कठिन सफर नहीं, कठिन आप हैं
एक बहुत ही सुंदर कविता के साथ सद्गुरु इस बार के स्पॉट में बता रहे हैं कि नमक के पुतले की तरह कैसे खुद के वजूद को मिटा कर अपनी विशालता को पाया जा सकता है:
एक बहुत ही सुंदर कविता के साथ सद्गुरु इस बार के स्पॉट में बता रहे हैं कि नमक के पुतले की तरह कैसे खुद के वजूद को मिटा कर अपनी विशालता को पाया जा सकता है:
प्रश्न:
सद्गुरु, इंसान ‘नमक का पुतला’ कैसे बना जा सकता है, ताकि वो पूरी तरह से घुल कर विलीन हो सके? आखिर यह यात्रा इतनी दुर्गम या मुश्किल क्यों है?
सद्गुरु:
यह यात्रा मुश्किल नहीं है, मुश्किल आप हैं। एक चट्टान अगर हजार बार भी सागर की लहरों से भींगता रहे, सागर में अगर वह डूब भी जाए तो वह घुलती नहीं है।
अगर आप मुझसे पूछें तो ऐसी कोई यात्रा होती ही नहीं, क्योंकि यात्रा करने के लिए एक दूरी की जरूरत होती है। आखिर आपमें और आपके अंतरतम में कितनी दूरी है? इस दूरी यानी यात्रा को पूरी करने के लिए आपको कितनी देर लगेगी? इस ‘यात्रा’ शब्द का इस्तेमाल एक यंत्र या साधन के तौर पर किया जाता है, वर्ना तो लोग सिर्फ बैठे रहेंगे। लेकिन जब आप यात्रा कहते हैं, तो लोग समझते हैं कि उन्हें कहीं पहुंचना है।
कुछ समय पहले लॉस एंजेलस में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। उसमें लोगों को हम 21 मिनट की शांभवी क्रिया सिखा रहे थे। तभी अमेरिकी आदत अनुसार किसी ने मुझसे सवाल किया, ‘सद्गुरु आखिर आप इतनी लंबी और मुश्किल प्रक्रिया क्यों समझा रहे हैं? रमन महर्षि ने कहा था कि आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है, यह अपने आप होगा।’
अगर आप भी रमन महर्षि की तरह कुछ न कर सकें तो फिर मुझे आपको शांभवी महामुद्रा सिखाने की जरूरत ही क्या है? अगर आप वाकई कुछ न करने की स्थिति में आ जाते हैं तो फिर मुझे आपको कुछ भी सिखाने की जरूरत ही नहीं है। आपको तीन मिनट तक चुप कराने के लिए तो मुझे लगातार बोलना पड़ता है, नहीं तो आप खुद को खुजलाना शुरू कर देंगे। ऐसा नहीं है कि हमें आपको कुछ और बनाना है, क्योंकि यह तो एक बेहद मुश्किल काम होगा। हमें तो बस आपके भीतर जबरदस्ती उठने वाले विचारों को रोकना है, ताकि आपको विचारहीन सोचरहीत बनाया जा सके। आपको सिर्फ इतनी बात समझाने के लिए हमें आपको झुकाना पड़ता है, मोड़ना-मरोड़ना पड़ता है, ऊपर-नीचे करवाना पड़ता है, आपसे इतना कुछ करवाना पड़ता है।
Subscribe
दिक्कत यह है कि आप को लगता है कि आप कुछ खास हैं। आखिर बताइए कि आप किस चीज के बने हैं? क्या आप भी उसी चीज से बने हैं, जिससे यह सारी सृष्टि बनी है? या आप किसी और चीज़ के बने हैं? क्या इस पूरी सष्टि में ऐसी कोई पत्ती, पक्षी या अणु है, जिसके भीतर सृष्टि के स्रोत की धड़कन न गूंज रही हो? यह सब जगह मौजूद है और आप भी उसी सामग्री से बने हैं, फिर आप इतना बेतुका और हास्यास्पद व्यवहार क्यों करते हैं और खुद को सबसे अलग कोई बड़ी चीज क्यों समझते हैं? आपको बुद्धि और विवेक इसलिए दिया गया था कि आप अपेक्षाकृत विशाल प्रज्ञा यानी सृष्टि की प्रज्ञा के साथ धड़क सकें। इस अस्तित्व की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि यह आपके लिए संभावनाओं के तमाम आयाम उपलब्ध कराता है। अब यह आप पर है कि आप सबसे निचली संभावना को चुनते हैं या सबसे ऊंची को। पसंद आपकी अपनी है। समझदारी यानी विवेक का मतलब भौतिक सीमाओं को पार करना है। लेकिन आपको लगता है कि अगर आपमें एक खास तरह की समझदारी है, तो आप अपनी चीजें खुद कर सकते हैं। अगर आप अपनी चीजें अपनी तरह से करेंगे तो आप एक पत्थर की तरह हो जाएंगे, जो कभी भी पिघल कर किसी में नहीं मिल सकता।
अभी आप यहां बैठे हैं, हवा सांस के रूप में लगातार आपके भीतर प्रवेश करके आपके जीवन को संभव बना पा रही है। इसे आपने अपने भीतर प्रवेश करने की इजाजत दी है। जब आप भूखे होते हैं तो दुनिया भर की चीजें आपकी थाली में आ जाती हैं और उसे भी आप आने की इजाजत दे देते हैं। आप अपने जीने के लिए कुछ दरवाजे खोलकर रखते हैं, जबकि बाकी सब बंद रहता है। आप यह तो समझते हैं कि अगर मैंने अपना नाक खोल कर नहीं रखा तो मैं जीवित नहीं रह सकता, और गर मैंने अपना मुंह नहीं खोला तो भी जीवन संभव नहीं है। लेकिन अगर आप वाकई समझदार है तो आप इससे आगे की बात सोचेंगे। आप समझ पाएंगे कि अगर मैं पूरी तरह नहीं खुला तो मेरा जीवन अपनी पूरी संभावनाओं में घटित नहीं होगा। जीवन के चरम आयाम मुझे छू नहीं पाएंगे। इसे समझने के लिए किसी विशेष समझदारी की जरूरत नहीं होती। इस बात को समझने के लिए हर व्यक्ति में पर्याप्त समझ होती है।
नमक का पुतला होने का मतलब है कि आप जैसे हैं, उसे मिटाने तो तैयार हैं, ताकि आपके साथ कुछ बड़ा घटित हो सके। आपके साथ दिक्क्त यह है कि आप खुद पर ही फिदा हैं। आज आप जो भी हैं, वह इसलिए कि आपने अपने बारे में ऐसी धारणा बना रखी है। इसलिए जरूरी है कि सबसे पहले तो आप किसी भी चीज के बारे में अपनी कोई धारणा न बनाएं।
अगर आप कोई सबसे खराब काम कर सकते है तो वह है किसी और जीवन के बारे में राय बनाना। आपको किसी और जिंदगी के बारे में राय बनाने का कोई अधिकार नहीं है।
अगर आप सचमुच विलीन होना चाहते हैं तो सबसे महत्वपूर्ण काम जो आपको करना होगा, वो यह कि आप किसी भी चीज के बारे में राय न बनाएं। हालांकि समाज आपको न सिर्फ हर चीज के बारे में अपनी एक राय बनाने की सीख दे रहा है, बल्कि यह भी कह रहा है कि अगर आपने ऐसा नहीं किया तो आपका कोई स्वाभिमान नहीं रहेगा। इसका मतलब तो यह हुआ कि आपका पूरा व्यक्तित्व इतना खोखला है, कि इसे लोगों को बताना पड़ता है कि यह बहुत सुंदर है। इस तरह आप न सिर्फ दूसरे लोगों की राय में फल-फूल रहे हैं, बल्कि खुद अपनी राय में फल रहे हैं। आप एक व्यक्तित्व सिर्फ इसलिए हैं, क्योंकि आपने कुछ धारणाएं कायम कर रखी हैं। अगर आप किसी तरह की कोई राय नहीं बनाते तो आप नमक का पुतला होते। अगर आप सहज रूप से बैठ जाइए तो सिर्फ यह हवा ही आपके भीतर प्रवेश नहीं करेगी, बल्कि यह पूरी सृष्टि आपके भीतर समाने लगेगी। ऐसा होने से इसे कोई और नहीं रोक रहा, बल्कि अपने बारे में आपके विचार और राय ऐसा होने से रोक रहे हैं। आप न तो अपने बारे में और न ही किसी और व्यक्ति या चीज के बारे में कोई राय बनाइए, बस उसे वैसा ही देखने की कोशिश कीजिए, जैसी वह है। तब आप हर चीज के साथ घुलना-मिलना या डूबना सीख जाएंगे। इसके अलावा विलीन होने का और कोई रास्ता ही नहीं है।
सत्य की खोज में
कभी पीछे मुड़ा तो कभी आगे बढ़ा
पर्वत दर पर्वत मैं भटकता रहा
संतों के साथ देव नदियों में डुबकी भरा।
जिस भी दिशा में अंधे ने किया इशारा
उम्मीद और जोश में चलता रहा
हर दिशा में गया जहां भी सुगंध पाई मैंने
पर पहुंचा कहीं नहीं, बस गोल गोल घूमता रहा
व्यर्थ गए जीवन उसकी खोज में, जो है ही नहीं,
पर खोज का बुखार था ऐसा कि कभी उतरे नहीं
मछली या व्हेल ने भी जिसका मर्म न जाना
उस समंदर की थाह कैसे ले एक अनजाना
सिर्फ नमक ही समुंदर बनता, नहीं तुम और मैं
नमक की गुड़िया बन छलांग लगाई और समुंदर बन गया मैं।