नदियों को जोड़ना कितना फायदेमंद होगा?
भारत की नदियों के समर्थन में कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक की अपनी दिलचस्प यात्रा के बाद, सद्गुरु ने 'down2earth' के कुछ सामान्य प्रश्नों के जवाब दिए। उन्होंने नदियों को जोड़ने की संभावनाओं और खतरों की बात की, साथ ही नदियों में जल का प्रवाह बढ़ाने के लिए भूमि पर पेड़ की जरूरतों के बारे में भी बताया।
शुरू हो चुके इंटरलिंकिंग प्रोजेक्ट्स का मूल्यांकन करना होगा
प्रश्न: सद्गुरु, नदियों को आपस में जोड़ने को लेकर आपकी क्या राय है? क्या इससे नदियों को फिर से जीवित करने और सभी के लिए पानी की जरूरत को पूरा करने में मदद मिलेगी?
सद्गुरु: ‘नदी अभियान’ के रूप में जो पहल की गई है, वह नदियों को फिर से जीवित करने और उनमें जल का प्रवाह बढ़ाने को लेकर ही है। दरअसल नदियों में जलापूर्ति को बढ़ाने का यह उपाय नदियों को जोड़ने जैसे दूसरे उपायों से काफी अलग है। बाकी उपायों का मकसद नदियों में फिलहाल मौजूद जल का इस्तेमाल करना है।
सौ साल पहले लाया गया था और तब से उसे कई बार उठाया गया है। साल 2000 की शुरुआत में इस विचार ने फिर से जोर पकड़ा और उसे कानूनी चुनौती दी गई। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में उसे मंजूरी दी।
‘एट्री’ नामक संस्था के कुछ वैज्ञानिकों से बातचीत करके हमें पता चला कि जल की ‘अधिकता’ और ‘कमी’ वाली नदी घाटियों की बात अपने आप में एक सीमित समझ है।
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कुछ इंटरलिंकिंग प्रोजेक्ट्स तैयार किए जा चुके हैं। हमें इन प्रोजेक्ट्स से होने वाले आर्थिक लाभों का मूल्यांकन करते हुए उसे प्राकृतिक संसाधन पूंजी के नुकसान के मुकाबले तौलना चाहिए। उसके बाद ही नए प्रोजेक्ट्स पर काम शुरू करना चाहिए। किसी भी प्रोजेक्ट का मूल्यांकन भावनाओं और राजनीति के आधार पर न करके वैज्ञानिक और पर्यावरण संबंधी गुणवत्ता के आधार पर और उसके लंबे समय तक के टिकाऊपन के आधार पर करना चाहिए। साथ ही अपने ऊष्णकटिबंधीय जलवायु या ट्रॉपिकल क्लाइमेट को ध्यान में रखकर फायदों को आंकना चाहिए, जिसकी वजह से वाष्पीकरण और भूमिगत रिसाव के जरिए भी पानी का नुकसान होता है। भारत की नदियां अधिकतर जंगलों से पोषित हैं, इसलिए नदी के दोनों ओर पेड़ों का कवर वापस लाना ही पानी की कमी को दूर करने और बाढ़ तथा सूखे के असर को कम करने का दीर्घकालीन स्थायी हल है।
किसी निजी जमीन के अधिग्रहण की जरुरत नहीं है
प्रश्न: नदियों के तटों पर पेड़ लगाने के लिए कुल मिलाकर कितनी जमीन की जरूरत होगी? यह किसकी जमीन होगी और उसे कैसे अधिग्रहित किया जाएगा?
सद्गुरु: देश की सभी बड़ी नदियां कुल मिलाकर 20,000 किलोमीटर बहती हैं, इसका मतलब है कि नदियों के तटों पर करीब 40,000 वर्गकिलोमीटर तक (दोनों ओर 1 किलोमीटर तक) जमीन की जरूरत होगी।
बाकी बची खेती की जमीन में, करीब 10 फीसदी डेल्टा जमीन है, जिसे हम यथास्थिति में छोड़ सकते हैं। तो 65 फीसदी या लगभग 26,000 वर्ग किलोमीटर किसानों की जमीन है, जिनमें हम चाहते हैं कि वे नियमित फसलें उगाना बंद करके पेड़ों की खेती करें। इन सबके लिए किसी की भी जमीन के अधिग्रहण की जरूरत ही नहीं है। हम सिर्फ किसानों को नियमित खेती से पेड़ों की खेती की ओर ले जाना चाहते हैं। छोटे स्तर पर अपने अनुभव से हमने महसूस किया है कि जब कोई किसान खेतों में लगने वाली फसलों की जगह पेड़ों की तरफ जाता है, तो उसकी आमदनी में कई गुना इजाफा होता है। इसलिए हमारा नीति प्रस्ताव किसी निजी जमीन के अधिग्रहण की सिफारिश नहीं करता। आर्थिक रूप से लाभदायक खेती के विकल्पों को बड़े पैमाने पर स्थापित करते हुए ही हम किसानों में उत्साह ला सकते हैं।
हर क्षेत्र के वैज्ञानिक पेड़ लगाने का समर्थन कर रहे हैं
प्रश्न: देश में वर्षा का ढंग पिछले कई सालों से बदल रहा है। कई बार सामान्य बारिश भी नहीं होती और कभी-कभी अत्यधिक बारिश हो जाती है। इन बदलावों को देखते हुए, क्या आपको लगता है कि इस प्रयास में पेड़ लगाने से जल की पूर्ति में मदद मिलेगी? अपने दावे के पक्ष में आपके पास कोई वैज्ञानिक अध्ययन है?
सद्गुरु: पेड़ों और वर्षा का संबंध वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है। हमारी संस्कृति में पवित्र वन के जरिये इसे कर्मकांडों से भी जोड़ दिया गया है। ये पवित्र वन और कुछ नहीं, ऐसे पेड़ों का झुरमुट हैं, जो वर्षा को बढ़ाते हैं।
सिर्फ ऊपरी भाग और स्रोत से नहीं, जमीन से भी नदियों में पानी आता है
प्रश्न: निचले और ऊपरी तटवर्ती राज्यों के बीच पानी के बंटवारे पर आपकी क्या राय है?
सद्गुरु: फिलहाल किसी भी नदी में बहुत अधिक पानी नहीं है। यहां तक कि बारहमासी नदियां भी अब साल भर नही बहतीं। हमें आपको बताने की जरूरत नहीं है, मगर फिर भी, कावेरी और कृष्णा में जल का प्रवाह 40 फीसदी कम हो गया है और कृष्णा साल के लगभग 3-4 महीने समुद्र से नहीं मिल पाती। इस स्थिति को देखते हुए, ऐसा तो होगा ही कि ऊपरी और निचले तटवर्ती राज्य पानी के लिए लड़ेंगे।
मसलन अभी ऊपरी तटवर्ती राज्य कर्नाटक और निचले तटवर्ती राज्य तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी को लेकर लड़ाई है। मैं किसी भी राज्य की तरफ नहीं हूं क्योंकि मैं कर्नाटक में जन्मा और बड़ा हुआ मगर अब तमिलनाडु में हूं। मैं साफ-साफ बताना चाहता हूं कि मैं किसी राज्य की तरफ नहीं, कावेरी की तरफ से हूं। हमें नदी के पक्ष में होना चाहिए। कावेरी हजारों सालों से बह रही है, लेकिन पहले कोई लड़ाई नहीं थी। अब नदी का पानी घट गया है, तभी लड़ाई शुरू हुई है। इसलिए हमें नदियों को पुनर्जीवित करना होगा और जल का प्रवाह बढ़ाने के लिए उसके स्रोत को बेहतर करना होगा ताकि ऊपरी और निचले दोनों तटवर्ती राज्यों को लाभ हो।
हमें इस भ्रम को तोड़ना होगा कि नदी के सिर्फ ऊपरी भाग और उसका स्रोत ही उसका जलग्रहण क्षेत्र है। इस धरती पर हर इंच जमीन किसी न किसी नदी का जलग्रहण क्षेत्र है। इसलिए हम नदियों के दोनों ओर कम से कम 1 किलोमीटर जमीन पर पेड़ लगाने का प्रस्ताव दे रहे हैं, जिसके लिए सबसे पहले किसानों को तैयार करना होगा। जब किसान देखेंगे कि खेतों से पेड़ों की तरफ जाने से उन्हें कितना आर्थिक लाभ हो रहा है, तो फिर वे नहीं रुकेंगे और फिर न्यूनतम 1 किलोमीटर की सिफारिश से आगे भी पेड़ लगेंगे। जब ऐसा होगा तो नदियां फिर बहने लगेंगी और किसी भी ऊपरी या निचले तटवर्ती राज्यों के जल विवाद भी खत्म हो जाएंगे।
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