सद्गुरु: लंबी दूरी की यात्राओं, अल्पकालिक भ्रमण और तीर्थयात्राओं में क्या अंतर है ? लोग बहुत सारे कारणों से एक से दूसरे स्थान पर जाते हैं। ऐसे खोजी, अन्वेषक भी हैं जो हमेशा किसी नये स्थान की खोज में रहते हैं, जिस पर वे अपनी छाप छोड़ सकें। वे कुछ सिद्ध करना चाहते हैं। फिर, ऐसे यात्री होते हैं जो सब कुछ देखना चाहते हैं, तो वे घूमते रहते हैं। ऐसे भी यात्री होते हैं जो बस आराम करना चाहते हैं। और, कुछ अलग प्रकार के यात्री होते हैं, जो अपने काम या परिवार से दूर भागना चाहते हैं। पर, एक तीर्थयात्री इनमें से किसी भी उद्देश्य के लिये कहीं नही जाता। तीर्थयात्रा कोई विजय पाने के लिये नहीं है, ये तो आत्मसमर्पण करने के लिये है। ये वो तरीका है जिससे आप सामान्य सांसारिक बातों से दूर जाते हैं। यदि आप अपने उद्देश्य से भटक नहीं जाते, तो ये अपने आप को समाप्त करने का, अपने 'स्वयं' को मिटाने का तरीका है। यह उन सभी बातों को नष्ट करने की प्रक्रिया है जो सीमित हैं और विवशता भरी हैं। इस तरीके से आप चेतना की असीमित अवस्था में आते हैं।

आप जो हैं, उसे हल्का करना

तीर्थयात्रा का उद्देश्य ही आत्मशमन करना अर्थात उस भाव को हल्का करना है जो आप अपने आप में 'स्वयं' के रूप में भरे हुए हैं। यह सिर्फ रास्तों पर चलने, पहाड़ों की ऊंचाईयों पर चढ़ने एवं विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों को झेलने की प्रक्रिया में 'कुछ' से 'कुछ नहीं' हो जाना ही है। प्राचीन काल में ऐसे स्थानों पर जाने के लिये किसी भी व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक और अन्य कई प्रकार की कठिनाईयों से हो कर गुज़रना पड़ता था, जिससे वह अभी अपने आप को जो कुछ समझता हो, उससे कम हो जाये। अब तो ये सब बहुत ज्यादा आरामदायक हो गया है। अब हम उड़ कर, कार चला कर जाते हैं और बहुत कम ही चलना पड़ता है।

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शारीरिक रूप से, एक हज़ार वर्ष पहले मनुष्य जैसे होते थे, उनकी तुलना में आज हम बहुत ही कमज़ोर मनुष्य हैं, क्योंकि हम ये जानते ही नहीं कि अपनी खुशहाली के लिये मिले हुए आरामदायक साधनों तथा अन्य सुविधाओं का उपयोग कैसे करें? हमने उनका उपयोग अपने आप को ज्यादा कमज़ोर करने के लिये ही किया है, जिसके कारण अपने आप के साथ भी हमें ज्यादा कठिनाई होती है, और उन परिस्थितियों के साथ भी जिनमें हम रहते हैं। अतः, प्राचीन समाजों के लिये तीर्थयात्राओं के विचार की जो सार्थकता थी, उसकी तुलना में आधुनिक समाजों के लिये वो और भी ज्यादा हो गयी है।

कठिनाइयाँ आवश्यक नहीं हैं, परंतु अधिकतर लोग अपने आप को मिटाने के लिये तैयार नहीं होते, अतः उन्हें थकाना ज़रूरी हो जाता है। यह दुर्भाग्य है कि अधिकतर मनुष्यों का आराम की अवस्था में कोई विकास नहीं होता। आराम की अवस्था में विकास होना अत्यंत अद्भुत होगा, पर दुर्भाग्यवश जब बहुत आराम होता है तब अधिकतर लोग बेकार हो जाते हैं। उनमें कुछ महानता तभी आती है जब उन पर मुश्किलें आती हैं। लेकिन ऐसा होना ज़रूरी नहीं है। कुछ बाहरी आ कर हमें नीचा कर दे, हरा दे, यह नहीं होना चाहिये। हममें यह समझने की क्षमता होनी चाहिये कि अगर हम अपने आप से कुछ बड़े का अनुभव करना चाहते हैं, और उन आयामों को छूना चाहते हैं जो अभी हमारी समझ के बाहर हैं तो महत्वपूर्ण बात यही है कि 'मैं कुछ हूँ' का भाव कम हो जाना चाहिये।

अपने जीवन को एक तीर्थयात्रा बना लें

अगर आप के पास काम करने वाला दिमाग है, तो आप अपने जीवन को ही एक तीर्थयात्रा बना लेंगे। अगर, अभी आप जहाँ हैं, वहाँ से कुछ ऊँचा होने की प्रक्रिया में आप का जीवन नहीं है, तो फिर ये किस प्रकार का जीवन है? अगर, ये जीवन लगातार, वो जो है, उससे ज्यादा ऊँचा होने की इच्छा नहीं रखता, तो ये जीवन कोई खास जीवन ही नहीं है।

अगर, आप कुछ ज्यादा, कुछ ऊँचा होने की इच्छा रखते हैं और उसके लिये लगातार काम करते हैं, तो आप का जीवन तीर्थयात्रा ही है।

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IEO

Editor's Note: The Shivanga sadhana for men is an opportunity to bring forth devotion from within and to bring our connection with the source of creation into our awareness. The sadhana is also includes making a pilgrimage to the sacred Velliangiri Mountains and be initiated into Shiva Namaskar, a powerful practice. Find out more here