आज हम धर्म को जिस रूप में जानते हैं, वह 100 वर्ष में नहीं रहेगा।
टाईम्स ऑफ इंडिया के 30 मई 2016 के अंक में सद्गुरु का एक इंटरव्यू प्रकाशित हुआ था, पढ़ते हैं उसके अंश :
“ एक बार की बात है, मैं एक जगह आँखें बंद कर के 25 - 30 मिनट के लिये बैठ गया। जब मैंने आँखें खोलीं तो मेरे चारों ओर भीड़ जमा थी। कोई अपने भविष्य के बारे में जानना चाहता था, किसी को ये पूछना था कि उसकी बेटी की शादी कब होगी.... हर प्रकार की फालतू बातें वे पूछ रहे थे। मैं सोच रहा था, ये सब लोग कहाँ से आ गये? फिर उन्होंने बताया, "आप यहाँ पर 13 दिन से बैठे हैं!"। जब मैंने अपने पैर फैलाने चाहे तो मेरे घुटने जकड़ गये थे। दो घंटों तक मालिश, गर्म पानी का सेक और न जाने क्या क्या करने के बाद मैं उठ पाया। मैं एक ही स्थान पर 13 दिनों तक बैठा हुआ था, पर मुझे लग रहा था कि ये बस 25 -30 मिनट ही थे क्योंकि आप अपने शरीर से जितने दूर हो जाते हैं, समय का आप पर उतना कम प्रभाव होता है। ऐसे व्यक्ति को समयाधिपति कहा जाता है। वह किसी प्रकार से समय के पार चला गया है। एक बार जब आप समय के पार चले जाते हैं, तो आप के लिये समय महत्वपूर्ण नहीं रह जाता ", सद्गुरु ने कहा।
ये सब बहुत ही अद्भुत बात है। लेकिन ये और भी ज्यादा अद्भुत बात है जब वे कहते हैं....."ये कोई अद्भुत काम नहीं है, कोई भी महारत के इस स्तर पर पहुंच सकता है"। क्या वास्तव में ऐसा है? क्या कोई भी ये कर सकता है?...
"जी, हाँ", वे मुस्कुराते हुए कहते हैं। ये तो एक ही साथ एक आमंत्रण भी है और एक चुनौती भी। तो आप अगला प्रश्न पूछने के लिये उत्साहित हो जाते हैं, फिर एक और, एक और....
सद्गुरु अपनी जानी पहचानी हाज़िरजवाबी एवं विशिष्ट बुद्धिमानी को प्रदर्शित करने वाली इस एक घंटे की बातचीत में अपने जीवन के अनुभव बता रहे हैं, कुछ रहस्य भी खोल रहे हैं और हम जिस ढंग से अपने जीवन को जी रहे हैं, उसकी कुछ कड़वी, कठिन सच्चाई को भी प्रकट कर रहे हैं। कुछ अंश.....
प्रश्न: तो अब हम ये जानने के लिये बहुत उत्सुक हैं कि आप समय से परे कैसे जाते हैं?
सद्गुरु समय से परे जाने की कोशिश मत कीजिए। जब आप अपने शारीरिक स्वभाव से परे हो जाते हैं तो स्वाभाविक रूप से आप समय से परे चले जाते हैं। बताईये, लोग अपने अंदर समय का खयाल किस तरह रखते हैं? सिर्फ शरीर के ही माध्यम से। उन्हें कैसे मालूम पड़ता है कि अब दोपहर हो गयी है? उन्होंने सुबह का नाश्ता कर लिया था, अब दोपहर के भोजन का समय है - एक खाने से दूसरे खाने तक, आप का शरीर समय का ध्यान रखता है। एक बार जब आप पेशाब के लिये जाते हैं तो फिर दूसरी बार जाने के समय तक, आप का शरीर समय का खयाल रखता है। आप थक जाते हैं तो सोने का समय होता है -- यही सब तरीके हैं, समय का खयाल रखने के।
अगर मैं आप को यहाँ तीन घंटे बिठा कर रखूँ, तो आप के शरीर की इच्छा हिलने और घूमने की होने लगेगी। मान लीजिये, आप के पास शरीर न हो और मैं आप को यहाँ दस हज़ार साल बिठा कर रखूँ तो आप को क्या समस्या होगी? आप का शरीर ही आप को 'समय' की अनुभूति देता है। आप जब घड़ी देखते हैं तो एक चक्र, एक आवृत्ति का अर्थ है एक घंटा। चंद्रमा जब पृथ्वी के चारों ओर एक चक्कर पूरा करता है तो ये एक महीना हो जाता है, और पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर एक चक्कर एक वर्ष को पूरा कर देता है। सब कुछ चक्रों में चल रहा है। क्यों? क्योंकि यही उसकी प्रकृति है।
प्रश्न: तो आप शारीरिक स्वभाव के परे कैसे जाते हैं?
सद्गुरु पूरा यौगिक विज्ञान इसी के बारे में है - अपनी व्यवस्था को ब्रह्मांडीय व्यवस्था की सीध में कैसे लायें? कारण ये है कि आप के शरीर के सभी चक्रों का संबंध अस्तित्व - सौर व्यवस्था, ब्रह्मांड – के ज़्यादा बड़े चक्रों के साथ है। अगर ये सीध में हों तो आप को अपने शरीर की अनुभूति बिलकुल कम होगी और आप जैसे चाहें, वैसे अपने शरीर का उपयोग कर पाएंगे। यदि अपने शरीर के बारे में आप की अनुभूति आप पर हावी हो जाती है, तो इसकी प्रकृति मजबूर करने वाली हो जाती है। ये अनुभूति आप को मजबूर करती है कि आप वही चीज बार बार करें। और अगर आप वो काम नहीं करेंगे तो ये आप को तकलीफ देती रहेगी।
आप अपनी पहचान भौतिकता के रूप में जितनी ज़्यादा बनाते हैं, उतने ही ज्यादा आप समय के लिये उपलब्ध रहेंगे। जब लोग भौतिक, शारीरिक चीजें कर रहे होते हैं तो वे हर समय घड़ी देखते रहते हैं। उनके लिये समय बीतता ही नहीं। कोई अगर थोड़ा बुद्धिजीवी हो और एक पुस्तक पढ़ना शुरू करे तो अचानक ही उसे समय का खयाल नहीं रहता, ऐसे ही घंटों बीत जाते हैं। आप अगर बुद्धिजीविता से भी परे हो जायें और ध्यानमग्न हो जायें तो समय बस ऐसे ही गुजर जायेगा और आप को पता न चलेगा।
मेरा कामकाज ऐसा होता है कि मैं अगर किसी कार्यक्रम में बैठता हूँ तो अगले 10 -12 घंटों तक मैं बस ऐसे ही बैठा रहता हूँ। बाकी सब लोग बीच बीच में वॉशरूम जाने, पानी पीने के लिये उठते रहते हैं लेकिन मैं पूरे समय वहीं बैठा रहता हूँ। मैं कोई बड़ा काम नहीं करता। बात सिर्फ ये है कि शरीर का आप पर उतना जोर नहीं चलता। आप शरीर का उपयोग करते हैं, शरीर आप का उपयोग नहीं कर पाता। ऐसा होना ही अच्छा है।
प्रश्न: क्या यही कारण है कि आप योग को आध्यात्मिकता के एक बड़े भाग के रूप में प्रचारित करते हैं ?
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सद्गुरु आप का भौतिक शरीर कोई साधारण, सरल चीज़ नहीं है। ये एक जबरदस्त मशीन है। यदि आप इसको पूर्ण रूप से सजग नहीं रखते, तो आप जीवन का अनुभव बहुत गहराई से नहीं कर सकते।
अभी हाल ही में, मैं तिरुपति में था जहाँ एक स्कूल बस अचानक मेरी कार के सामने आ कर रुकी। मैंने देखा कि उतरने वाले 10 बच्चों में से 5 कुछ ज्यादा ही मोटे, सामान्य से ज्यादा वजन वाले थे। आजकल स्कूल जाने वाले बच्चे अत्यंत निरुत्साहित दिखते हैं जिन्हें किसी बात में रुचि नहीं है। एक 10 साल का बच्चा मोबाईल फोन के स्क्रीन पर सारा ब्रह्मांड देख चुका होता है - उसे लगता है कि वह सब कुछ जानता है। ये बच्चे अब जीवन में आगे क्या करने वाले हैं? वे बड़े हो कर कोई नौकरी कर लेंगे और पैसा कमायेंगे - क्या बस यही? वे पेड़ पर नहीं चढ़ सकते, दौड़ नहीं सकते, नृत्य नहीं कर सकते, आनंद में नहीं रह सकते। बोर हो चुके बच्चे बड़े हो कर ऐसे ही वयस्क हो जाते हैं - उन्हें किसी चीज़ में कोई दिलचस्पी नहीं रह जाती। फिर वे कुछ ऐसा चाहते हैं जो उन्हें उत्तेजित करे - तो वे शराब और नशीले पदार्थों की ओर मुड़ते हैं। और कोई चीज़ उन्हें हिला भी नहीं सकती - तो वे अपने शरीर में बस रसायन डालते जाते हैं।
प्रश्न: तो क्या अपने आप को उत्तेजित करने के लिये कोई गैर रासायनिक उपाय, रास्ते भी हैं ?
सद्गुरु: मैं आप को ऐसे लाखों लोग दिखा सकता हूँ जिनके गालों पर, आंखें बंद कर बैठते ही, अति आनंद के आँसू बहने लगते हैं। आपको बस खुद से जुड़ने की ज़रूरत है। शराब और नशीले पदार्थों के मामले को कई लोग नैतिकता आदि से जोड़ते हैं, पर इस बात का सार ये है कि लोग जीवन के बड़े अनुभव ढूंढ रहे हैं। हरेक को जीवन एक बड़े रूप में चाहिये। अगर आप उनको कोई दूसरा रास्ता नहीं बताते तो वे शराब की ही तरफ जायेंगे। कुछ समय बाद शराब भी काम नहीं करेगी तो वे और ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा असरदार चीजें ढूँढेंगे। ये उनके दिमाग को खराब कर डालेंगी पर लोगों को परवाह नहीं है क्योंकि उन्हें कोई और अनुभव चाहिये - भले ही ये उन्हें मार डाले। कुछ बड़ा अनुभव करने की मनुष्य की आकांक्षा बहुत मजबूत है!
प्रश्न: तो क्या उस आकांक्षा का जवाब आध्यात्मिकता है?
सद्गुरु: आज मनुष्य की बुद्धिमानी जितने ऊंचे स्तर पर है, जैसी चमकदार वो आज है, वैसी पहले कभी नहीं थी। मानवता के इतिहास में, आज पहले से कहीं ज्यादा लोग अपने लिए खुद सोच रहे हैं। आज ऐसा है कि अगर ईश्वर भी आप से बात करे, और उनकी बात आप को तार्किक न लगे, तो आप उनकी बात नहीं मानेंगे। एक समय था जब लोग मान लेते थे, स्वीकार कर लेते थे। तो, आज के समय में, स्वर्ग भी महत्वहीन हो रहे हैं। आज शायद ये बात कुछ ही व्यक्तियों तक सीमित है पर धीरे-धीरे ये बहुत बड़े स्तर पर होगा।
मेरा अनुमान है कि अगले 80 -100 वर्षों में धर्म का आज जो व्यवस्थित रूप है, वह टूट जायेगा। पुराने समय में स्वर्ग का महत्व था क्योंकि लोग बहुत खराब परिस्थितियों में रहते थे। आज हम लोग बहुत अच्छी तरह से रह रहे हैं, स्वर्ग से भी बेहतर, तो लोग कहेंगे, "मैं यहीं अच्छा हूँ, मैं स्वर्ग जाना नहीं चाहता"। लेकिन कुछ ज्यादा अनुभव करने की मनुष्य की आकांक्षा नहीं जायेगी। अगर, आज की पीढ़ी के रूप में हम ये प्रयत्न न करें कि हर मनुष्य को एक शक्तिशाली आंतरिक अनुभव मिले तो 90% से ज्यादा लोग शराब और नशीले पदार्थों की तरफ मुड़ेंगे और आप इसे नहीं रोक पायेंगे।
आज हम विकास के इस अद्भुत स्तर पर पहुँच चुके हैं, कि हम अमीबा के स्तर से मानवीय बुद्धिमानी एवं सक्षमता के इस ऊँचे स्तर पर आ गये हैं। यदि विश्व के सारे लोगों को इतनी ऊँचाई से गिरने से बचाना है तो एक वैज्ञानिक रूप से उचित आध्यात्मिक प्रक्रिया सारी दुनिया को मिलनी ही चाहिये।
प्रश्न: अगर कोई नास्तिक हो और किसी खास चीज़ को न मानता हो तो उसके लिये क्या रास्ता है?
सद्गुरु: नास्तिक और आस्तिक, ये कोई दो अलग तरह के लोग नहीं हैं। दोनों ही कुछ ऐसा मानते हैं, जिसके बारे में वे कुछ नहीं जानते। दोनों के पास, सत्य क्या है ये खोजने के लिये न तो साहस है न ही प्रतिबद्धता। वे बस कुछ मान लेना चाहते हैं। जिस प्रकार की संस्कृति में वे बढ़े हैं, एक प्रकार का मानना सही लगता है, दूसरा गलत लगता है। दोनों को वास्तविकता की तो कोई जानकारी है ही नहीं।
एक आस्तिक या नास्तिक होने के बजाय, अगर आप अपने आप को सीधे सीधे कहते हैं, "मैं जो जानता हूँ वो जानता हूँ, जो नहीं जानता वो नहीं जानता", तो मानवीय अस्तित्व का मूल स्वभाव ही ऐसा है कि आप जानना चाहेंगे, आप जानने की कोशिश करेंगे, आप को जानने की जिज्ञासा होगी - और आप सत्य को जान ही लेंगे।
प्रश्न: लेकिन हमारी पीढ़ी की सबसे बड़ी समस्यायें तो रोजाना की वास्तविकतायें ही हैं - काम का तनाव, वो प्रमोशन जो कभी नहीं मिलता, और भयंकर बॉस!
सद्गुरु: कुछ समय पहले मैं मुम्बई में था। एक व्यक्ति जो वहाँ कोई बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहा था, मुझे मिला और बोला, "सद्गुरु, अब मुझसे ये सहन नहीं होता। ये मेरा बॉस मेरा जीवन नर्क बना रहा है"। मैंने कहा, "तुम्हारी ये नौकरी छूट जाये"। वो एकदम घबरा गया, "ये आप क्या कह रहे हैं"? मैंने कहा, "तुम इस दुःख भरी नौकरी को क्यों सहन कर रहे हो? अच्छा होगा अगर ये छूट जाये। जाओ समुद्र तट पर आराम से घूमो"। आप नौकरी में हैं तो दुःखी हैं, अगर आप को निकाल दिया जाता है, तो भी आप दुःखी हैं!
तो ये हमें ही तय करना चाहिये। आप को अपना जीवन चलाने के लिये पैसे कमाने हैं या फिर आप को अपना जीवन बनाना है? जब एक कीटाणु, कीड़ा या पक्षी भी इसे इतनी आसानी से कर सकते हैं तो इतने बड़े मस्तिष्क वाले मनुष्य के लिये अपने जीवन को चलाना कोई बड़ी बात नहीं है। समस्या बस ये है कि आप अपना जीवन उस तरह से चलाना चाहते हैं जैसे कोई और चला रहा है। आपको उतना पैसा कमाना है, जितना कोई और कमा रहा है, तो आप कोई काम करते हैं। आप को वैसी गाड़ी चाहिये जैसी किसी और के पास है, तो आप कोई व्यवसाय करते हैं। आप किसी अन्य के मकान जैसे मकान में रहना चाहते हैं, तो इन्हीं सब कारणों से आप अपने लिये समस्या खड़ी कर लेते हैं। आप सभी प्रकार के गलत कारणों के लिये ही काम करना सीखते हुए बड़े होते हैं। आप वास्तव में वो नहीं कर रहे जो आप करना चाहते हैं।
मैं जब कहता हूँ, "मैं ये वास्तव में करना चाहता हूँ" तो मेरे लिये ये कोई सनक नहीं है। अगर आप वो कर रहे हैं जिसकी आप को परवाह है, अगर आप को लगता है कि आप जो कर रहे हैं वह दुनिया के लिये महत्वपूर्ण योगदान है, तो आप इसे आनंदपूर्वक करेंगे। तब तनाव नाम की कोई चीज़ नहीं होगी। लेकिन आप वो कर रहे हैं जिसकी आप को कोई परवाह नहीं है, पर बस कुछ खास पाने के लिये आप ये कर रहे हैं, तो, हालाँकि मैं वो शब्द कहना नहीं चाहता, लेकिन, आप ने अपने आप को बेच दिया है।
प्रश्न: लेकिन इस पीढ़ी की प्रेरक शक्ति ही 'बड़े बनो' है। हम इसे महत्वाकांक्षा कहते हैं। हमें कभी किसी ने नहीं बताया कि ये कोई खराब चीज़ है?
सद्गुरु: आप के लिये, अभी, सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि आप जीवित हैं। अगर आप यहाँ होने वाली सबसे बड़ी, सबसे अदभुत घटना - जो जीवन है - उसका आनन्द नहीं ले पाते तो आप किसी और चीज़ का आनन्द कैसे ले सकेंगे? अगर आप वास्तव में अपने जीवन का आनन्द ले रहे हैं तो बाकी सब साथ-साथ होता रहेगा। वो निर्णायक बात नहीं रहेगी। आज मैं कार में सवारी कर रहा हूँ, कल अगर मेरे पास साइकिल ही है तो मैं उस पर घूमूंगा, इसमें क्या बड़ी समस्या है ? आप ने जीवन - जो आप वास्तव में हैं - का सच्चा मूल्य नहीं जाना है, इसीलिये आप सभी प्रकार की चीज़ों को मूल्यवान बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिनका वास्तव में कोई मूल्य ही नहीं है।
मेरे रोजाना के कामकाज का पूरा कार्यक्रम 20 घंटों से ज्यादा का होता है। मुझे अगर दो रात एक ही बिस्तर पर सोने को मिले तो मेरे लिये ये बड़े ऐश्वर्य की बात होती है। लेकिन क्या मैं आप लोगों को कभी भी तनावग्रस्त लगता हूँ? क्या मैं तनाव के कारण मरूंगा? कभी नहीं! मैं थकान से मर सकता हूँ पर कभी भी बोर होने के कारण नहीं मरूंगा, ये बात बिल्कुल निश्चित है। ये मरने का सबसे बुरा तरीका है। अगर आप जीवन के प्रति जीवंत होना चाहते हैं तो आप को ये नहीं सोचना चाहिये कि आप इसमें से क्या प्राप्त कर सकते हैं - आप को यह देखना चाहिये कि आप इसमें भाग कैसे ले सकते हैं?
प्रश्न: हम निश्चित रूप से जीवन के प्रति जीवंत, उत्साहित होते हैं - शुक्रवार के दिन !!
सद्गुरु: हाँ, ये वही बात है, "शुक्र है भगवान का, आज शुक्रवार है"(अर्थात मौज करो, दो दिन काम से छुटकारा)। लोग मुझे कामकाज-जीवन के बीच संतुलन के बारे में बहुत पूछते हैं। मैं कहता हूँ अगर कोई काम जीवन नहीं है तो उसे मत करो। मेरे लिये कोई सप्ताहांत होता ही नहीं - मैं सप्ताह के सातों दिन काम करता हूँ, साल के सभी 365 दिन। क्या आप को मुझे देख कर लगता है कि मुझे किसी लंबी छुट्टी की आवश्यकता है? आप अगर वो कर रहे हैं जिसके लिये आप को परवाह है तो आप का सारा जीवन एक लंबी छुट्टी ही है। तो अपने जीवन को एक लंबी छुट्टी बनाईये - वो कर के, वो बना के, जिसके बारे में आप को परवाह है।
जीवन अपने आप में एक उद्देश्य है। बड़ा प्रश्न ये है कि आप कितने जीवित हैं? जब आप पांच साल के थे, तब आप कितने जीवित थे? आज आप कितने जीवित हैं? दिन में कम से कम एक बार देखिये, आप कितने जीवित हैं? अगर आप इसका हिसाब नहीं रखेंगे तो आप का जीवन नुकसान में रहेगा। कम से कम बिस्तर पर सोने जाते समय देखिये, क्या आज आप कल की अपेक्षा एक बेहतर मनुष्य थे? बेहतर होने से मेरा मतलब ये नहीं है कि क्या आप किसी के लिये उपयोगी थे या क्या आपने किसी की मदद की? मैं नैतिक रूप से बेहतर होने के बारे में बात नहीं कर रहा। सवाल बस ये है कि एक जीवन के रूप में क्या आप थोड़े ज्यादा आनंदित हैं?
आनन्द एक बीमा है। जब आप आनंदित होते हैं तब आप सभी के लिये अदभुत होते हैं। आप अपने धन का, पैसे पैसे का हिसाब रखते हैं तो आप अपने जीवन का हिसाब क्यों नहीं रख सकते ? क्योंकि आप का धन आप के लिये जीवन की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो गया है!
प्रश्न: तो फिर इस सब का हल क्या है, समाधान क्या है?
सद्गुरु: अपनी खुशहाली के लिये अंदर की ओर मुड़िये, बाहर की ओर नहीं। अगर आप स्वभाव से परमानंद में होते तो आप क्या करते? आप बस वही करते जो आवश्यक है। अभी आप अपनी खुशी पाने के लिये क्या करते हैं? आप वो काम करते हैं, जो आप के अनुसार, आप को खुशी देगा। तो मानवीय अनुभव को उल्टा करना - इस दुनिया को पीस कर उसमें से रस निकालने के बजाय, अपने जीवन को इस तरह बढ़ाना, उन्नत करना कि जीवन ही अपने आप में रस बन जाये - यही समाधान है।