अच्छाई और बुराई में फंसा इंसान
हमे बचपन से सिखाया जाता है ये-ये चीजें अच्छी हैं और वो चीजें बुरी हैं। समय के साथ अच्छे और बुरे का यही भेद कैसे हमारे लिए बंधन बन जाता है? सद्गुरु हमें बता रहे हैं कि हमारे भीतर किसी भी तरह का भेद घटित होने से मौन की स्थिति पैदा नहीं हो सकती
अच्छाई, बुराई और दोनों से परे की शिक्षा
ऐसे बहुत से गुरु हैं, जिन्होंने लोगों को अच्छाई का पाठ पढ़ाया है। कुछ लोग दूसरों को बुराई का सबक भी सिखाते हैं। परंतु ऐसे गुरु भी हुए हैं जो अपनी ओर से अच्छाई और बुराई, दोनों को नष्ट करने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं ताकि जीवन जैसा है, वैसे ही जीया जा सके, उसे अच्छाई और अहंकार की सोच और भावनाओं के अनुसार न जिया जाए। तभी एक व्यक्ति जान सकेगा कि अपने भीतर से मौन होना किसे कहते हैं। अच्छे लोग चुप नहीं रह सकते। बुरे लोग भी चुप नहीं रह सकते। केवल वही लोग जो इन दोनों बातों पर ध्यान नहीं देते, जो जीवन की प्रक्रिया को ध्यान में रखते हैं, वे ही सही मायनों में मौन साध सकते हैं।
यह और यह
मौन का अर्थ है कि आपके भीतर कुछ नहीं चल रहा। मौन का अर्थ यह नहीं कि मुझे पक्षियों की चहचहाहट या बादलों की गर्जन या सूरज उगने का पता नहीं चलेगा। मौन का अर्थ है कि मैंने शोर करना बंद कर दिया है।
Subscribe
हर जगह, यही सवाल बार-बार सामने आता है - ‘मुझे कितनी आध्यात्मिकता करनी चाहिए?’ आप जितना भी करेंगे, हमेशा परेशानी में ही रहेंगे। आपको केवल यह और यह करना है। बाकी सब उसमें फिट होना चाहिए, तब सब ठीक होगा। अगर आपने यह और वह किया, तो आप संकट से घिर जाएंगे और यह काम नहीं कर सकेगा। जिन लोगों ने दूसरों को अच्छाई सिखाने की कोशिश की, उसकी वजह ये थी कि उस समय समाज पथ से इतना भटक चुका था, कि सामाजिक सिस्टम में थोड़े संतुलन की भावना लाने के लिए और लोगों को उस समय की उलझन से निकालने के लिए ही, उन्होंने उसका विपरीत सिखाया।
एक समय लोगों को सिखाया गया, ‘आंख के बदले आंख’, और फिर एक आदमी आया जिसने आ कर कहा, ‘अगर कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो।’ यह सिर्फ इसलिए था कि उस समय के मौजूद बंधनों से लोगों को निकाला जा सके। अगर उन्होंने उन्हें और जीवित रहने दिया होता, तो वे यह भी बताते कि अगर किसी को गाल पर थप्पड़ मारना पड़े तो कैसे मारना चाहिए। संभव है उन्होंने वही सिखाया हो जिसकी जरूरत थी। बाकी हिस्से लोग अपने-आप ही सीख पाने में सक्षम थे।
अच्छे और बुरे की सोच
अच्छाई का हर विचार केवल अलग तरह के पूर्वाग्रहों को पैदा करता है। जब आप किसी एक चीज़ को अच्छा और दूसरे को बुरा कहते हैं, तो आपका बोध बुरी तरह से विकृत हो जाता है। आपके पास खुद को उससे निकालने का रास्ता नहीं रहता।
जब शिव ने योग सिखाया तो उन्होंने ऐसा अनेक अलग.अलग तरीकों से किया। एक स्तर पर, उन्होंने यह भी कहा कि यह बहुत करीब है। उन्होंने पार्वती से कहा, ‘तुम मेरी गोद में बैठ जाओ, बस, यही योग है।’ यह तो किसी स्त्री को अपनी गोद में बिठाने की, पुरुष की चाल लगती है। नहीं, क्योंकि उन्होंने केवल पार्वती को गोद में ही नहीं बिठाया बल्कि अपना आधा अंश विसर्जित करके पार्वती को अपना ही अंश बना लिया। जब पार्वती ने कई तरह के प्रश्न किए तो वे बोले, ‘तुम चिंता मत करो। बस मेरी गोद में बैठ जाओ, बस यही सब कुछ है। बस मेरी गोद में बैठोए बाकी सब हो जाएगा।’ परंतु किसी और को उन्होंने विस्तृत तरीके सिखाए, मानो सत्य मीलों दूर हो, और कैसे उन लाखों मील की दूरी तय की जा सकती है। एक ही व्यक्ति दोनों तरह से बात करता दिखता है।
सत्य के बारे में कुछ करने की जरूरत नहीं है
यही सबसे सुंदर बात है कि वे सत्य को नहीं, अपने आगे बैठे लोगों के बारे में कुछ कर रहे हैं। क्योंकि सत्य के बारे में कुछ नहीं किया जा सकताए और कुछ करने की जरुरत भी नहीं है। संसार ने यही भूल की है।
यौगिक सिस्टम में कभी भी परम तत्व के बारे में कुछ नहीं किया जाता। यह लोगों के बारे में ही कुछ करता है। परम तत्व के लिए तो कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं - यह तो परम है ही। जो व्यक्ति फिलहाल कुछ ख़ास तरह की सीमाओं से घिरा है, उसके बारे में कुछ करने की जरूरत है। अगर आप डाॅक्टर के पास जाते हैं, तो उसका काम आपको देखना होता है। आप उससे यह अपेक्षा नहीं करते कि वह आंखें मूंद कर प्रार्थना करे। आप उसके पास इसलिए नहीं गए। आप चाहते हैं कि वह आपके शरीर की जांच करके देखे कि आपको क्या हुआ है।
इसी तरह, लोग कई तरह की बातों से गुज़रते हैं। जो परम है, वह किसी मुश्किल से नहीं गुजर रहा। अलग.अलग लोग जूझ रहे हैं। एक.एक व्यक्ति अपने जीवन में घटने वाली छोटी-छोटी बातों की वजह से उतार-चढ़ाव से गुज़र रहा है। उस व्यक्ति को के बारे में कुछ करने की जरूरत है। जिस स्थिति में लोग इस पल हैं, उसी स्थिति में उनके बारे में कुछ करना, और परम तत्व के बारे में कुछ न करना, ही योग विज्ञान का सार है।