सद्‌गुरुआज समाज के हर तबके में यह आवाज उठने लगी है कि देश में नारी की दशा सुधरनी चाहिए। लेकिन कैसे? क्या पश्चिम के नक्शे कदम पर चलकर? क्या पश्चिम की महिलाएं वाकई आजाद हैं?

सद्‌गुरु: आज हम इस देश में एक विचित्र दशा में हैं। यह एक ऐसा देश है जहां हमने हमेशा नारीत्व को पूजा है। हम इस ग्रह को धरती माता कहते आए हैं - और देश के बारे में भी हमारा विचार नारीत्व से जुड़ा है - यह भारत माता है। यहां एक भी ऐसा गांव नहीं मिलेगा, जहाँ देवी या मां के रूप में नारीत्व को न पूजा जाता हो। इसके साथ ही, एक देश के रूप में, हमने महिलाओं को कई तरह से दूसरेे दर्जे का नागरिक मानना शुरु कर दिया है - कन्या भ्रूण हत्या आदि बातों को देख कर लगता है कि हम अपने लिए कन्याएँ नहीं चाहते।

इसे महिलाओं के खिलफ नहीं माना जाना चाहिए। बुनियादी समस्या यह है कि कुछ समय के बाद, लोगों के बीच किसी भी तरह का अंतर एक भेदभाव प्रक्रिया में बदल दिया जाता है। हम एक दूसरे के साथ जाति, पंथ, पंथ धर्म व संप्रदाय के नाम पर भेदभाव करते आए हैं, लेकिन लिंग के नाम पर होने वाला यह भेदभाव अपने-आप में सबसे बुरा है, क्योंकि इसे ठीक करने का कोई तरीका नहीं है। यह स्त्री-पुरुष की बात नहीं है, यह सोच से जुड़ी हुई बात है। कुछ लोग सोचते हैं कि ‘जो भी मुझसे अलग है, वह मेरा शत्रु है।’

अन्याय से न्याय की ओर

फिलहाल हम मौजूदा हालातों को देखकर प्रतिक्रिया दे रहे हैं, और आज़ादी के बारे में हमारे विचार इसी प्रतिक्रया से बन रहे हैं। आज़ादी की समझ ऐसे नहीं बननी चाहिए।

इसलिए जिसे पश्चिम में जिसे आजादी कहा और समझा जाता है, उसे किसी मानसिक या वैचारिक बदलाव की वजह से नहीं पाया गया, यह सब तकनीकी प्रगति के कारण है।
जब हम मौजूदा हालात के रिएक्शन में न्याय करने की कोशिश करते हैं, तो इससे हम केवल एक अलग तरह का अन्याय ही कर सकेंगे - यह हमें न्याय की ओर नहीं ले जाएगा। हमें जीवन को और अधिक गहराई से देखना होगा और कुछ ऐसा करना होगा जो इस ग्रह पर सभी इंसानों के लिए लाभदायक हो सके। प्रकृति ने पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को कहीं अधिक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी है। उसे अगली पीढ़ी को तैयार करना है - यह कोई छोटी जिम्मेदारी नहीं है।

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यह एक ऐसा देश है जहाँ पुरुष व स्त्रियाँ स्त्रियां जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी का जीवन जीते आए थे, परंतु पिछले दो से ढाई हज़ार वर्षों के दौरान, हमने उस बराबरी को कहीं खो दिया। हम कई कारणों से बहुत ही विकृत समाज बन गए। उन कारणों को जानने से कोई लाभ नहीं, लेकिन देखना यह है कि इसका सुधार कैसे हो सकता है।

आज़ादी बस तकनीक की वजह से आई है

दुर्भाग्य से, आजादी के बारे में हमारे विचार जरुरत से ज्यादा पश्चिम से प्रभावित हैं, बल्कि पश्चिम से उधार लिया हुआ है। हमारे मन में यही बात बसी है कि जो भी पश्चिम से आया है, वही आधुनिक है। जबकि ऐसा नहीं है। पश्चिम में महिलाओं को जो आजादी मिली, उसकी वजह वहां के लोगों की सोच में बदलाव नहीं थी, उसकी वजह थी टेक्नोलाॅजी। आज आप टेक्नोलाॅजी की वजह से कहीं भी जा सकते हैं, कितनी भी दूर बात-चीत कर सकते हैं, संदेश भेज सकते हैं, क्योंकि अब कई बातों के लिए शारीरिक बल की जरुरत नहीं होती। अगर केवल तलवार के बल पर ही देश का शासन तय होता तो कोई महिला किसी देश का शासन नहीं संभालती। आज प्रजातंत्र है, जिसमें उसे भी किसी दूसरे व्यक्ति की तरह शासन चलाने के लिए चुना जा सकता है, यही वजह है कि कई देशों को महिला राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री मिलीं। इसलिए जिसे पश्चिम में जिसे आजादी कहा और समझा जाता है, उसे किसी मानसिक या वैचारिक बदलाव की वजह से नहीं पाया गया, यह सब तकनीकी प्रगति के कारण है।

यह बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत वही गलती नहीं करे, जो उन्होंने की। पश्चिम में दूसरी पीढ़ी की महिलाएँ बहुत खुश नहीं हैं। पहली पीढ़ी आजादी पाने के लिए लड़ी और उन्हें भौतिक आजादी मिली भी। जीत को हासिल कर उन्हें लगा कि उन्हें परम सुख मिल गया। लेकिन इस जीत का बस इतना मतलब था कि वे किसी दूसरे इंसान से थोड़ी बेहतर हो र्गइं थीं, इसका मतलब यह नहीं था कि वे आजाद हो गईं थीं। उस समय भले ही अच्छा लगा हो, लेकिन यह आजादी नहीं थी।

सेक्सुअलिटी जीवन का महज एक छोटा सा हिस्सा है

स़्त्री और पुरुष के बीच के अंतर को जब जरुरत से ज्यादा महत्व देना बंद करेंगे, तभी सही मायनों में आजादी मिलेगी। लिंग-भेद तो एक छोटा सा अंतर है।

इसलिए यह बेहद महत्वपूर्ण है कि केवल महिलाओं को ही समाहित करने के बारे में नहींं, बल्कि मानव जाति में सभी को समाहित करने वाली चेतना हो।
कुछ कारणों से अधिकतर लोग अपनी पहचान को अपने शरीर से जोड़ कर रखते हैं, इसीलिए एक औरत या आदमी बनना कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। अगर आपको अपने शारीरिक अंगों से पहचान जोड़नी ही है तो मैं कहूंगा कि जनन अंगों की बजाए अपनी पहचान अपने दिमाग से जोड़ें। जेंडर का हमारे जीवन में रोल तो है पर यही सब कुछ नहीं है। यह हमारे जीवन का एक हिस्सा भर है। प्रजनन अंगों को हमारे जीवन में बस एक काम करना होता है, पर इसे पूरा जीवन तो नहीं माना जा सकता। लेकिन फिलहाल मानव आबादी इसी काम को पूरा जीवन बनाने में लगी है। जीवन ऐसे काम नहीं करता। अगर आप ऐसे करेंगे तो स्त्री और पुरुष- दोनों को ही परेशानी का सामना करना होगा।

आज की भद्दी हकीकत यह है कि नब्बे फीसदी आबादी के दिमाग में एक औरत का मतलब कामुकता है। इस सोच को बदलना होगा, नहीं तो एक स्त्री का इस ग्रह पर कभी एक सम्मानजनक अस्तित्व नहीं होगा। अगर ऐसा न हुआ तो किसी भी हालत में महिलाओं को आजादी नहीं मिल सकती। वो सड़कों पर घूम तो पाएगी, पर उसे आज़ादी नहीं मिलेगी, पर उसे एक इंसान के तौर पर नहीं लिया जाएगा, उसे हमेशा किसी और ही रूप में देखा जाएगा। कानून भले ही लोगों को वश में रखे पर जिस पल कानून ढीला पड़ गया, सबकुछ पागलपन में बदल जाएगा। इसलिए यह बेहद महत्वपूर्ण है कि केवल महिलाओं को ही समाहित करने के बारे में नहींं, बल्कि मानव जाति में सभी को समाहित करने वाली चेतना हो।

महिलाओं के अधिकारों के लिए मत लड़ो

यह बहुत महत्व रखता है कि जो महिलाएँ समाज में किसी मुकाम पर पहुँच गई हैं, जो एक बदलाव ला सकती हैं, वे यह जिम्मा अपने सिर लें - महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने की बजाए यह देखें कि एक बेहतर मानव जाति का निर्माण कैसे किया जा सकता है।

जो शोषण हुआ उसके प्रति एक प्रतिक्रिया के रूप में समाज काम कर रहा है, लेकिन शोषण का जवाब दूसरे तरह के गलत कार्योे से देकर शोषण को मिटाया नहीं जा सकता।
महिलाओं और पुरुषों की दो अलग प्रजातियाँ की तरह देखना ठीक नहीं है। अगर हमने ऐसा किया तो आने वाले समय में अगर संघर्ष हुआ तो एक बार फिर से पुरुषों का वर्चस्व हो जाएगा। अगर फिर से युद्ध के हालात बने तो महिलाओं को किसी जटिल अटारी या चारदीवारी के भीतर जाना होगा। अगर हम चाहते हैं कि ऐसा फिर कभी नहीं हो तो इसके लिए जरूरी है कि हम स्त्रियों और पुरुषों के बीच बहुत अंतर नहीं रखना चाहिए। हमें एक इंसान को एक इंसान के तौर पर देखने के काबिल बनना चाहिए।

जब ऐसा संभव होगा, तभी औरतों को आजादी मिलेगी और वे इस दुनिया में उस तरीके से जी सकेंगी जैसे उन्हें जीना चाहिए। अभी बहुत सी महिलाओं को पुरुष भाव को अपनाने की वजह से आगे जगह मिल रही है, और यह बाकी स्त्री जाति के लिए ठीक नहीं है। अगर इस धरती की सभी स्त्रियों, इस ग्रह के सभी इंसानों को अच्छी तरह जीना है, तो यह बहुत महत्व रखता है कि लिंग भेद के मसले को बढ़ा-चढ़ा कर पेश न किया जाए।

जो शोषण हुआ उसके प्रति एक प्रतिक्रिया के रूप में समाज काम कर रहा है, लेकिन शोषण का जवाब दूसरे तरह के गलत कार्योे से देकर शोषण को मिटाया नहीं जा सकता। इसे केवल तब सुधरा जा सकता है, जब इंसान के मन में सभी को शामिल करने वाली चेतना पैदा होै। तभी स्त्रियों समाज में अपना उचित स्थान मिल सकेगा।