खुद को करें तैयार जीवन की अनिश्चितताओं के लिए
ईशा होम स्कूल के विद्यार्थियों से बात करते हुए, सद्गुरु एक विद्यार्थी के जीवन में आध्यात्मिकता की भूमिका पर चर्चा कर रहे हैं। वे कहते हैं कि अगर आप अपने जीवन में अपने प्रश्नों को जीवित रखते हैं, तो आप स्वाभाविक रूप से आध्यात्मिक जिज्ञासु हो जाते हैं। शारीरिक एवं आध्यात्मिक साधना हमें अपने जीवन को छोटा किये बिना अनिश्चितताओं को सँभालने के लिये तैयार करती है।
प्रश्न : सद्गुरु एक विद्यार्थी के जीवन में आध्यात्मिकता का क्या स्थान है?
सद्गुरु : आध्यात्मिक प्रक्रिया का अर्थ यह है कि आप जिज्ञासु बन गये हैं, और समाधान खोज रहे हैं। एक धार्मिक व्यक्ति का मतलब है कि वह सिर्फ विश्वास कर लेने वाला व्यक्ति है। दुर्भाग्यवश, आज तो शिक्षाविद् और वैज्ञानिक भी विश्वास करने वाले बनते जा रहे हैं। लेकिन एक विद्यार्थी का आध्यात्मिक जिज्ञासु होना बिलकुल सही जुगलबंदी है, क्योंकि कोई भी चुस्त जीवन एक स्वाभाविक आध्यात्मिक जिज्ञासु होता है। यह आवश्यक नहीं कि वे अपनी इस तरह की पहचान बनायें, लेकिन वे हर चीज़ के बारे में जानना चाहते हैं? इसका अर्थ यह है कि आप आध्यात्मिक जिज्ञासु ही हैं। लेकिन क्या आप ने अपनी जिज्ञासाओं को इस तरह से व्यवस्थित कर लिया है कि आप एक परिणाम पर पहुँच सकें? या आप बस एक और ऐसे व्यक्ति हैं, जो छोटी आयु मे यह या वह प्रश्न पूछता है, लेकिन 30 साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते सब कुछ भूल जाता है। और अपना जीवन बस खाने-पीने, धन-दौलत या किसी और चीज़ के पीछे पड़ने में लगा देते हैं - अधिकतर लोग ऐसे ही जी रहे हैं। यदि आप अपने प्रश्नों को जीवित रखते हैं तो आप स्वाभाविक रूप से आध्यात्मिक जिज्ञासु हैं। आप किसी प्रश्न को अनुत्तरित कैसे छोड़ सकते हैं? आप के जीवन के बारे में कोई भी प्रश्न हो, उसका जवाब मिलना ही चाहिये।
प्रश्नों को जीवित रखना
यदि आप अपने प्रश्नों को जीवित रखते हैं तो आप स्वाभाविक रूप से आध्यात्मिक जिज्ञासु हैं। आप किसी प्रश्न को अनुत्तरित कैसे छोड़ सकते हैं? आप के जीवन के बारे में कोई भी प्रश्न हो, उसका जवाब मिलना ही चाहिये। आप का मन और आप की बुद्धि इन्हें जीवित नहीं रख पायेंगे। कुछ समय बाद ये आपके साथ चालाकी करेगा, आप जानते हैं। आप दस साल की उम्र में जैसे थे, उसकी तुलना में अब आप ज्यादा चालाक हो गये हैं। दुर्भाग्यवश, जब तक आप तीस साल के हो जायेंगे, आप और भी ज्यादा चालाक बन जायेंगे। आप यह भी कहना शुरू कर देंगे, "ईश्वर ने ये सारा ब्रह्माण्ड बनाया है"। जब कि आप को कुछ भी मालूम नहीं है।
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युवावस्था वह समय नहीं है, जब आप को निश्चितता खोजनी चाहिये। आप को खुद को ऐसे तैयार करना चाहिये कि आप अनिश्चितताओं को संभाल सकें। इसके लिये आप को एक आध्यात्मिक प्रक्रिया की ज़रूरत है। सामान्य रूप से, इस दुनिया में, लोग यह समझते हैं कि जब आप वयस्क हैं तो आप सब कुछ जानते हैं जो आप नहीं जानते। एक वयस्क व्यक्ति ऐसा ही नाटक करता है कि वह सब कुछ जानता है, जो वास्तव में वह नहीं जानता। लेकिन मैं चाहता हूँ कि आप इस तरह से रहें कि, "मैं जो जानता हूँ, जानता हूँ, जो नहीं जानता, वो नहीं जानता"। आप की उम्र में आप को पर्याप्त शारीरिक और आध्यात्मिक साधना करनी चाहिये, जिससे सही समय आने पर जब जीवन आप को कुछ करने का अवसर दे, तो आप का शरीर और मन रूकावट न बने। अपनी मृत्यु शैय्या पर भी आप को बहुत सी बातें पता नहीं होंगीं। क्या यह ठीक है, या आप सिर्फ अपनी मान्यताएँ बनायें रखेंगे? बहुत सारे लोग जो सारी ज़िन्दगी नास्तिक रहते हैं, मृत्यु पास आने पर प्रार्थना करना शुरू कर देते हैं। वे अब कुछ निश्चिततायें चाहते हैं। लेकिन आध्यात्मिक प्रक्रिया का अर्थ है कि आप अनिश्चितताओं का उत्सव मनायें। हम जानते हैं कि ये जीवन अनिश्चित है, और हम यह प्रयास कर रहे हैं कि अनिश्चितताओं को सँभालने के लिये हम अपने आप को तैयार करें, बजाय इसके कि हम निश्चितता की एक झूठी समझ बनायें। सभी लोग ऐसे ही निश्चितता का एक झूठा दिलासा देते हैं। "अरे, ईश्वर है, तुम चिंता मत करो, ईश्वर सब कुछ ठीक कर देगा"। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। आप ने जो ठीक किया, वो ठीक हुआ और जो ठीक से नहीं किया, वहां गड़बड़ हो गयी। लेकिन अनिश्चिततायें इतनी ज्यादा हैं कि हम चाहे सब कुछ ठीक करें, कल सुबह हम मर सकते हैं। ऐसा संभव है।
अनिश्चितताओं का यह ब्रह्माण्ड, आप को जीवन में अनिश्चितताओं को संभालने के लिये निश्चितता का झूठा दिलासा दिए बिना, आशा, विश्वास एवं विचारधाराओं के साथ तैयार करेगा। निश्चितता की कुछ ख़ास समझ लाने के लिये आप अपनी सीमाओं को काटना, कम करना शुरू कर देंगें। लोग अपने आप को ज्यादा से ज्यादा छोटा बनाना शुरू कर देते हैं क्योंकि जगह जितनी छोटी होती है, निश्चितता उतनी ही ज्यादा होती है। आप अगर अपने कमरे में ही रहते हैं तो वहां 90% बातें आप की इच्छा के अनुसार ही होंगी, बाकी की 10% तिलचट्टे, झिंगुर व अन्य लोग अपनी चीज़ें करेंगे। लेकिन अगर आप अपना इलाका सारे नगर को बना लेते हैं तो 50% आप के अनुसार होगा और बाकी 50% अनिश्चित। अगर आप सारे संसार को अपना लें तो 10% भी आप के हिसाब से नहीं होगा और 90% से ज्यादा अनिश्चित होगा।
आप की मनोदशायें, पसंद - नापसंद, शारीरिक समस्यायें, पीठ दर्द, सरदर्द- ये सब चीज़ें आप को वो सब करने से रोकेंगीं जो आप जीवन में करना चाहते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिये। आप की उम्र में आप को पर्याप्त शारीरिक और आध्यात्मिक साधना करनी चाहिये, जिससे सही समय आने पर जब जीवन आप को कुछ करने का अवसर दे, तो आप का शरीर और मन रूकावट न बने। आप का जीवन सिर्फ तभी विशाल होगा, जब आप अनिश्चितता के साथ नृत्य करना सीख लेंगे। अन्यथा, हर बात में निश्चितता चाहने से आप अपनी ज़िन्दगी संकुचित कर लेंगे, आप अपने जीवन की क्षमता को कम कर लेंगे।
निश्चितता की खोज करने के लिये युवावस्था सही समय नहीं है। इस समय तो आप को अपने आप को अनिश्चितताओं को संभालने के लिये तैयार करना चाहिये। इसके लिये आप को एक आध्यात्मिक प्रक्रिया की ज़रूरत है।
जीवन में आने वाले मौकों की तैयारी
हर दिन मैं एक नई जगह पर होता हूँ। अगर मैं दो रातें एक ही तकिये पर सोऊँ, तो ये मेरे लिए एक विशेष आरामदायक सुविधा होगी। मेरी दिनचर्या कभी भी व्यवस्थित रूप से नहीं चलती, पर मेरा शरीर इतनी यात्रायें, अनिद्रा, और जबरदस्त व्यस्त कार्यक्रम, आदि अधिकांश युवाओं की तुलना में बेहतर ढंग से संभाल लेता है। मैं दूसरों से बेहतर ढंग से इसे इसलिए कर लेता हूँ, क्योंकि मैंने 20 - 25 वर्षों की सख्त साधना इस शरीर को दी है। जिसने मुझे आज भी थामे रखा है और मैं किसी और से कई बेहतर ढंग से काम कर पा रहा हूँ।
आप के मन और शरीर को, आप की सारी आकांक्षायें पूरी करने में सहायक होना चाहिये, न कि उनमें रुकावट बनना चाहिये। आप की मनोदशायें, पसंद - नापसंद, शारीरिक समस्यायें, पीठ दर्द, सरदर्द- ये सब चीज़ें आप को वो सब करने से रोकेंगीं जो आप जीवन में करना चाहते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिये।
अधिकतर लोगों के लिये, जब उनके जीवन में मौके आते हैं, तब उनके शरीर और मन उन्हें रोक देते हैं। इसलिए, इस उम्र में, आप को पर्याप्त शारीरिक और आध्यात्मिक साधना करनी चाहिये, जिससे, जब समय आये और जीवन आप को कुछ करने का मौका दे, तो आप का शरीर और मन आप को रोक न सके। आपके शरीर और मन को आप के जीवन के लिये पाल (जो आप को आगे बढ़ाये) बनना चाहिये, न कि लंगर (जो आप को रोक दे)।