एक प्राणप्रतिष्ठित स्थान में रहने के क्या फायदे हैं?
भारतीय संस्कृति में हमनें हमेशा ही ये कहा है कि मनुष्य भगवानों से भी ज्यादा अच्छे से रहते हैं। उन भगवानों को भी जब समस्यायें होतीं थीं तब वे ऋषियों को ही ढूंढने आते थे।
प्रश्नकर्ता : मैंने सुना है कि आप ये कहते हैं कि हर किसी को प्राणप्रतिष्ठित स्थान में रहना चाहिये। तो, किसी प्राणप्रतिष्ठित स्थान में रहने के क्या फायदे हैं?
सद्गुरु:कुछ साल पहले, मैं लुसान में 'ब्ल्यू ब्रेन प्रोजेक्ट' में गया था। यह प्रोजेक्ट मानव मस्तिष्क को मापने और उसकी क्षमता को समझने का एक अद्भुत प्रयास है। उन्होंने जो पता लगाया है वो वैज्ञानिक समुदाय के लिये तो बहुत ही अद्भुत है पर योगियों के साथ ये एक निर्दयतापूर्ण मजाक ही है, क्योंकि हम तो यही सब हज़ारों साल से कह रहे हैं। जब यही बातें मनुष्य कह रहे थे - और सारे सुपर कम्प्यूटर्स ऐसे ही मनुष्यों के मस्तिष्क से बने हैं - तब ये कहा जाता था, "नहीं, ऐसी चीजें संभव नहीं हैं"। पर अब, यही बातें मशीनें कह रही हैं तो सब राजी हैं।
आज पर्याप्त मात्रा में सबूत उपलब्ध हैं जिनसे स्पष्ट रूप से ये कहा जा सकता है कि आपके पिता या दादा चाहे जो भी हों, चाहे जैसे भी हों, आपका डीएनए चाहे जो जानकारी देता हो, आप एक ही पल में अपने मस्तिष्क को अलग ढंग से बना सकते हैं। वैज्ञानिकों को ये पता नहीं है कि ये कैसे होता है, पर वे जानते हैं कि ये संभव है क्योंकि अंदर सब कुछ चल रहा है और लचीला है, जड़ नहीं है। हर चीज़ बदली जा सकती है।
भारतीय संस्कृति में हमने हमेशा ही ये कहा है कि मनुष्य भगवानों से भी ज्यादा अच्छे से रहते हैं। उन भगवानों को भी जब समस्यायें होतीं थीं तब वे ऋषियों को ही ढूंढने आते थे। ये सिर्फ कहानियाँ नहीं हैं। बहुत सारे उदाहरण वास्तविक जीवन में मिलते हैं। जो लोग एक खास तरह के वातावरण में पले बढ़े हैं, उन्होंने असाधारण योग्यतायें दिखायीं हैं। ये वो संस्कृति है जहाँ गणित की पढ़ाई कभी पाठ्यक्रम के एक विषय की तरह नहीं की गयी पर भारत में हमेशा से महानतम गणितज्ञ हुए हैं। भारत से दुनिया को शून्य मिला है। बिना शून्य के आप कौन सा गणित कर सकते थे? और, अभी आधुनिक समय में रामानुजम तमिलनाडु से ही आये थे। वे प्रकृति के हर पहलू पर ध्यान देते, अपनी आँखें बंद करते, अपनी तरफ देखते और फिर गणितीय सूत्र लिखते थे। आज भी, बहुत से श्रेष्ठ वैज्ञानिक भौतिकीय सिद्धांत रामानुजम के सूत्रों की मदद से समझाये जाते हैं। इनके बहुत से ऐसे सूत्र अभी भी हैं जिनके लिये सही सिद्धांत बनने बाकी हैं।
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भारतीय संस्कृति में एक अंदरूनी ताकत है जो अंदर की खुशहली की तकनीक और उसके विज्ञान में से मिलती है और सारा संसार जिसकी मांग कर रहा है। उनके पास बेहतर तकनीकें हैं जिनके साथ उन्होंने बाहर की ओर अद्भुत चीज़ें की हैं पर अंदर की तरफ वे संघर्ष ही कर रहे हैं। ये वो तकनीक है जो हमें हज़ारों साल से मालूम हैं। इसी संदर्भ में हमारी संस्कृति का विकास हुआ है।
भगवान बनाना
मंदिरों वाले उन शहरों को आप देखिये जहाँ पुराने समय के विशाल, भव्य मंदिर हैं, जिनको बनाने की अब कोई कोशिश भी नहीं करेगा, जब कि हर तरह की मशीनें हमारे पास हैं। सारा तमिलनाडु राज्य इस तरह से बना हुआ है। तमिलनाडु के हर महत्वपूर्ण शहर में एक भव्य मंदिर होता है जिसके आसपास एक शहर बस जाता है क्योंकि आप किस तरह के मकान में रहते हैं ये महत्वपूर्ण नहीं है। आपका घर चाहे 10,000 वर्गफीट का हो या 1000 वर्गफीट का, इसका आपके जीवन पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ने वाला पर अगर आप एक प्राणप्रतिष्ठित स्थान के आसपास रहते हैं तो ये आपके जीवन में अद्भुत अंतर ला देगा।
प्राणप्रतिष्ठापन एक जीवंत प्रक्रिया है। ये कुछ इस तरह है। अगर हम मिट्टी से भोजन बनाते हैं तो ये कृषि कहलाता है, जब भोजन से हाड़माँस बनता है तो इसे पाचन कहते हैं, जब हाड़ माँस के शरीर को मिट्टी बना देते हैं तो ये अंतिम संस्कार है, पर अगर आप इस हाड़ माँस के शरीर को या किसी पत्थर को या किसी खाली जगह को भी एक दिव्य संभावना बनाते हैं तो ये प्राणप्रतिष्ठापन हो जाता है। आधुनिक विज्ञान आपको ये बताता है कि सब कुछ एक ही ऊर्जा का लाखों अलग-अलग तरीकों से अपने आप को अभिव्यक्त करना ही है। अगर ऐसा है तो आप जिसे दिव्यता कहते हैं, आप जिसे पत्थर कहते हैं, आप जिसे पुरुष या स्त्री कहते हैं, आप जिसे राक्षस या शैतान कहते हैं, वो सब वही एक ही ऊर्जा होंगे जो बहुत सारे अलग-अलग तरीकों से काम कर रही है। उदाहरण के लिये, एक ही बिजली कहीं प्रकाश बन जाती है, कहीं आवाज़ तो कहीं और कुछ। इसका आधार इस बात पर है कि आप कौन सी तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर आपके पास ज़रूरी तकनीक है तो आप अपने आसपास के साधारण स्थान को एक दिव्य प्रचुरता में बदल सकते हैं। आप चट्टान के एक टुकड़े को ले कर उसे एक देवी या देवता बना सकते हैं। ये प्राणप्रतिष्ठापन की एक अद्भुत घटना है।
खास तौर पर इस संस्कृति में, जीवन के इस आयाम के बारे में प्रचुर मात्रा में ज्ञान है, और इस आयाम को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कैसे हैं,क्या खा रहे हैं, या फिर कितने समय तक जीवित रहते हैं, पर एक समय ऐसा ज़रूर आयेगा जब सृष्टि के स्रोत के साथ संपर्क में आने की ज़रूरत आपको महसूस होगी। अगर सारे संसार में ये संभावना नहीं बनायी जाती और हर उस मनुष्य को उपलब्ध नहीं है जो ये चाहता है, तो फिर यही कहा जायेगा कि मनुष्य को सच्ची खुशहाली देने में समाज विफल रहा है।
क्रमिक विकास कीजिये
जिन भी जगहों पर आप समय बिताते हैं, वे प्राणप्रतिष्ठापित होनी चाहियें। वहाँ एक खास सुंदरता होती है। आपका क्रमिक विकास डार्विन के बनाये पैमाने पर ही हो, ये ज़रूरी नहीं है। अगर आप एक ऊर्जा से भरी हुई जगह पर हैं तो आप लंबी छलाँग लगा कर आगे बढ़ सकते हैं। वास्तव में हम इसे वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध कर सकते हैं। सिर्फ एक ही दिन की दीक्षा प्रक्रिया से - जैसे ब्रह्मचारी और दूसरे लोग, जो बहुत सारी प्रक्रियाओं में से हो कर गुज़र रहे हैं, और, सिर्फ मूल प्रक्रियायें ही नहीं, आश्रम में रहने वाले लोग भी, जो बहुत सारी चीज़ों में से हो कर जा रहे हैं, वे भी, - तो हम एक ही दिन में ये दिखा सकते हैं कि उनके मस्तिष्कों के काम करने में, उनके शारीरिक काम करने में और उनकी आनुवंशिक सामग्री में अद्भुत बदलाव आते हैं।
यही महत्व है इस बात का कि जब कोई ब्रह्मचर्य या संन्यास लेता है, तब वह वो क्रिया करता है जो उसके माता पिता की मृत्यु के बाद करनी होती है, जब कि अभी तो उसके माता पिता जीवित हैं। यह क्रिया कर के वो अपनी प्रणाली में से आनुवंशिक सामग्री को भी निकाल बाहर कर रहा है। अब, उस पर उसके पिता का कोई प्रभाव नहीं है। "हो सकता है कि मेरी नाक मेरे पिता की नाक जैसी दिखे पर अब उनकी कोई भी बात मेरे में नहीं है। मैंने उस सब को साफ कर दिया है", ये वो बात है जो एक संन्यासी कहता है।
अगर कोई प्राणप्रतिष्ठापित जगह पर रहता है, तो उसकी प्रणाली में जो मूल निर्माण सामग्री है, उसे बहुत तेजी से बदला जा सकता है। अगर आप अच्छे, विकसित मनुष्यों की कई पीढ़ियाँ पैदा करना चाहते हैं तो आपको इस तरह के स्थान की ज़रूरत है। अगर ऐसा न किया जाये तो बस संयोग से या फिर बहुत व्यक्तिगत मेहनत से ही कोई कुछ खास बन पायेगा लेकिन आप अच्छे, विकसित लोगों की पीढ़ियाँ पैदा नहीं कर पायेंगे। इस संस्कृति ने ज्ञान की आकाशगंगा (गैलेक्सी) पैदा की है। हमारे यहाँ आत्मज्ञानी लोगों की आकाशगंगा है। हर पीढ़ी ने ऐसे लोग पैदा किये, बस इसलिये कि उन्होंने इस तरह के कई पहलुओं को देखा और संभाला। अगर, एक बड़ी संख्या में लोग प्राणप्रतिष्ठापित स्थानों के संपर्क में आते हैं तो मनुष्य एक अलग पूर्णता के भाव में खिलेंगे जो जीवन को पूर्ण और एकरूपता के भाव से, और चेतन दृष्टि से देखेंगे, और सबसे महत्वपूर्ण बात तो ये है कि वे पूर्ण मनुष्य होंगे।