सद्गुरु और उनकी मोटर साइकिल
मोटरसाइकिलों के लिए सद्गुरु की दीवानगी उतनी ही है, जैसी उनके कॉलेज के दिनों में थी। यहां वह याद कर रहे हैं कि किस तरह उनकी मोटरबाइक सिर्फ वाहन से कहीं अधिक थी।
मोटरसाइकिलें
सद्गुरु कॉलेज के दिनों से ही मोटरसाइकिल के लिए जो जुनूं रखते आए हैं, वह आज तक बरकरार है। यहाँ वे बता रहे हैं कि अक्सर उनकी मोटरसाइकिल एक वाहन से कहीं ज़्यादा कैसे साबित होती थी।
मैं सही मायनों में अपनी मोटरसाइकिल पर ही जीता था।
सद्गुरु: एक ऐसा भी दौर था, जब मैं सही मायनों में अपनी मोटरसाइकिल के साथ ही जीता था। मैं जब भी कहीं जाता, होटल में कभी कमरा नहीं लेता था। अपनी मोटरसाइकिल पर ही रात बिता लेता। मैं मोटर क्रॉस और हैंडल बार पर अपना बैग रखता और बड़े चैन की नींद सोता। लोग अक्सर पूछते, “आप इस पर सो कैसे सकते हैं? आप नीचे गिर जाएँगे।” मैं कहता, “चिंता न करें। मैं मोटरसाइकिल से नहीं गिर सकता। भले ही चलते हुए गिर जाऊँ पर इस मोटरसाइकिल से नहीं गिर सकता।” क्योंकि मैं जो भी कर रहा था, यह उन सबका एक बहुत बड़ा हिस्सा थी।
हम अक्सर उस पेड़ के नीचे, मोटरसाइकिल पर आ कर बैठते - उससे उतरना कुछ ऐसा ही था मानो हम किसी पवित्र वस्तु का अनादर कर रहे हों।
मैसूर एक ख़ास तरह की मोटरसाइकिलों का एक गढ़ है, जिन्हें ‘जावा’ कहते हैं। उन दिनों मोटरसाइकिल दीवानों की कमी नहीं थी, वे हमेशा इसके इंजिन में हेर-फेर करते दिखाई देते, ताकि इसकी गति बढ़ाई जा सके। हम अक्सर अपने विश्वविद्यालय कैंपस में, बरगद के बड़े पेड़ तले मिलते और कई तरह की बातें करते। हम अक्सर उस पेड़ के नीचे, मोटरसाइकिल पर आ कर बैठते - उससे उतरना कुछ ऐसा ही था मानो हम किसी पवित्र वस्तु का अनादर कर रहे हों। किसी ने हमारा नाम रखा था ‘बरगद पेड़ क्लब’। हमने एक बार छोटी सी मासिक पत्रिका भी निकाली थी, जिसका नाम ‘बरगद पेड़ क्लब की पत्रिका’ रखा गया।
दुनिया की सैर
एक समय था जब मैंने अपनी मोटरसाइकिल से सारे भारत का दौरा किया था। मैं नेपाल तक चला गया था पर सीमा से वापिस आना पड़ा क्योंकि वे मेरे दस्तावेज़ देखना चाहते थे। मैं नहीं जानता था कि अपने देश की सीमा से बाहर जाने के लिए दस्तावेज़ों की ज़रूरत होगी। इसलिए मैंने पूछा, “कैसे दस्तावेज़, मेरे पास अपनी मोटरसाइकिल लाइसेंस के सिवा कुछ नहीं है।” उन्होंने कहा, “नहीं, एक पासपोर्ट की जरूरत है।” मैंने कभी नहीं सोचा था कि कहीं जाने के लिए भी पासपोर्ट की ज़रूरत होगी। मुझे तो लगता था कि मेरी मोटरसाइकिल मुझे कहीं भी ले जा सकती है। मैंने मुड़ कर दूसरी ओर से जाना चाहा पर वहाँ भी बॉर्डर चेक पोस्ट वाले खड़े थे और उन्होंने मुझे आगे नहीं जाने दिया।
मेरा सपना था कि अपनी मोटरसाइकिल से दुनिया की सैर करूँ।
मेरा सपना था कि अपनी मोटरसाइकिल से दुनिया की सैर करूँ। मैंने सोचा कि कोई काम-धंधा करूँगा, कुछ पैसा कमाऊँगा और फिर सैर पर निकल पडूँगा। मैं अपनी मोटरसाइकिल को पूरी तरह से तैयार रखता क्योंकि मन में तो यही था कि मुझे दो-तीन साल में रूपए कमाने के बाद, सारा व्यापार समेट कर, दुनिया की सैर पर जाना है। जबकि मैं ऐसा कभी नहीं कर सका क्योंकि बाद के वर्षों में, मेरे साथ कुछ और भी घट गया था।
बाद में, विवाह के पहले तीन सालों के दौरान, मैं और विज्जी एक तरह से मोटरसाइकिल के साथ ही जीते थे। हमारे पास एक तंबू था और हम अक्सर सड़कों के किनारे अपना तंबू लगा दिया करते। हम दीवानों की तरह घूमते और हम हर साल करीब साठ हज़ार किलोमीटर की दूरी तय करते थे। कई बार इसका कोई उद्देश्य होता था तो कई बार यह यूँ ही घुमक्कड़ी होती। अगर हमारा मन करता, तो हम आधी रात को उठ कर निकल पड़ते, बंबई तक मोटरसाइकिल पर जाते, फिर शहर में प्रवेश किए बिना ही, मैसूर लौट आते।