सद्‌गुरुमानव जीवन की सबसे मधुर भावनाओं में से एक है प्रेम। क्या है प्रेम के मूल में? आइये जानते हैं उस मूल भावना के बारे में जो प्रेम, कामुकता, महत्वाकांक्षा, लोभ जैसी कितनी ही चीजों का स्रोत है...

प्रसून जोशी: क्या किसी मनुष्य से प्रेम करते हुए, ईश्वर के साथ एकात्म भाव महसूस किया जा सकता है? या यह एक महज रुमानी सोच है?

सद्‌गुरु : प्रेम की भावना के भीतर झाँक कर, उसके मायने समझने की कोशिश करते हैं। हर इंसान के भीतर यह लालसा बसी है कि जो वह अभी है, उससे कुछ ज़्यादा हो जाए। अगर आप केवल अपने शरीर को जानते हैं, तो इसकी अभिव्यक्ति कामुकता के रूप में होगी। आप अपनी कामुकता को कोई भी रंग, नाम और नैतिक ढांचा दे सकते हैं, पर बुनियादी तौर पर, आप किसी चीज या व्यक्ति को, जो आपका हिस्सा नहीं है अपना हिस्सा बनाना चाहते हैं।

आप किसी दूसरी वस्तु या व्यक्ति को अपने अंश के रूप में महसूस करने के लिए, अपने संवेदना शरीर की सीमाओं को तोड़ने का प्रयत्न करते हैं।
एक पल के लिए, ऐसा लग सकता है कि सब कुछ मिल गया पर दूसरे ही पल सब गायब हो जाता है। अगर किसी को अपना हिस्सा बनाने की यही चाहत भावात्मक अभिव्यक्ति पाती है, तो आप कहते हैं कि आप किसी से प्रेम करते हैं। अगर आप यह तुलना करें कि किसी से शारीरिक जुड़ाव और भावात्मक जुड़ाव में से कौन अधिक समय तक टिकता है, तो आप पाएंगे कि भावात्मक जुड़ाव की अवधि अधिक होती है।

शारीरिक स्तर पर जुड़ाव क्षणिक होता है,पर यदि आप चाहें तो, भावनात्मक स्तर पर, अपने जुड़ाव को, एकात्मकता को महीनों और सालों तक बनाए रख सकते हैं। अगर आप लोकगाथाओं और साहित्य में दी गई रुमानी कथाओं को देखें, हम उन्हीं लोगों की प्रशंसा करते हैं जो अपने भावनात्मक जुड़ाव को लंबे अरसे तक बनाए रख सके, क्योंकि जब लोग प्यार करते हैं तो वे सुंदर लगते हैं। उन्हें देख कर लगता है मानो वे बादलों में तैर रहे हों। मानवीय भावनाओं में एक तरह की ख़ूबसूरती है। अधिकतर लोगों में भावना एक सशक्त बल होता है - उन लोगों में भी जो स्वयं को बौद्धिक मानते हैं। इसके विपरीत, एक सच्चा बौद्धिक व्यक्ति भाव-शून्यता के करीब होता है, क्योंकि वह अपनी बुद्धि के मोह व आकर्षण में होता है।

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बुद्धि प्रबल होती है, तो भाव घट जाते हैं

हम स्त्री-पुरुष संबंधों की बात कर रहे हैं - मान लेते हैं कि एक स्त्री और पुरुष के बीच गहरा जुड़ाव है। पर इसके बाद, उनमें से किसी एक के हाथ, एक खू़बसूरत क़िताब लग जाती है।

कुछ सीमाएं हैं - आपकी इन्द्रियों के ज्ञान की सीमाएं। इन सीमाओं में जो भी है, उसे आप ‘मैं’ समझते हैं, जो उस सीमा से परे होता है, वह आप नहीं हैं।
अचानक, काल्पनिक चरित्र, केवल पन्नों पर अंकित शब्द, साथ बैठे सुंदर पुरुष या स्त्री से कहीं अधिक दिलचस्प हो उठते हैं। संबंधों में ऐसा अक्सर होता है, जब एक साथी, दूसरे साथी की कित़ाब से ईर्ष्या महसूस करने लगता है। जब बुद्धि इस तरह जागती है, तो भाव घटने लगते हैं। बुद्धि शुष्क है, परंतु इसके भीतर अपनी तरह की चिंगारी और चमक है। यह संसार को पारदर्शी बनाती है।

अगर आप अपनी बुद्धि का सही तरह इस्तेमाल करें, तो यह उन चीज़ों को भी आपकी पहुंच में ला सकती है, जिन्हें पाने के बारे में आपने कभी सोचा तक नहीं था। इसी वजह से बुद्धि अपना आकर्षण रखती है। भावनाओं में इससे ज़्यादा सुंदरता और रंग है। परंतु अगर वे नकारात्मक हो जाएं, तो उनसे बुरा कुछ हो ही नहीं सकता। जब लोगों में भावनाएँ तरंगित होती हैं, तो आप उनके खू़बसूरत पहलुओं को देख सकते हैं, या उनके सबसे बदसूरत पहलू को भी देख सकते हैं। यही भावना की प्रकृति है। इसके साथ ही, आप जो महसूस करते हैं, वही सोचते हैं। आपकी सोच और एहसास अलग नहीं हो सकते। उदाहरण के लिए, मान लें, आप सोचते हैं, ‘वह कितनी अद्भुत है’ - तो उसके लिए आपके भाव भी मधुर ही होंगे।

प्रसून जोशी : ऐसा कभी-कभी हो सकता है, या हम जो सोचते हैं, वह हमारे बस में है? विचार क्या हमारे दिमाग में अपने-आप ही आते रहते हैं या हम अपने विचारों को तय कर सकते हैं, उन्हें निर्देशित कर सकते हैं?

सद्‌गुरु : यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आपने अपने साथ क्या किया है। आपके विचार आपके द्वारा ही निर्देशित होने चाहिए, तभी वे कोई अच्छे व तार्किक होंगे।

जब लोगों में भावनाएँ तरंगित होती हैं, तो आप उनके खू़बसूरत पहलुओं को देख सकते हैं, या उनके सबसे बदसूरत पहलू को भी देख सकते हैं। यही भावना की प्रकृति है।
वे किसी शून्य से पैदा नहीं होते, वे आपके द्वारा जमा किए गए आंकड़ों से ही पैदा होते हैं। आप केवल इकट्ठी की गई सूचना का ही कई तरह से मेल पैदा कर सकते हैं। आप यह काम कितनी होशियारी से कर सकते हैं, यह आपके मन पर निर्भर करता है। इसका मतलब यह नहीं कि आप इकट्ठी की गई सूचना से परे भी कुछ पा सकते हैं। आपके प्रश्न पर वापिस आते हैं - क्या आप अपने प्रेम प्रसंग के माध्यम से, दूसरे आयाम या ईश्वर का स्पर्श पा सकते हैं?

आप "मैं" किसे समझते हैं?

आपमें, खुद से अलग किसी चीज़ को खुद में शामिल करने की चाहत है। प्रेम मूल रूप से उसी चाहत का परिणाम है। इसका मतलब है कि कुछ सीमाएं हैं - आपकी इन्द्रियों के ज्ञान की सीमाएं। इन सीमाओं में जो भी है, उसे आप ‘मैं’ समझते हैं, जो उस सीमा से परे होता है, वह आप नहीं हैं।

इस समय आपके शरीर का जो भी वज़न है, वह उस भोजन का है, जो कुछ समय पहले तक, आपके शरीर के बाहर रखा हुआ भोजन था। आपने धीरे-धीरे इसे हजम करते हुए अपने शरीर में जमा किया। जब यही भोजन, आपकी इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान की सीमाओं में आ जाता है, तो आप उसे “मैं” के रूप में मानने लगते हैं। पर मान लेते हैं कि आपका वज़न कम हो जाता है, फिर आप उस खोए हुए वज़न को खोजने नहीं जाते कि वह आपका ही एक हिस्सा था। एक बार वह आपकी अनुभूति की सीमा से बाहर चला गया, फिर उससे आपका कोई लेना-देना नहीं रहा।

मूल कोशिश एक ही है - संवेदनाओं की सीमाओं से परे जाना

तो भले ही वह कामुकता हो या कोई प्रेम प्रसंग, महत्वाकांक्षा हो या लोभ, विजय हो या आध्यात्मिकता या फिर भक्ति - अनिवार्य तौर पर, आप किसी दूसरी वस्तु या व्यक्ति को अपने अंश के रूप में महसूस करने के लिए, अपने संवेदना शरीर की सीमाओं को तोड़ने का प्रयत्न करते हैं।

अगर आप यह तुलना करें कि किसी से शारीरिक जुड़ाव और भावात्मक जुड़ाव में से कौन अधिक समय तक टिकता है, तो आप पाएंगे कि भावात्मक जुड़ाव की अवधि अधिक होती है।
किसी न किसी रूप में, आप प्रतिदिन ऐसा करते हैं। उदाहरण के लिए, जब आप पानी पीते हैं तो यह आपका हिस्सा बन जाता है। अगर आप अपनी बुद्धि, आपके भाव, आपका शरीर या अपनी ऊर्जाओं का प्रयोग करते हुए, अपने संवेदना शरीर को असीम बनाकर, किसी चीज़ या अनुभव को अपना हिस्सा बनाना लेते हैं - तो इसका मतलब होगा कि आप योग की अवस्था में हैं। अगर आप इसे अपने शरीर के माध्यम से करते हैं, तो हम इसे कर्म योग कहते हैं। अगर आप इसे अपनी बुद्धि के माध्यम से करते हैं, तो हम इसे ज्ञान योग कहते हैं। अगर आप इसे अपने भावों के माध्यम से करते हैं, तो हम इसे भक्ति योग कहते हैं। अगर आप इसे अपनी ऊर्जा के माध्यम से करते हैं, तो हम इसे क्रिया योग कहते हैं। ये वे सभी तरीके़ हैं, जिनसे आप योग की अवस्था पा सकते हैं।