सदगुरु : दिवाली को नर्क चतुर्दशी भी कहते हैं क्योंकि नरकासुर ने यह विनती की थी कि उसकी मृत्यु के दिन का उत्सव हर वर्ष मनाया जाये। बहुत से लोगों को सिर्फ मृत्यु का समय आने पर ही अपनी कमियाँ पता चलती हैं। वे अगर पहले ही ऐसा कर लें तो अपना जीवन सुधार सकते हैं पर ज्यादातर लोग आखिरी समय तक राह देखते हैं। ऐसे ही लोगों में एक नरकासुर भी था। अपनी मृत्यु के समय उसे अचानक पता चला कि कैसे उसने अपना जीवन व्यर्थ गँवा दिया था, और अपने जीवन के साथ कितना गलत किया था! तो उसने कृष्ण से प्रार्थना की, "आज आप सिर्फ मुझे ही नहीं मार रहे बल्कि उन सभी गलत चीजों को खत्म कर रहे हैं जो मैंने कीं - तो इसका उत्सव ज़रूर मनाया जाना चाहिये"। हर साल, दिवाली के रूप में वो मनाया जाता है पर हमें नरकासुर के गलत कामों के खात्मे का नहीं बल्कि अपने खुद की अंदरूनी गलत चीजों के खात्मे का उत्सव मनाना चाहिये। तभी एक सच्ची दिवाली होगी। बाकी, ये सब क्या है - सिर्फ ज्यादा खर्चे, तेल, पटाखे.. बस! 

उन्हें उन सभी गलत चीजों के खात्मे का उत्सव मनाना चाहिये जो मेरे अंदर थीं क्योंकि अब इसने मुझे एक नया प्रकाश दिया है और मुझे ये प्रकाश सब को देना चाहिये"।

नरकासुर एक अच्छे परिवार से था। कथा कहती है कि वो विष्णु का ही पुत्र था। पर, ये तब हुआ जब विष्णु ने वराह (जंगली सुअर) का अवतार लिया था और नरकासुर में कुछ खास रुझान थे। इससे भी ज्यादा गलत उसके लिये ये हुआ कि वो मुरा का दोस्त बन गया। बाद में मुरा नरकासुर का सेनापति बन गया। दोनों ने साथ साथ बहुत से युद्ध किए और हज़ारों लोगों को मार डाला। तो, कृष्ण ने पहले मुरा को मारा क्योंकि जब तक वो नरकासुर के साथ था तब तक नरकासुर को कुछ किया ही नहीं जा सकता था। मुरा को मारा इसलिये कृष्ण का एक नाम मुरारी भी है। कथा कहती है कि मुरा के पास युद्ध करने की जादुई शक्तियाँ थीं - जिसके कारण वो इतना शक्तिशाली हो गया था कि उसके मुकाबले कोई ठहर ही नहीं सकता था। मुरा को खत्म कर देने पर नरकासुर को मारना सिर्फ एक औपचारिक विधि ही रह गयी थी।

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कृष्ण ने नरकासुर को क्यों मारा

कृष्ण ने नरकासुर को इसलिये मारा क्योंकि वे समझ गये थे कि अगर उसे ज़िंदा रहने दिया तो वो ऐसे ही गलत काम करता रहेगा पर, अगर उसे मृत्यु के नज़दीक ले जायें तो उसमें समझदारी जाग सकती है और ऐसा ही हुआ। मृत्यु के समीप पहुंचने पर नरकासुर को अचानक समझ में आया कि अपने जीवन में उसने बहुत सारी खराब चीजें इकट्ठा कर लीं थीं। तो उसने कृष्ण से कहा, "आप मुझे नहीं मार रहे बल्कि मेरी सारी खराब चीजें ले जा रहे हैं। ये तो एक बहुत अच्छी बात है, जो आप मेरे लिये कर रहे हैं। सभी को यह मालूम पड़ना चाहिये। उन्हें उन सभी गलत चीजों के खात्मे का उत्सव मनाना चाहिये जो मेरे अंदर थीं।

अब इस समय मुझे एक नया प्रकाश मिला है, और मुझे ये प्रकाश सब को देना चाहिये"। इसीलिये, ये प्रकाश का त्योहार हो गया। इस दिन, सारा देश प्रकाशमान हो जाता है। अपनी सब खराब चीज़ें आप जला देते हैं और ये करना अच्छा है। नरकासुर को तो कृष्ण ने कहा, "मैं तुम्हें मारने वाला हूँ", पर आपको ऐसा कोई नहीं कहेगा - आप बस मर जायेंगे, ऐसा हो सकता है। 

एक बार टेनेसी में ऐसा हुआ। एक स्त्री बंदूकों की एक दुकान में पहुँची। टेनेसी में ये सामान्य बात है कि लोग समय समय पर नई बंदूकें खरीदते रहते हैं। तो वो दुकान पर गयी और बोली, "मुझे मेरे पति के लिये एक नया रिवॉल्वर और कुछ गोलियाँ चाहियें"। दुकानदार ने पूछा, "उन्हें कौनसा ब्रांड चाहिये"? तब उसने जवाब दिया, "नहीं, मैंने उन्हें ये नहीं बताया है कि मैं उन्हें मारने वाली हूँ"!

नरकासुर की मृत्यु को दिवाली के रूप में क्यों मनाते हैं

जब जीवन खत्म होता है (यानि जब आपका मृत्यु का पल आ जाता है) तो वो आपको नहीं बताता। इसीलिये दिवाली हमें याद दिलाती है कि आप जागरूकता के साथ मर सकते हैं और एक जागरूक जन्म ले सकते हैं। आपको इसके लिये राह देखने की ज़रूरत नहीं है कि कोई आ कर आपको मारे। हमें नहीं पता कि कोई पुरुष, स्त्री, बेक्टेरिया, वायरस या आपकी कोशिकालायें, कौन आपको मारने वाला है? कोई तो ये करेगा ही। बेहतर होगा कि आप खुद को और दूसरों को भी नरकासुर का मृत्यु के समय आया हुआ ये विचार याद दिलायें, "मैं अपने आप को कुछ अच्छा बना सकता था पर मैंने गंदी चीजें इकट्ठा कीं और ऐसा हो गया"! 

या तो आप खुद को सही आकार/रूप में ले आयें या फिर जीवन ही आपको सही रूप में लायेगा या रूप बिगाड़ देगा। चाहे किसी भी तरह से हो, दिवाली हम सब को यही याद दिलाती है।

हम सब एक ही तरह की चीज़ों से बने हैं पर देखिये, हरेक व्यक्ति कितना अलग है! सवाल सिर्फ यही है हर दिन आप क्या इकट्ठा कर रहे हैं? आप अपने अंदर ज़हर इकट्ठा कर रहे हैं और बना रहे हैं या फिर आप अपने अंदर दिव्यता की सुगंध बना रहे हैं? आपके पास यही विकल्प हैं। ये कहानी बहुत महत्वपूर्ण है कि नरकासुर एक अच्छे परिवार में से था पर खराब हो गया।

सिर्फ मृत्यु के समय ही उसे समझ में आया था कि उसमें और कृष्ण में यही अंतर था कि अपने जीवन में उन्होंने खुद को क्या बनाया? कृष्ण ने खुद को ईश्वर जैसा बना लिया जब कि नरकासुर ने अपने आपको राक्षस बना लिया। हममें से हरेक के पास ये विकल्प हैं। अगर हमारे पास कोई विकल्प नहीं होते तो उन महान लोगों के होने का क्या मतलब है जिन्होंने खुद को समाज के आगे चमकते सितारों की तरह बना कर रखा है? ये इसलिये नहीं है कि वे सौभाग्यशाली थे या उसी तरह हो कर जन्में थे!

इस तरह की खास अवस्था में पहुँचने के लिये अपने जीवन को बहुत सारा गूँथना, तोड़ना, बनाना पड़ता है। या तो आप राह देखें कि जीवन आपको मार मार कर सही करे या फिर आप खुद ही अपने आपको सही कर लीजिये - आपके पास यही विकल्प है। नरकासुर ने शायद यही चुना था कि कृष्ण आ कर उसे मारें। दूसरी ओर, कृष्ण ने खुद को स्वयं ही ठीक कर लेने का विकल्प चुना था। ये एक बहुत बड़ा अंतर है। तभी एक की ईश्वर के रूप में पूजा होती है जब कि दूसरे को राक्षस की तरह धिक्कारा जाता है। बात बस यही है। या तो आप खुद को सही रूप में ले आयें या फिर जीवन ही आपको सही रूप में लायेगा या रूप से ही बाहर कर देगा। चाहे किसी भी तरह से हो, दिवाली हमें यही याद दिलाती है। हमें खुद ही अपने आपको प्रकाशमान बनाना चाहिये।