीं है। नियति आपके शरीर के ढांचे की तरह है। यह आपका कद तय करता है, लेकिन यह हर चीज तय नहीं करता। आप इस ढांचे पर कितना भरते हैं वह आपके ऊपर है।
दृष्टिकोण का सवाल
तो क्या आप अपनी सोच को बदल सकते हैं। इस बात पर गौर करने के बजाय कि आपमें कैसे विचार और भावनाएं आ रही हैं, जीवन के अधिक विशाल परिदृश्य में आप यह देखिए कि आप धूल के बस एक कण हैं। इस पूरे ब्रह्माण्ड में, हमारी आकाशगंगा एक छोटी सी घटना है। आकाशगंगा में, यह सौर मंडल एक छोटा कण है। उस छोटे कण में, पृथ्वी एक और छोटा कण है। उसमें, आपका शहर एक अत्यंत छोटा कण है। उस अत्यंत छोटे कण में, आप एक बड़े आदमी हैं! लोग यह परिप्रेक्ष्य भूल गए हैं कि वो कौन हैं और क्या हैं। एक आध्यत्मिक प्रक्रिया का मतलब है कि अगर आप अनुभव के स्तर पर इसे नहीं देख सकते, तो कम से कम बौद्धिक स्तर पर इस अस्तित्व में आप अपना स्थान समझ सकते हैं। समझने के लिए यह सबसे आसान चीज है। अगर आप इतना समझ जाते हैं, तो एक नई संभावना खुल जाती है - आप अलग तरह से घूमेंगे, अलग तरह से बैठेंगे, अलग तरह से सांस लेंगे, और जीवन को अलग तरह से अनुभव करेंगे।
यह अत्यंत छोटा कण क्या सोचता और महसूस करता है, वह महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन ज्यादातर लोगों के लिए, वो जो सोचते और महसूस करते हैं, वह घटित हो रहे अद्भुत ब्रह्माण्डीय नृत्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है। पूरे ब्रह्माण्ड में आज सब कुछ बहुत बढ़िया चल रहा है, लेकिन बस एक विचार आपको परेशान कर सकता है और आपको उदास कर सकता है। अगर आप बस यह देखते हैं, ‘मैं जो सोचता हूँ और महसूस करता हूँ वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है,’ अगर आप अपने और अपने विचार और भावनाओं के बीच इस दूरी को ले आते हैं, तब वो एक सचेतन प्रक्रिया बन जाते हैं। एक बार जब आपके विचार और भावनाएं एक सचेतन प्रक्रिया बनते हैं, तब आप कई तरीकों से कर्मगत प्रक्रिया से आजाद होते हैं। अभी, आपके विचार और आपकी भावनाएं दोनों ही विवशतापूर्ण प्रक्रियाएं हैं। जब यह एक सचेतन प्रक्रिया होती हैं, तब आप एक ऐसे तरीके से अचानक सशक्त हो जाते हैं कि लोग सोचते हैं कि आप सुपर ह्यूमन हैं। यह सुपर-ह्यूमन होना नहीं है, बल्कि बस मनुष्य होना है।