एक खुशहाल जीवन

मेरे पिताजी अक्सर साधुओं, सन्यासियों को घर पर बुला कर उन्हें खाना खिलाते तथा उनका सन्मान, आदर सत्कार करते। मैंने भी उन लोगों के चरणों में साष्टांग प्रणाम करना एवं उनका आदर करना सीख लिया था। तो 1989 के आसपास जब मेरे छोटे भाई ने रामकृष्ण मिशन का संन्यासी बनने के लिये घर छोड़ दिया तब मुझे ये बहुत साधारण सी, सामान्य सी बात लगी। मैं न तो इससे कुछ प्रेरित हुआ और न परेशान। मैंने इसको इसी रूप में लिया कि यह उनका मार्ग था, उनकी यात्रा थी। मैंने तब कभी ये कल्पना नहीं की थी कि एक दिन मैं भी इसी मार्ग पर चलूँगा। ये कैसे हो गया ? आज भी जब इस पर थोड़ा रुक कर विचार करता हूँ तो आश्चर्य होता है कि क्या ये मेरे भाग्य के अनुसार होना ही था?

मैं तिरुचिनगोड़ में एक बैंक में काम करता था जो नामक्कल में मेरे घर से एक घंटे के रास्ते पर था। यह एक अच्छी, आरामदायक और सुरक्षित नौकरी थी और मैं खुश था। साथ ही मैं कई समाज सेवा कार्य करता था और एक युवा क्लब का सदस्य भी था। समय समय पर मैं तिरुचिनगोड़ और नामक्कल की कई आध्यात्मिक संस्थाओं द्वारा कराये जा रहे योग और ध्यान शिविरों का आयोजन भी करता था। उस समय, मैं यही समझता था कि योग और ध्यान कुछ ऐसी बातें हैं जो अच्छे स्वास्थ्य के लिये जरूरी हैं। मैं इन सब बातों से ही इतना संतुष्ट था कि मुझे शादी करने का भी विचार जँचता नहीं था।

कृपा का स्पर्श

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1992 में मुझे एक दिन पता चला कि मुझे एक योग कक्षा के लिये नामांकित किया गया था। कुछ लोगों ने, जिन्होंने किसी दूसरी संस्था की ओर से लगायी गयी और मेरे द्वारा आयोजित की गयी, ऐसी हठ योग की कक्षा पहले की थी, मुझसे आग्रह किया कि मैं इस कक्षा में अवश्य जाऊँ। उनके द्वारा अत्यंत प्रेम से दी गयी इस भेंट को मैंने स्वीकार कर लिया और तिरुचिनगोड़ में पहली बार होने वाली इस कक्षा में गया। तब मुझे ये मालूम नहीं था कि मेरे जीवन के लिये ये एक बड़ा बदलाव होगा। कक्षा में जाने के बाद भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि ईशा योग में मेरा यह प्रवेश मुझे इतनी दूर ले जायेगा। कक्षा को स्वामीनाथन अन्ना ने चलाया था और दीक्षा प्रक्रिया के लिये सद्‌गुरु आये थे। तब ही, पहली बार मैंने सद्‌गुरु को देखा था। दीक्षा प्रक्रिया के दौरान कुछ प्रतिभागी रो भी रहे थे, कुछ जमीन पर लोट रहे थे और कई प्रकार की हरकतें कर रहे थे। ये सब मेरे लिये नया था पर मुझे ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और यह सब देख कर मुझे कोई झटका भी नहीं लगा। मैंने समझ लिया कि इन लोगों पर कुछ कृपा हुई है और सद्‌गुरु कोई सामान्य योग शिक्षक नहीं हैं। मुझे कोई असामान्य अनुभव नहीं हुआ था पर सद्‌गुरु के लिये मेरे मन में अत्यंत आदर का भाव जग गया।

सिर्फ 1994 के होलनेस कार्यक्रम के दौरान, जब हम उनकी गुप्त योजना को बहुत थोड़ा सा जान सके और समझ सके कि वे कौन हैं, तब मैं समझ पाया कि वे बाहर जो कुछ करते हैं, उस आधार पर उनके बारे में कोई निर्णय लेना व्यर्थ ही है।

फिर तो एक वर्ष के अंदर ही मैंने सद्‌गुरु का भाव स्पंदन कार्यक्रम किया और फिर सम्यमा भी। सम्यमा कार्यक्रम के दौरान जब मैंने प्रतिभागियों को ऊँची अवस्था में देखा, तब मुझे यह महसूस हुआ कि सद्‌गुरु कितने विशाल स्तर के जीव हैं ! वे वहाँ जो कुछ प्रदान कर रहे थे, उसका कुछ 'स्वाद' मुझे भी मिला। एक बार ऐसा हुआ कि एक ब्रेक के समय मैंने अपने मुँह में एक गोली रख कर उसे चबाना शुरू किया। वो कोई विक्स जैसी गोली थी जो मैंने गले की खराश को ठीक करने के लिये ली थी। मैं उसको पूरा चबा पाऊँ इसके पहले ही ब्रेक का समय पूरा हो गया और हमें तुरंत हॉल में ले जाया गया। सद्‌गुरु भी तुरंत ही आ गये और सत्र शुरू हो गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उस गोली का मैं क्या करूँ ? मैं सोच रहा था, "मैं इसे निगलना नहीं चाहता और यहाँ मैं इसे थूक भी नहीं सकता"। मैंने उसे तब तक चबाने का निर्णय लिया, जब तक वो पूरी तरह घुल न जाये। पर, तुरंत ही उस गोली का स्वाद इतना ज्यादा कड़वा हो गया कि मुझे उसे तुरंत, वहीं, दरी पर ही थूक देना पड़ा।

उन दिनों सम्यमा हॉल में जैसा होता था, वैसा सद्‌गुरु द्वारा ली गयी हठ योग की कक्षाओं में भी देखने को मिलता था। मैंने तिरुचिनगोड़ में सद्‌गुरु की हठ योग कक्षा में भी देखा था कि सीधे, सरल सूर्य नमस्कार में भी लोग रो रहे थे, लोट रहे थे और अति आनंद में चीख रहे थे। मासिक सत्संग सत्रों में भी लोग ऐसी अवस्था में पहुँच जाते थे कि शिक्षकों के लिये लोगों को संभालना मुश्किल हो जाता था। ध्यानलिंग की प्राण प्रतिष्ठा से पहले सद्‌गुरु के आसपास का वातावरण अत्यंत तीव्र होता था।

मौखिक प्रचार से ज्यादा

मेरी इच्छा थी कि मेरे गृह नगर, नामक्कल में भी ईशा योग कक्षा का आयोजन हो। चूंकि उन दिनों कक्षाओं की योजना स्वयं सद्‌गुरु ही बनाते थे तो मैं सिंगनल्लूर में उनके 15, गोविंदस्वामी नायडू मार्ग स्थित घर पर, उनसे मेरे शहर में कक्षा लगाने का आग्रह करने गया। मैं जब वहाँ पहुँचा तो सद्‌गुरु और विज्जी माँ ने मेरा स्वागत किया और सद्‌गुरु ने मुझे मेरे घर के नाम से बुलाया। मैं आश्चर्य से सोचने लगा, "ये मेरा घर का नाम कैसे जान गये"? मैंने कभी भी ये नाम ईशा के किसी भी कार्यक्रम के आवेदन पत्र में या कहीं और भी नहीं लिखा था। लेकिन फिर भी, बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मैं सद्‌गुरु के चारों ओर होने वाली ऐसी घटनाओं का आदी हो चुका था।

सद्‌गुरु ने मेरी बात सुनी और बोले, "ठीक है, तुम सुबह की कक्षा के लिये 50 लोगों की व्यवस्था करो"। मुझे 50 की संख्या ठीक लगी पर सुबह में तिरुचिनगोड़ में कक्षा लगाने के अनुभव को देखते हुए मुझे पूरा विश्वास नहीं था कि सुबह में इतने लोग आ पायेंगे। तो मैंने उन्हें यह समझाना शुरू किया पर सद्‌गुरु ने मुझे कोई विकल्प नहीं दिया। उन्होंने मुझे इस बात पर राजी करा लिया कि योग के लिये सुबह का समय ही सबसे अच्छा होता है।

तब तक, ईशा योग कक्षाओं का प्रचार मौखिक रूप से ही होता था। पर मैंने कुछ पत्रिकायें छपवायीं और लोगों में बाँटीं जैसा कि मैं मेरी अन्य सामाजिक गतिविधियों के लिये करता था। सद्‌गुरु ने ही कक्षा ली और 50 लोग आये। मुझे लगा कि ये महज संयोग ही नहीं था, कुछ ज्यादा था। उन 50 में से 2 लोगों ने बाद में ब्रह्मचर्य की दीक्षा भी ली।

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हर दिन, सद्‌गुरु सुबह की कक्षा के बाद दोपहर की कक्षा के लिये वेलायुथंपलयम और बाद में शाम की कक्षा के लिये करुर जाते थे। एक शाम को मैं भी वोलिंटियरिंग करने के उद्देश्य से करुर गया। मैंने जब हॉल में प्रवेश किया तब सद्‌गुरु पहले ही सत्र शुरू कर चुके थे लेकिन जैसे ही वहाँ मैंने अन्दर प्रवेश किया, उन्होंने मेरा स्वागत किया और मुझसे आगे आ कर बैठने के लिये कहा। बैठ जाने के बाद मुझे समझ में आया कि सद्‌गुरु एक ही समय पर, प्रतिभागियों से कक्षा के बारे में बात करते हुए, मुझसे अलग बात कर रहे थे जिससे कक्षा में कोई व्यवधान न हो।

100 लोगों की पहली कक्षा

दो महीनों के बाद मैंने सद्‌गुरु से नमक्कल में एक और कक्षा करने के लिये आग्रह किया। इस बार उन्होंने सुबह और शाम, दोनों समय कक्षा लेने की इच्छा जतायी और मुझसे पूछा कि क्या मैं 100 लोग ला सकूँगा ? ये मानते हुए कि वे दोनों सत्रों में 100 - 100 प्रतिभागी चाहते थे, मैंने हमेशा की तरह पत्रिकायें छपवाने के अतिरिक्त छोटे छोटे पोस्टर्स भी बनवाये और व्यक्तिगत रूप से लोगों से मिल कर भी कक्षा के लिये प्रचार किया। प्रारंभिक परिचय सत्र के समय कार्यक्रम स्थल को बड़ी भीड़ से छलकता देख कर मैं खुशी से झूम उठा। उस सत्र के बाद कार्यक्रम के लिये रजिस्टर कराने वालों की लंबी लाईन थी। जैसे ही सुबह के सत्र के लिये संख्या 50 पर पहुँची, सहशिक्षक ने मुझे रजिस्ट्रेशन बंद करने के लिये कहा। तब मुझे पता चला कि सद्‌गुरु ने मुझे दोनों सत्रों के लिये मिला कर 100 लोगों को लाने के लिये कहा था लेकिन मैंने प्रक्रिया बंद करने से मना कर दिया और अंत में हमारे पास सुबह के सत्र के लिये 100 तथा शाम के सत्र के लिये 50 प्रतिभागी हो गये। ये सब, जीवन के हर भाग में से आये थे, जिनमें राजनैतिक और अन्य प्रभावी लोग भी थे और वे सभी अत्यंत उत्साहित एवं जिज्ञासु थे। कक्षा लेते समय सद्‌गुरु बहुत खुश लगे। मुझे लगता है कि उस समय यह पहली बार हुआ कि ईशा योग कक्षा में 100 लोगों की प्रतिभागिता हुई।

सद्‌गुरु और कर्मकाण्ड?

चूंकि मैं थोड़ा तर्कसंगत, विवेकशील किस्म का व्यक्ति हूँ, मैं हर प्रकार के कर्मकाण्ड, धार्मिक रस्मों के विरुद्ध हूँ। मेरा विश्वास था कि सद्‌गुरु भी ऐसी रीति -रस्मों और मूर्ति पूजा के विरुद्ध थे, जैसे कि बहुत सारे अन्य सिद्ध पुरुष होते थे जिनके बारे में मैंने पढ़ा था। वास्तव में, मैं सद्‌गुरु की ओर क्यों आकर्षित हुआ, उसका एक कारण ये भी था। 1993 में आश्रम की भूमी के भूमी पूजन के अवसर पर मैंने पहली बार सद्‌गुरु को किसी धार्मिक क्रिया में भाग लेते देखा। पूजा कराने के लिये एक पुरोहित को बुलाया गया था और उस प्रक्रिया में उन्होंने सद्‌गुरु को एक ऐश गॉर्ड (पेठे का फल) देते हुए कुछ क्रियायें करने को कहा। यह सब देख कर मैं बहुत उलझन में था, "एक तो इन्होंने पुरोहित को बुलाया है और अब तो सद्‌गुरु भी ऐश गॉर्ड हाथ में ले कर बैठे हैं"। उसी क्षण सद्‌गुरु मेरी ओर मुड़े और मुस्कुराये, मानो कह रहे हों, "देखो, मुझे भी लोगों के लिये क्या क्या करना पड़ता है"? उन्हें मुस्कुराते देख कर मैं भी हर्षित हो गया। ये तो बाद में, सिर्फ1994 के होलनेस कार्यक्रम के दौरान ही हम उनकी छुपी हुई, गुप्त योजना को थोड़ा बहुत जान सके और वे कौन हैं, ये समझ सके। तब मैं समझ पाया कि वे बाहर जो कुछ करते हैं, उसके आधार पर उनके बारे में कोई निर्णय करना व्यर्थ ही है।

रास्ते में जो उठाया है, उसे यहीं छोड़ देना है

1994 में, 90 दिन के होलनेस कार्यक्रम में मैंने पहले 30 दिन के लिये ही भाग लिया था। बाकी के 60 दिन मुख्य रूप से उन लोगों के लिये थे जो या तो ईशा योग शिक्षक बनना चाहते थे अथवा आश्रम में पूर्ण समय के लिये आना चाहते थे। मुझे ये कुछ रास नहीं आ रहा था और वैसे भी मेरे पास सिर्फ 30 दिन की ही छुट्टी थी। होलनेस कार्यक्रम में 30 दिन पूरे कर के जब मैं आश्रम से निकला तो अपने उन गुरु से मिलने गया जिन्होंने कई साल पहले मुझे दीक्षा दी थी। उस दिन, उनके आश्रम में एक नये भवन का उदघाटन समारोह था और वहाँ लगभग 3000 लोग उपस्थित थे। मैं वहाँ थोड़ी देर से पहुँचा पर जैसे ही वहाँ प्रवेश किया और अंतिम पंक्ति में अपनी जगह लेने जा ही रहा था तो मैंने अपने गुरु की ओर देखा जो मंच पर थे और मुझे देख रहे थे। मुझे लगा जैसे उन्हें मेरे चारों ओर कोई विशेष उपस्थिति लग रही थी। ये ही वो दिन था जब मैं निश्चित तौर पर जान गया कि सद्‌गुरु ही मेरे गुरु थे - मेरे एकमेव मार्ग !

लेकिन फिर भी, जब 1995 में सद्‌गुरु ने पहले दल को ब्रह्मचर्य में दीक्षित किया तो मैं उसमें शामिल नहीं हुआ। इसका एक कारण ये था कि उस समय मैं अपने आप में पूरी तरह से आश्वस्त, संशयहीन नहीं था कि संन्यास मेरी जीवन पद्धति होनी चाहिये अथवा मेरे जीवन का उद्देश्य आत्मज्ञान है। मेरे लिये बस यही पर्याप्त था कि मैं लोगों की सेवा कर रहा था। दूसरा एक कारण ये भी था कि कुछ ही समय पहले, एक दुर्घटना में मेरे बड़े भाई की मृत्यु हो गयी थी और उसके पीछे उसकी युवा पत्नी तथा 10 साल से कम उम्र के दो बच्चे थे। मेरे माता पिता इस शोक से उबर नहीं पाये थे। चूंकि मेरा छोटा भाई भी कुछ साल पहले ही संन्यासी हो गया था तो मैं सब परिवार वालों को ऐसे दुःख में छोड़ कर कैसे चला जाता ? लेकिन, फिर भी, मैं अपने आप को ज्यादा समय तक रोक न सका।

अगले वर्ष भी, जब ब्रह्मचर्य के लिये आवेदन करने का समय आया तो भी मैं अपना निर्णय न ले सका और आवेदन करने की अंतिम तिथि निकल गयी। पर उसके थोड़े दिनों बाद मुझे यह समझ में आया कि अब मैं अपने आप को रोक न सकूँगा। उस समय मैं एक कार्यक्रम के लिये आश्रम में था और उस दिन, जब मैंने सद्‌गुरु को कैवल्य कुटीर के पास से जाते देखा तो उनके पास गया और मैंने अपनी इच्छा प्रगट की, विनती की। सद्‌गुरु ने मुझे फिर विचार करने के लिये कहा, मुझे मेरे माता पिता की हालत याद दिलायी। तब, अपनी परिस्थितियों के बारे में मैंने उनको अपनी सोच के बारे में बताया। 20 साल के बाद एक सत्संग में जब सद्‌गुरु ने हमारी उस बातचीत के दौरान मेरी कही गयी सारी बातों को वैसे ही दोहराया तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। मैं उस सब को भूल गया था पर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि सद्‌गुरु ने हमारी (20 साल पुरानी) बातचीत को बिलकुल उन्हीं शब्दों में बयान किया।(नीचे नोट{1} देखें)।

ऐसी ही एक और घटना मुझे याद है। ईशा योग कक्षा में भाग लेने के बाद एक व्यक्ति, अपने आप, व्यक्तिगत तौर पर योग कक्षा लगाने लगा। शायद अपनी कुछ शंकायें दूर करने के लिये उसने सद्‌गुरु के सत्संग में आना शुरू किया। हर सत्संग में वो कई प्रश्न पूछता था। दो सत्संगों के बाद जब अगली बार वो फिर प्रश्न पूछने खड़ा हुआ तो सद्‌गुरु ने उससे कहा, "मैं जानता हूँ, तुम अन्य लोगों को अपने आप योग सीखा रहे हो" और फिर उन्होंने उसके द्वारा पहले के सत्संगों में पूछे गये प्रश्नों को वहीं पर दोहराया। उस व्यक्ति को यह सुन कर धक्का लगा और फिर हमनें उसे ईशा में कभी नहीं देखा।

लकी डिप्स

1996 में मेरी ब्रह्मचर्य दीक्षा के बाद, मुझे सत्संग करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी और साथ ही सारे तमिलनाडु में ध्यानलिंग निर्माण के लिये धन इकट्ठा करने हेतु 'लकी डिप्स' के सत्र आयोजित करने को भी कहा गया। 'लकी डिप्स', ये 'पॉट लक' खेल का एक सुधारा हुआ रूप है। लोगों को बक्से में से एक चिट्ठी उठानी होती थी और उस पर लिखी हुई रकम दान में देनी होती थी। हमने उन चिट्ठियों पर रु 1 से ले कर रु 2500 तक की रकम लिखीं थीं। मैं सारे राज्य में घूमा और हमने एक अच्छी खासी रकम इकट्ठा की।

एक खास शहर में जब भी मैं सत्संग या लकी डिप्स के लिये जाता था तो किसी भी कारण से क्यों न हो, पर वहाँ का संयोजक मेरे खाने वगैरह की सही व्यवस्था नहीं करता था। किसी तरह से सद्‌गुरु को इसका पता चल गया। एक दिन मुझे उसी शहर को जाना था। उस दिन सद्‌गुरु सिंगनल्लूर ऑफिस में आये और उन्होंने आश्रम से उसी संयोजक को दोपहर में बैठक के लिये अपने ऑफिस बुलाया था। मुझे नहीं मालूम कि बैठक में उनकी क्या बात हुई पर उस शाम को जब मैं उस शहर गया तो मेरा बहुत अच्छा खयाल रखा गया। मुझे ये एक महज संयोग से ज्यादा लगा। मैं अपने कार्यक्रम अपने आप ही बनाता हूँ और मैंने किसी को भी ये नहीं बताया था कि उस शाम मैं वहाँ जाने वाला हूँ।

रसोई का आनंद

ब्रह्मचारी बनने के बाद, शुरुआत के वर्षों में, मैं सिंगनल्लूर के ऑफिस में रहता था। मुझे खाना बनाना बिल्कुल नहीं आता था और इसका प्रबंध दूसरा कोई करता था। जब खाने को कुछ नहीं होता था तो मैं बस चावल बना लेता और छाछ या चटनी के साथ खा लेता। एक बार मैं उत्साहित हो गया और किसी से डोसे की सामग्री बनाना और उसे मिक्सी में तैयार करना सीख लिया। उसी रात को सद्‌गुरु राधे के साथ कार्यालय में आये और हमसे पूछने लगे, "क्या खाने के लिये कुछ है"? मैंने उन्हें बड़ी खुशी से डोसा चटनी परोसा। ऐसे ही एक और दिन, जब मैंने खाना बनाने की रेसिपी की एक पुस्तक से पढ़ कर पहली बार रसम बनाया तो उस दिन भी वहाँ सद्‌गुरु विज्जी माँ के साथ आ गये और खाने के लिये कुछ माँगने लगे। न केवल उन्होंने मेरा बनाया हुआ रसम भात खाया बल्कि उसकी तारीफ भी की जिससे मैं बहुत आनंदित हुआ।

हिमालय में खतरनाक पल

जब सद्‌गुरु ने 7 स्वामियों के दूसरे दल को अमरनाथ यात्रा पर भेजा तो हमें बीच में से ही वापस लौटना पड़ा क्योंकि अमरनाथ में हिंसा होने की खबरें आ रहीं थीं। तब सद्‌गुरु ने हमें हिमालय की यात्रा पर जाने को कहा। उस यात्रा में एक दिन हम अलग अलग क्षेत्रों में भिक्षा माँगने को गये, जैसे कि हमको सद्‌गुरु के निर्देश थे। जब हम शाम को वापस मिले तो हममें से हरेक को अलग अलग चीजें मिलीं थीं - एक को फल, दूसरे को चॉकलेट, आदि। जिस तरह की चीजें हमें मिलीं थीं, ऐसा लगा जैसे हमें वही मिला था जिसकी हम आशा करते थे या जो हमें पसंद थीं या जैसा हमारा स्वभाव था। मुझे गेहूँ का आटा मिला था। हाँ, ये मेरा स्वभाव था कि मैं अपना खाना स्वयं बनाता था। तो, इस तरह, कई ढंग से, सद्‌गुरु हमें दिखा देते थे कि हमारे गुण क्या हैं?

एक अन्य समय पर, जब हम भोजवासा, ऊपर की तरफ जा रहे थे तो एक जगह हमें पेड़ के तने से बनाये हुए कामचलाऊ पुल पर से नदी पार करनी थी। मैं फिसल कर गंगा में जा गिरा जो बड़ी तेजी से नीचे की ओर बह रही थी। कुछ अन्य ब्रह्मचारी मुझे बचाने के लिये कूदने को तैयार थे जब कि उनमें से कुछ को तो तैरना भी नहीं आता था पर स्वामी निसर्ग ने बुद्धिमानी दिखाते हुए उन्हें रोक दिया। हमारे साथ चलने वाला गाइड भी कुछ नहीं कर पाया। मैं कुछ समय तक उस तने को पकड़े रहा और अपने को रोकने में सफल रहा पर मेरी पीठ पर बंधे बैग का वजन मुझे लगातार नीचे खींच रहा था। कुछ समय बाद मैं अपने को रोक न सका और नदी में गिर ही गया पर जो कुछ थोड़ा तैरना मैं जानता था उससे किनारे पर पहुँच गया। हमारे गाईड को भी समझ में आ गया कि उस दिन कोई कृपा मेरी रक्षा कर रही थी।

मैराथन दौड़

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सिंगनल्लूर में एक साल रहने के बाद मैं आश्रम में आ गया और स्वागत कक्ष (रिसेप्शन ऑफिस) में काम करने लगा। भवन निर्माण के नगद प्रबंधन की जिम्मेदारी भी मैंने ले ली - वाउचर बनाना, उसकी मंजूरी कराना, सामग्री भेजने वालों और काम करने वालों को भुगतान करना तथा जमा पैसे को सुरक्षित रखना आदि। बाद में ये ईशा का कैश पॉइंट ही बन गया। दस साल पहले एक ऐसी स्थिति आ गयी थी जब मुझे तमिल प्रकाशनों की जिम्मेदारी भी लेनी पड़ी। तब से मैं तमिल प्रकाशन विभाग का हिस्सा हूँ।

आश्रम में आने के कुछ समय बाद, और शायद चारों ओर के प्राकृतिक वातावरण से प्रेरित हो कर, मैंने ऐसे ही, रोज दौड़ना शुरू किया। मैं कोई खिलाड़ी या एथलीट नहीं था, किसी खेल से जुड़ा भी नहीं था। एक दिन सद्‌गुरु ने मुझे दौड़ लगाते देख लिया और मुझे इसे जारी रखने के लिये कहा। उस समय मेरी उम्र 40 से ज्यादा हो चुकी थी पर सद्‌गुरु के हौसला बढ़ाने से ये मेरी दैनिक गतिविधि बन गयी। बाद में उन्होंने मुझे मैराथन दौड़ों में भाग लेने की अनुमति भी दी। मुझे यह देख कर बहुत खुशी होती है कि आश्रम में अब कितने सारे लोग इन मैराथन दौड़ों में भाग लेते हैं।

सौभाग्य

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मेरा यह मानना है कि मैं बहुत सौभाग्यशाली हूँ कि मैं ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा के दौरान यहाँ था और उस समय में सद्‌गुरु के साथ रहा। मुझे पूरा विश्वास है कि ध्यानलिंग सद्‌गुरु ही है। जिस दिन ध्यानलिंग को ला कर आयुडायर पर प्रतिष्ठापित किया गया था, उसके एक दिन पहले सद्‌गुरु ने एक विशेष प्रक्रिया की थी। उस प्रक्रिया के समय, हम सब यह देख कर आश्चर्यचकित हो गये थे कि सिर्फ ध्यानलिंग के आसपास ही वर्षा की हल्की बौछार हुई थी जैसे कि ध्यानलिंग पर देवों के आशीर्वाद बरस रहे हों। ये किसी परिकथा के दृश्य जैसा था।

इन सारे वर्षों में, मैं हमेशा एक तार्किक पद्धति का व्यक्ति रहा हूँ। मुझे शायद ही कभी किसी बात से अशांति या घबराहट हुई होगी क्योंकि मैं हमेशा हर चीज़ के लिये कारण ढूँढ लेता हूँ। जब मेरे बड़े भाई की एक दुर्घटना में अचानक मृत्यु हो गयी तो मैंने सोचा, " ठीक है, ये हो गया है"। मैंने आँसू भी नहीं बहाये। लेकिन हाल ही में, एक बार जब मैं गुरु पूजा कर रहा था तो मुझे महसूस हुआ कि मेरे गालों पर आँसू बह रहे हैं। आजकल जब मैं स्वयंसेवकों को इतने निस्वार्थ भाव से, इतनी अधिक भागीदारी के साथ काम करते देखता हूँ तो मैं अंदर ही अंदर पिघल जाता हूँ और भावुक हो उठता हूँ। होलनेस कार्यक्रम होने के बहुत पहले एक बार सद्‌गुरु ने मुझसे कहा था कि भविष्य में लाखों लोग ईशा अभियान से जुड़ेंगे जिससे वे अपनी अंतिम क्षमता को प्राप्त कर सकें। अब ये बात प्रत्यक्ष होते देख कर मैं अंदर ही अंदर पिघल जाता हूँ।

बहुत कम पीढ़ियाँ इतनी अधिक सौभाग्यशाली होती हैं कि सद्‌गुरु जैसी योग्यता का गुरु, जीवित अवस्था में उनके साथ हो। सद्‌गुरु लगातार यही सोचते रहते हैं कि कैसे सभी का उत्थान करें, रास्ते पर भीख माँगते भिखारी का भी। मैं जब सद्‌गुरु को गरीब, ग्रामीण लोगों के साथ इतनी सादगी से, एकदम जमीनी स्तर पर मिलते, जुलते, उन लोगों में घुल मिल जाते देखता हूँ तो भी मैं अत्यंत भावुक और विनम्र हो जाता हूँ। सद्‌गुरु एक महानतम महासागर की तरह हैं पर अपनी असीमित करुणा के कारण वे हमारे बीच रह रहे हैं और काम कर रहे हैं। हमारी सारी सीमाओं, नकारात्मकताओं के उपरांत भी वे हमारे आध्यत्मिक विकास के लिये इतना सारा काम कर रहे हैं। मैंने सिर्फ पुस्तकों में नायमार और अलवार के बारे में पढ़ा था जो इस तरह के चमत्कार करते थे पर यहाँ, मेरी आँखों के सामने ही ये एक अदभुत व्यक्ति है जो सबसे महान जीवों की तरह है, जिनके बारे में मैंने पढ़ा है।

यद्यपि मुझे लगता है कि सद्‌गुरु के द्वारा प्रदान किये गये कई अवसरों को मैंने गवांया है, मैं उनका सही उपयोग नही कर सका हूँ पर मेरे लिये ये ही बहुत ज्यादा है कि मैं उनके शिष्यों में से एक हो पाया हूँ। मेरा आत्मज्ञान ? ये उनकी समस्या है। वास्तव में मैं इसके बारे में सोचता भी नहीं हूँ। वे जानते हैं कि कब, कैसे, मुझे कौन सी चीज़ देनी है, जिसके लिये मैं योग्य हूँ ? इसका कारण यही है कि मैं अपने आप को जितना जानता हूँ, उससे वो मुझे बेहतर जानते हैं।

नोट:सद्‌गुरु ने एक सत्संग में स्वामी के बारे में ये कहा था -- "स्वामी ने अचानक आ कर मुझसे कहा, "सद्‌गुरु, मैं ब्रह्मचर्य लेना और आप के साथ आना चाहता हूँ। मैंने पूछा, "क्या तुम इसके बारे में एकदम आश्वस्त हो ? तुम्हारे पास नौकरी है, माता पिता बूढ़े हैं। तुम विवाहित नहीं हो पर तुम्हारे पास बाकी कई समस्यायें हैं, हैं न" ? वे बोले, "एल्ला नाडुलै, वंधाधु धानायै, सद्‌गुरु"। इसका अर्थ है, "ये सब बातें मैंने बस जीवन के रास्ते पर उठायी हैं, है न सद्‌गुरु"? तो उनका कहना ये था, "रास्ते पर कहीं तो मुझे इन्हें छोड़ना है, मेरा समय अब आ गया है"।

Editor’s Note: Watch this space every second Monday of the month as we share with you the journeys of Isha Brahmacharis in the series, "On the Path of the Divine."