सद्‌गुरु : कुछ ही दशक पहले तक देश भर में लोग, पीने के पानी के लिए, कपड़े धोने, नहाने या बस तैरने के लिए आस-पास किसी धारा या नदी तक चले जाया करते थे। आज ऐसा कुछ भी करने का सवाल ही नहीं उठता। और अगर ऐसा करते भी हैं तो सेहत पर उसके गंभीर दुष्परिणाम(बुरे नतीजे) हो सकते हैं। दुनिया की बहुत सारी नदियों की तरह भारतीय नदियों का पानी भी प्रदूषित हो चुका है, जबकि इन नदियों को हमारी संस्कृति में हमेशा पवित्र जगह दी जाती रही है। पर साथ ही, भारत के लोग इन नदियों से मुंह नहीं फेर सकते। वे देश की जीवनरेखाएं हैं और भारत का भविष्य कई रूपों में हमारी नदियों की सेहत से जुड़ा हुआ है।

नदी प्रदूषण के दो कारण

हमारी नदियों के प्रदूषण की दो वजहें हैं। एक को हम कहते हैं – प्वाइंट सोर्स यानी नदियों में किसी एक जगह से बहुत सारा कचरा गिरना – जैसे उद्योगों से निकला कचरा कुछ स्थानों से भारी मात्रा में नदी में गिरता है। दूसरे को कहा जाता है – नॉन-प्वाइंट सोर्स, इसमें वो कचरा आता है जो नदियों के पूरे रास्ते अलग-अलग कई जगहों से उसमें गिरता रहता है – जैसे खेती की ज़मीन से होकर नदी में जाने वाला जल।

पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे कई भारतीय राज्यों में, मिट्टी में ऑर्गैनिक तत्व का प्रतिशत 0.05 है। इससे हम उस जमीन को रेगिस्तान बना रहे हैं, जिसने हजारों सालों से हमें भोजन दिया है।

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खेतों से होकर आने वाला जल भी नदियों के लिए नुकसानदेह है क्योंकि खेती में केमिकल्स का इस्तेमाल होता है। मिटृटी को मिट्टी कहने के लिए उसमें कम से कम दो फीसदी ऑर्गैनिक(जैविक या खाद से जुड़ा) तत्व होना चाहिए। अगर आप इस ऑर्गैनिक तत्व को निकाल देंगे तो हम उस मिट्टी को रेत कहेंगे, और ऐसी जमीन खेती के लिए सही नहीं है। पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे कई भारतीय राज्यों में, मिट्टी में ऑर्गैनिक तत्व का प्रतिशत 0.05 है। इससे हम उस जमीन को रेगिस्तान बना रहे हैं, जिसने हजारों सालों से हमें भोजन दिया है।

प्वाइंट सोर्स पॉलूशन आम तौर पर उद्योगों का रासायनिक कचरा या शहरों का गंदा पानी होता है। शहरों में जैसे बिजली, पानी और गैस के मीटर लगे होते हैं, उसी तरह गंदे पानी का भी मीटर होना चाहिए और घरों तथा उद्योगों को मीटर के हिसाब से भुगतान करना चाहिए।

आज मुंबई जैसा शहर एक दिन में 2100 मिलियन लीटर गंदा पानी पैदा करता है। फिलहाल अधिकांश पानी समुद्र में जाता है। लेकिन अगर उसे उपचारित करके माइक्रो-इरिगेशन के लिए इस्तेमाल किया जाए, तो उससे हजारों हेक्टेयर जमीन पर खेती हो सकती है। 200 भारतीय शहरों का गंदा पानी मिलाकर 36 अरब लीटर होता है, जिससे 30 से 90 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकती है।

खेती से होने वाले प्रदूषण से बचाव

अगर किसानों को जैविक खेती की तरफ़ बढ़ने के लिए मदद की जाए, तो खेती से होने वाले प्रदूषण को रोका जा सकता है। अगर किसानों को अच्छी उपज चाहिए और वे खेती से कमाना चाहते हैं, तो खेत को केमिकल्स की नहीं जैविक तत्वों की जरूरत है। मिट्टी तभी स्वस्थ रहेगी, जब हम पेड़ों और पशुओँ से मिलने वाली खाद को उसमें डाल दें। यह न सिर्फ नदी के लिए अच्छा है, बल्कि मिट्टी, किसान की आमदनी और लोगों की सेहत के लिए भी बेहतर है।

औद्योगिक और रासायनिक कचरे का उपचार

फिलहाल भारत में रासायनिक और औद्योगिक कचरे को इस तरह संभाला जाता है कि प्रदूषण पैदा करने वाले उद्योग को ही नदी में जाने से पहले अपने गंदे बहाव की सफाई की जिम्मेदारी दी जाती है। इससे होता यह है कि कई उद्योग अपने गंदे जल का ट्रीटमेंट तभी करते हैं, जब इंस्पेक्टर मौजूद हों। जब उनके ऊपर निगरानी नहीं होती, तो कई उद्योग गंदे जल को साफ़ किए बिना नदियों में बहा देते हैं। अगर हम चाहते हैं कि यह ट्रीटमेंट प्रॉसेस असरदार हो, तो यह महत्वपूर्ण है कि गंदे जल के उपचार को भी एक बढ़िया व्यवसाय बनाया जाए। अगर आपका गंदा जल मेरा कारोबार होगा, तो मैं आपके कचरे को बिना ट्रीटमेंट के नदी में नहीं जाने दूंगा। सरकार को बस नदी में जाने वाले जल की गुणवत्ता के लिए मानक तय करने होंगे।

गंदगी से दौलत

दरअसल कचरे जैसी कोई चीज नहीं होती। हमने मिट्टी को ही गंदगी में बदल दिया है। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उसे मिट्टी के रूप में वापस धरती में डालें। यह गंदगी से दौलत का सफर हो सकता है। सवाल बस यह है कि हम किसी चीज का इस्तेमाल करना जानते हैं या नहीं। समय आ गया है कि हम हर चीज को अपनी खुशहाली के लिए इस्तेमाल करना सीख लें। जरूरी तकनीकें पहले से मौजूद हैं। कुछ साल पहले सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने सिंगापुर के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के साफ़ किए गए पानी को पीते हुए यह दिखाया कि वह पानी कितना शुद्ध है। निश्चित रूप से भारत में हमारे पास अब भी पर्याप्त पीने का पानी है, अगर हम अपने संसाधनों का इस्तेमाल विवेकपूर्वक करें। इसीलिए हम वाटर ट्रीटमेंट के ख़र्च को भी कम सकते हैं, अगर हम उसे सिर्फ उसी स्तर तक साफ़ करें कि वह हमारे उदयोंगों और खेती में इस्तेमाल के लायक हो जाए।

भारत में नदी प्रदूषण को ठीक करने के लिए पीपीपी मॉडल

हालांकि यह कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका हल बहुत मुश्किल हो। इस समस्या को कम समय में सुलझाया जा सकता है और इसके लिए टेक्नोलॉजी पहले से मौजूद है। बस जरूरत है सख्त नियमों की और उन्हें लागू कराने के लिए पक्के इरादों की। हमें खुद जाकर नदियों को साफ़ करने की जरुरत नहीं है। अगर हम नदियों को प्रदूषित करना छोड़ दें, तो वे खुद को एक बाढ़ के मौसम में ही साफ कर लेंगी।

अपनी नदियों को शुद्ध रखना सिर्फ हमारे गुजर-बसर के लिए ही जरूरी नहीं है, बल्कि मानवीय भावनाओं को ऊपर उठाए रखने के लिए भी ऐसे प्रतीक बहुत जरूरी हैं।

भारत एक राष्ट्र के रूप में अगर नदी प्रदूषण पर काबू पाने के लिए गंभीर है, तो इसके लिए पीपीपी (प्राइवट-पब्लिक पार्ट्नरशिप) को सही तरह से चलाने की जरूरत है। जिस तरह बहुत कम समय में देश की सड़कों का विकास किया गया, उससे यह पता चलता है कि इस तरह के काम संभव हैं। बस अब तक इन चीज़ों को प्राथमिकता नहीं दी गई है। इन्हें ठीक करने में कई दशक नहीं लगते। टेक्नोलॉजी के मौजूद होने के कारण बस योजनाओं को लागू करने के इरादे और कमिटमेंट की जरूरत है।

मुझे उम्मीद है कि अगले कुछ सालों में हम अपनी नदियों की माता-जैसी पुरानी छवि को वापस लाने में सफल हो जाएंगे, जो हर किसी की अशुद्धि को साफ करते हुए उन्हें एक स्वच्छ भविष्य दे सकती हैं। अपनी नदियों को शुद्ध रखना सिर्फ हमारे गुजर-बसर के लिए ही जरूरी नहीं है, बल्कि मानवीय भावनाओं को ऊपर उठाए रखने के लिए भी ऐसे प्रतीक बहुत जरूरी हैं।