लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन का सही तरीका क्या है?
एक लोकतंत्र में हमें विरोध की आज़ादी बेशक है, लेकिन क्या आज़ादी के साथ कोई जिम्मेदारी भी है? विरोध प्रदर्शित करने का सही तरीका क्या है?
सद्गुरु: किसी ने एक दिन मुझसे पूछा कि क्या मैं मौजूदा राजनीतिक सत्ता का कट्टर समर्थक हूं?मुझे यह सवाल दिलचस्प लगा। सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि एक गुरु के तौर पर मैं लगातार लोगों से विश्वास न करने बल्कि खोजने का आग्रह करता(ज़ोर देता) हूं, बल्कि इसलिए भी कि जो भी मुझे जानता है, उसे पता है कि मैं निहित(छुपे) स्वार्थों पर बेरहमी से सवाल उठा सकता हूं।
मगर सवाल करने के कई तरीके हैं। सवाल करना रचनात्मक भी हो सकता है और विनाशकारी भी। लोकतंत्र एक शक्तिशाली तरीका है – सत्ता(पॉलिटिकल पॉवर) के समीकरणों(इकुएशन) को बदलने का, गुटों व गिरोहों, एकाधिकार(मोनोपोली) और विशिष्टता(खुद को सबसे अलग मानना) के केंद्र को हिलाने का।
आधुनिक लोकतंत्र का तोहफ़ा यह है कि वह बैलट बॉक्स के जरिए सत्ता को बदल सकता है। यह एक महान उपलब्धि है कि हमें रक्तपात(खून-खराबे) के बिना सत्ता बदलने, अहिंसक तरीके से सत्ता को भंग करने का उपाय मिल गया है।
लोकतंत्र और सामंतवाद में फर्क
एक बार जब हमने बैलेट बॉक्स को चुन लिया तो इसका मतलब है कि हमने बिना कहे यह स्वीकार कर लिया है कि हम सामूहिक(कलेक्टिव) इच्छा को अपनी निजी इच्छा के ऊपर रखेंगे। क्या इसका मतलब है कि हम विरोध का अपना अधिकार खो बैठे हैं? बिलकुल नहीं। अपनी व्यक्तिगत अभिव्यक्ति(प्रकट करना) की आज़ादी, विचार करने और मतभेद रखने की आज़ादी तथा बातचीत और बहस की अपनी क्षमता को कायम रखना बहुत महत्वपूर्ण है। एक लोकतंत्र तभी काम कर सकता है, जब इन व्यक्तिगत आज़ादियों को गर्व से स्थापित और मजबूती से प्रोटेक्ट किया जाता है।
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इससे पहले कि हम व्यक्तिगत आज़ादी के मुखर(जोर देकर बोलने वाले) समर्थक बनें, सबसे पहले हमारा ‘व्यक्ति’ बनना ज़रूरी है। एक ऐसा सिस्टम जो जाति, धर्म, लिंग या यहां तक कि विचारधारा के आधार पर समूहों को एक साथ वोट डालने के लिए चालाकी से तैयार करता है, एक सच्चा लोकतंत्र नहीं है। यह लोकतंत्र के भेष में सामंतवाद है।
हम देवताओं से भी प्रश्न पूछने वाले लोग हैं
एक सच्ची आध्यात्मिक प्रक्रिया की तरह ही एक सफल लोकतंत्र व्यक्तिगत आज़ादी की धारणा पर टिका होता है। मगर जब लोग लोकप्रिय राजनीतिक और धार्मिक प्रचार से परे देख पाते हैं, तभी सच्चा लोकतंत्र और सच्ची आध्यात्मिकता जन्म ले सकती है। दोनों मामलों में व्यक्ति को साथियों के दबाव और पक्षपात, अपने ग्रूप के मामूली हितों से ऊपर उठना चाहिए।
एक सच्ची आध्यात्मिक प्रक्रिया कभी सत्तावादी(अधिकार जमाने वाली) नहीं होती। वह हमेशा तरल, असीमित और बहस के लिए तैयार होती है। इस देश में आध्यात्मिकता का नजरिया यही रहा है। यह खोज की संस्कृति रही है, आदेश की नहीं। यहां हम जिसे ‘पवित्र’ मानते हैं, उस पर भी बहस हो सकती है। उसका पालन करना जरूरी नहीं है। यहां तक कि जब देवता कहे जाने वाले प्राणी इस धरती पर आए – शिव से लेकर कृष्ण तक – हमने सिर्फ उनका आज्ञापालन नहीं कर लिया। हमने उनसे प्रश्न पूछे, उनसे बहस की। इसी तरह, भारतीय संविधान आदेशों का समूह नहीं है। अगर ऐसा होता, तो यह धार्मिक तानाशाही का राजनीतिक रूप होता।
रचनात्मक या विनाशकारी आज़ादी?
एक बार जब आप एक व्यक्ति के रूप में उभरते हैं, तो यह समझना महत्वपूर्ण है कि आपकी आज़ादी का दूसरों पर भी असर पड़ता है। एक लोकतंत्र में रहने का मतलब है कि हम हर किसी को उसकी आज़ादी का अधिकार देने के लिए सहमत हैं। आप किसी नीति का विरोध कर सकते हैं या किसी फिल्म की निंदा कर सकते हैं, लेकिन अगर आप अपने गुस्से को अभिव्यक्त(प्रकट) करने के लिए किसी शहर या राज्य को बंद करा देते हैं, तो आप दूसरे लोगों की आज़ादी को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। यह आज़ादी के मुखौटे में निजी सनक है, व्यक्तिगत पहल के भेष में गैरजिम्मेदारी है।
एक राष्ट्र के रूप में हमें खुद से यह प्रश्न पूछना चाहिए,‘हम अपनी व्यक्तिगत आज़ादी का रचनात्मक इस्तेमाल कर रहे हैं या विनाशकारी? क्या हमारी आज़ादी वास्तव में शक्ति प्रदान कर रही है या दूसरे नागरिकों के खुशहाली के अधिकार को नुकसान पहुंचा रही है?’ व्यक्तिगत आज़ादी की बात करने से पहले, हमें ईमानदारी से एक और बुनियादी सवाल पूछना होगा,‘क्या हम वास्तव में अब तक जिम्मेदार व्यक्ति बन पाए हैं?’