मंदिर: खुद को रिचार्ज करने की एक ठांव
भारतीय मंदिरों में कोई खड़ा हो कर प्रार्थना नहीं करवाता। कोई आपसे यह नहीं कहता कि प्रार्थना करना जरूरी है। यह परंपरा जरूर रही है कि लोग मंदिर में जाकर कुछ पल जरूर बैठते हैं। ये स्थान ऊर्जा-केंद्र के रूप में बनाए गए थे, जहां लोग जा कर ऊर्जा प्राप्त कर सकते थे। एक तरह से खुद को रिचार्ज कर सकते थे...
भारतीय मंदिरों में कोई खड़ा हो कर प्रार्थना नहीं करवाता। कोई आपसे यह नहीं कहता कि प्रार्थना करना जरूरी है। यह परंपरा जरूर रही है कि लोग मंदिर में जाकर कुछ पल जरूर बैठते हैं। ये स्थान ऊर्जा-केंद्र के रूप में बनाए गए थे, जहां लोग जा कर ऊर्जा प्राप्त कर सकते थे। एक तरह से खुद को रिचार्ज कर सकते थे...
सद्गुरु:
जीवन दरअसल ऊर्जा है जो अलग-अलग रूपों में साकार हो कर प्रकट हुई है। प्राण-प्रतिष्ठा का पूरा विज्ञान भी इन्हीं जीवन-ऊर्जाओं और विभिन्न रूपों में प्रकट ऊर्जा के उपयोग के बारे में है। ये बहुत लाभकारी हो सकते हैं और कई आयामों में इंसान का भला कर सकते हैं। ऐसा ही एक रूप है लिंग। लिंग-रूप में ऊर्जा को प्रतिष्ठित करने का विज्ञान अत्यंत प्राचीन है। इस विज्ञान में दुनिया के इस भाग में निपुणता हासिल की गई और यह हजारों साल से चलन में है। यह भी एक दिलचस्प बात है कि अफ्रीका, यूरोप और नेटिव अमेरिकनों तक में इसके कई उदाहरण देखने को मिलते हैं।
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पुराने जमाने में भारत के लोग भगवान में विश्वास नहीं करते थे। कुछ सौ साल पहले तक इस देश में प्रार्थनाओं का चलन नहीं था। केवल आह्वान होते थे, प्रार्थनाएं नहीं। आज भी भारतीय मंदिरों में कोई खड़ा हो कर प्रार्थना नहीं करवाता। कोई आपसे यह नहीं कहता कि प्रार्थना करना जरूरी है। यह परंपरा जरूर रही है कि लोग मंदिर में जाकर कुछ पल जरूर बैठते हैं। दक्षिण भारत में आज भी यह चलन जारी है। ये स्थान ऊर्जा-केंद्र के रूप में बनाए गए थे, जहां लोग जा कर ऊर्जा प्राप्त कर सकते थे। एक तरह से खुद को रिचार्ज कर सकते थे। अलग-अलग तरह की जरूरतों के लिए अलग-अलग तरह के मंदिर बनाए गए थे। जब भय लगे तो आप एक प्रकार के मंदिर में जा सकते थे, प्रेम की कमी महसूस होने पर एक दूसरे प्रकार के मंदिर में, समृद्धि कम होने पर एक तीसरे प्रकार के मंदिर में जा सकते थे। हर जगह उन्होंने अलग प्रकार की ऊर्जा तैयार कर रखी थी। इस पूरे विज्ञान को प्राण-प्रतिष्ठा का विज्ञान कहा जाता है। किसी स्थान-विशेष को एक खास ऊर्जा-तरंग से गूंजित कर प्राण-प्रतिष्ठित किया जाता है, जहां जा कर लोग उसका लाभ पा सकते हैं।
अलग-अलग मकसद को ध्यान में रख कर उन्होंने अलग-अलग मंदिर बनाए, जहां जा कर आपको किसी चीज के लिए प्रार्थना करने के जरूरत नहीं थी। बस वहां बैठें, वहां की ऊर्जा को आत्मसात करें और लौट आएं। यह एक तरह की टेक्नालॉजी है। लेकिन देश में जब भक्ति आंदोलन की हवा चली, तब यह टेक्नालाजी कमजोर पड़ गई। तब भक्त आए – भक्त को किसी टेक्नालॉजी में दिलचस्पी नहीं होती। वे अपनी भावना की ताकत पर आगे बढ़ते हैं – उनके लिए उनकी भावना ही सब-कुछ होती है।
पहले सारे मंदिर योगी या सिद्धपुरुष ही बनाया करते थे, लेकिन बाद में भक्तों ने मंदिर बनाने शुरु कर दिए। जब भक्त मंदिरों का निर्माण करने लगे, तो वे उनको अपनी इच्छा के मुताबिक जैसे चाहें बनाने लगे, क्योंकि ये लोग बहुत भावुक होते हैं। वे किसी के प्रेम में थे, इसलिए वे जैसे चाहें उनको बना देते थे – उनके लिए विज्ञान और टेक्नालॉजी के कोई मायने नहीं होते। इस वजह से प्राण-प्रतिष्ठा के विज्ञान में बहुत सारी विकृतियां आ गईं।
भगवान के बारे में आपका विचार, चाहे वो कुछ भी हो, वह महज आपके ऊपर एक सामाजिक प्रभाव है। है कि नहीं? अगर आप सचमुच जानना चाहते हैं, तो आपको कोई कल्पना नहीं करनी चाहिए, यही सबसे पहली शर्त है। भगवान के बारे में यह विचार आपके पास आया कहां से? चूंकि सृष्टि सामने है, इसलिए आपने कल्पना कर डाली कि जरूर इसके एक सर्जक होंगे, है कि नहीं? सिर्फ सृष्टि के कारण आपने सर्जक के बारे में सोचा। सृष्टि निश्चित रूप से द्वार है। आपके जीवन में सृष्टि का कौन-सा भाग आपके सबसे करीब और अंतरंग है? आप खुद। इसलिए यही सबसे आसान और सबसे सरल मार्ग है।