सद्‌गुरुजानते हैं दक्षिण भारत की आध्यात्मिक परम्परा के एक ऐसे योगी के बारे में, जिन्होंने एक साथ 3000 लोगों को मुक्ति भेंट की थी। क्या था वो अवसर और कैसे संभव हो पाया ऐसा?


सद्‌गुरु : संबंदर एक ज्ञान-प्राप्त बालयोगी थे, जो लगभग हज़ार वर्ष पहले इस धरती पर आए। वे छह वर्ष की आयु से ही अपने आध्यात्मिक आयामों को बहुत ही सुंदरता से प्रकट करने लगे थे। वे एक बालक होने के नाते लोगों को कुछ सिखा नहीं सकते थे, इसलिए वे अपने ज्ञान को दूसरों तक पहुंचाने के लिए गीत गाने लगे। उनके अधिकतर गीत कहीं दर्ज़ नहीं हैं किंतु जो भी थोड़े से मिले हैं, उनकी खुबसूरती और मधुरता बेजोड़ है।

वे एक राजवंश से संबंध रखते थे। इसलिए युवावस्था में आते ही उन्हें विवाह करने के लिए विवश किया जाने लगा। वे स्वयं अपने लिए ऐसी कोई इच्छा नहीं रखते थे। इसके बाद उन्होंने स्वयं एक कन्या को चुना और कहा, ‘यदि यह कन्या मेरे साथ विवाह कर सके तो संभवतः ...।’ ऐसा नहीं था कि वे उस युवती की सुंदरता पर मोहित हो गए थे दरअसल उन्हें देख कर लगा कि वह कन्या उनके लिए कुछ कर पाने का साधन हो सकती थी।

वे बहुत ही उदार स्वभाव के थे! उन्होंने एक ऐसा माहौल बना दिया जिसमें विवाह में आए अतिथि, कुछ ही घंटों में अतिथि न रह कर, आध्यात्मिक जिज्ञासु बन गए।
वह कन्या भी एक राजपरिवार से थी किंतु उन दोनों के राज्यों के बीच आपस में मधुर संबंध नहीं थे। जब वह पांच या छह वर्ष की ही थी तो उसकी आध्यात्मिक जिज्ञासा इतनी थी कि उसे घर में रखना कठिन हो गया। जब वह आठ साल की हुई तो उसने माता-पिता से हठ किया कि उसे उत्तर भारत में स्थित वाराणसी भेज दिया जाए। उन दिनों भारत में ऐसा कर पाना इतना आसान नहीं था - आसान तो आज भी नहीं है पर वह कन्या किसी तरह अपनी बात मनवाने में सफल रही। चैदह वर्ष की आयु तक वह वहीं अपने गुरु के साथ रही।

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गुरु ने शिष्या को भेजा सम्बन्दर के पास

इसके बाद गुरु ने देखा कि उसका भाग्य उसे एक अलग ही दिशा में ले जा रहा था और उन्हें यह भी लगा कि उसके माता-पिता उसका विवाह तो करेंगे ही, इसलिए उन्होंने उसे कहा कि वह जा कर संबंदर से भेंट करे। उन्होंने उसे संबंदर की योजना के बारे में भी बता दिया - वे साधारण परिस्थितियों में ऐसा कभी न करते परंतु यहां ऐसा करना आवश्यक हो गया था। फिर वह कन्या सब कुछ करने के लिए मान गई।

वे बहुत ही उदार स्वभाव के थे! उन्होंने एक ऐसा माहौल बना दिया जिसमें विवाह में आए अतिथि, कुछ ही घंटों में अतिथि न रह कर, आध्यात्मिक जिज्ञासु बन गए।
वह भी विवाह नहीं करना चाहती थी पर अब जब उसने जाना कि वह व्यक्ति भी विवाह को एक साधन बना कर, कुछ और करना चाहता था तो उसने अपनी मंजूरी दे दी। दोनों परिवारों के बीच किसी तरह समाधान हो गया क्योंकि वर और वधू अपने-आप में विशिष्ट थे, जिसे हर कोई देख सकता था। तब तक संबंदर के अनुयायियों की संख्या भी बहुत अधिक हो गई थी। विवाह का दिन तय हो गया।

दक्षिणी भारत के लगभग सभी गणमान्य लोगों को बुलावा गया। विवाह में तीन हज़ार से अधिक अतिथि आए। प्रायः भारतीय विवाह समारोहों में पंडित द्वारा किए गए मंत्रोच्चारण की ओर कोई ध्यान नहीं देता। वह कह रहे होते हैं, कि किसी चीज़ ने तुम्हें पास बुलाया है - शायद वे हॉर्मोन ही हैं – पर ये मेल परम मेल तक पहुँचे। यह सारा समारोह इसलिए ही रचाया जाता है - स्त्री तथा पुरुष का यह सादा आकर्षण ही मुक्ति तक जाने का साधन बन जाए।

इस प्रकार हिंदू जीवनशैली में विवाह समारोह मनाए जाते हैं। लेकिन अधिकतर लोग अपने हारमोन्स के प्रभावों से परे या फिर अपनी भावनाओं से परे जा ही नहीं पाते। अगर उनके पास सुखद भाव हों तो इसे एक सफल विवाह माना जाता है। परंतु विवाह समारोह केवल भावात्मक संयोग या हारमोन संबंधी संतुष्टि का नाम नहीं है। इसे उन दोनों के चरम संयोग से भी जोड़ा जाता है।

योगी सम्बन्दर ने बदला विवाह को पूर्ण मेल में

संबंदर विवाह को इसी अर्थ में लेना चाहते थे - वे चाहते थे कि यह आयोजन उनके और वधू के लिए ही नहीं बल्कि वहां आने वाले सभी मेहमानों के लिए भी संपूर्ण मिलन का साधन बन जाए। वे बहुत ही उदार स्वभाव के थे! उन्होंने एक ऐसा माहौल बना दिया जिसमें विवाह में आए अतिथि, कुछ ही घंटों में अतिथि न रह कर, आध्यात्मिक जिज्ञासु बन गए। जब उचित क्षण आया तो उन सबने अपने चरम को पा लिया और अपने देह का त्याग कर दिया। एक साथ तीन हज़ार से अधिक व्यक्तियों ने अपनी पूरी चेतना के साथ शरीर त्याग दिए।

कई सदियों बाद, एक और कवि संत - वल्लार, आए और हमें उनके मुख से संबंदर के बारे में और अधिक जानने का अवसर मिला। वल्लार काव्यात्मक सुर में विलाप करते हुए कहते हैं, ‘ओह! मुझे उस विवाह में भाग लेने का अवसर क्यों न मिला? अब मुझे अपनी आध्यात्मिकता पाने के लिए इसी तरह कड़ा परिश्रम करना होगा!’

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