स्कूल हो या समाज, हर जगह कमजोर लोग अपने से अधिक ताकत वालों के धौंस के शिकार हैं। क्या है इसकी वजह और क्या है इसका उपाय, बता रहे हैं सद्‌गुरु-

सद्‌गुरु

इस दुनिया में कदम-कदम पर धौंस दिखाने वाले दबंग लोग मिलते रहते हैं। ऐसी दुनिया में हमारे बच्चे तभी सही ढंग से जी पाएंगे जब हम स्कूल के स्तर पर ही इस समस्या को संबोधित करेंगे। जो ज़्यादा ताकतवर होते हैं वे हमेशा अपने से कमज़ोर लोगों पर धौंस जमाते रहते हैं। चाहे देश के स्तर पर देखें, चाहे समुदाय के स्तर पर, चाहे व्यक्तिगत स्तर पर, हर जगह और हमेशा कोई न कोई किसी को धौंस दिखा रहा है। दरअसल हमने दुनिया को कुछ ऐसा बना ही दिया है कि अगर आप किसी को डराना-धमकाना नहीं सीखते तो फिर समाज की नजरों में आपकी कोई हैसियत नहीं। या तो आप अपने बाजुओं के ज़ोर पर धौंस दिखाते हैं या फिर कोई चालाकी कर के। मैं आपको ये समझाना चाहता हूँ कि अंतर्राष्ट्रीय हालात किसी गली-नुक्कड़ के हालात से अलग नहीं हैं। ताकतवर, कमज़ोरों पर तरह-तरह से बोझ लादते हैं। अभी भी यह वही गुफा-मानव की ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ वाली दुनिया है; फर्क बस इतना है कि अब सीधी लड़ाई के बदले चालाकी और धूर्तता से काम लिया जाता है।

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चूंकि हमने सही ढंग के नेता पैदा नहीं किये, इसलिए दबंगों को ही नेता मान लिया गया। इंसान के प्रति जिस के दिल में करुणा हो, मानवता को ले कर जिसका व्यापक नजरिया हो, ऐसे संवेदनाशील इंसानों को नेता नहीं माना जाता; उनको इस दुनिया में दार्शनिक मान लिया जाता है। उनको आदर्श-कल्पनावादी कह कर उनसे किनारा कर लिया जाता है।

जो लोग हर मौके में घुस कर दखल देने की कूवत और किसी-न-किसी तरह से आपको मसल देने की ताकत रखते हैं, वही दबंग लोग नेता हैं । स्कूल में तंग करने वाले दबंग छात्रों के बारे में शिकायत मत कीजिए, क्योंकि स्कूल तो देश-दुनिया के लिए नेता पैदा करने की कोशिश कर रहा है। इस ढर्रे को हमें बदलना होगा पर यह रातोरात नहीं बदलने वाला। इसके लिए हमें पूरी मानव-जाती पर, हर इंसान पर बहुत मेहनत करनी होगी। यहां-वहां दो बातें कर के या सड़कों-गलियों पर नारे लगाने से कोई फायदा नहीं होगा, इसके लिए ज़रूरी है हर इंसान पर ठोस मेहनत। फिलहाल उस तरह का बड़ा काम करने के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचा मौजूद नहीं है।

मैं आपको ये समझाना चाहता हूँ कि अंतर्राष्ट्रीय हालात किसी गली-नुक्कड़ के हालात से अलग नहीं हैं। ताकतवर, कमज़ोरों पर तरह-तरह से बोझ लादते हैं। अभी भी यह वही गुफा-मानव की ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ वाली दुनिया है...

हम यहां सबकी चेतना जगाने के लिए बुनियादी ढांचा तैयार कर रहे हैं। ऐसा दुनिया के इन भागों में पहले कभी नहीं किया गया। बहुत पहले पूरब में बहुत कुछ किया गया, पर पिछली कुछ सदियों में कुछ भी नहीं हुआ है। हिंदुस्तान में भी हम मानव-चेतना को ऊंचा उठाने के लिए विशाल बुनियादी ढांचे तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं। बच्चे धौंस इसलिए दिखाते हैं क्योंकि उन्होंने दुनिया को ऐसे ही महसूस किया है, और उन्हें लगता है कि दुनिया ऐसे ही चलती है। जिसके पास जो भी ताकत है उसका इस्तेमाल वह औरों को डरा-धमका कर दबाने के लिए करता है; लोग अपनी ताकत का इस्तेमाल किसी को उपर उठाने लिए, किसी की ज़िंदगी संवारने के नहीं करते। अगर वे किसी की ज़िंदगी संवारते भी हैं तो भी उसको कभी भी नीचे गिरा सकने की डोर अपने हाथ में ही रखते हैं। कोई भी आपको हाइड्रोजन के गुब्बारे की तरह खुले आसमान में छोड़ कर नहीं कहना चाहता कि ‘उड़ो, और ऊपर उड़ो’ – वो उस गुब्बरे में एक डोर जरूर बांध देते हैं, जिसका एक सिरा उसके हाथ में होता है। इसके लिए हमें लोगों को मुक्त करने वाली एक एक असांप्रदायिक आध्यात्मिक प्रक्रिया चाहिए ताकि हर इंसान अपने ढंग से खिल सके, अपनी उड़ान भर सके। ज़रूरी नहीं कि वह मेरी तरह या आपकी तरह हो। जिस तरह जीवन खुद में सबको समा लेता है, उसी तरह इंसान जब तक खुद में सबको समा लेने के लिए तैयार रहेगा, वह खिलता रहेगा, उपर उठता रहेगा। समावेशी होना कोई विचारधारा नहीं है, किसी तरह का दर्शन भी नहीं है, समावेशी होना ज़िंदगी जीने का ढंग है। अस्तित्व का वजूद उसके समावेशी होने के कारण ही है, विशिष्ट हो कर अलग रहने के कारण नहीं। यहां एक भी परमाणु अलग रह कर अपना वजूद बनाए नहीं रख सकता।

जैसा आप जानते हैं, बहुत ज़्यादा ऊंचाइयों पर जाने पर आपको उल्टी या चक्कर आ सकता है। शायद आपने सोचा होगा कि ऑक्सीजन की कमी के कारण ऐसा होता है। नहीं, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपका शरीर अपनी अक्षुण्णता खोने लगता है। आपके शरीर को अपनी सेहत और रूप-आकार बनाए रखने की खातिर इसको सहारा देने के लिए एक खास मात्रा में दबाव की ज़रूरत होती है। अगर आप बहुत ऊंचे पहुंच जायें और दबाव घट जाये तो एक पल ऐसा आयेगा कि आपका शरीर टूट कर बिखर जायेगा। फिलहाल आपके आकार को बनाये रखने के लिए हर चीज़ आपको सहारा दे रही है। इसलिए आपकी यह सोच कि आप विशिष्ट और सबसे अलग हैं बिलकुल बेतुकी है। वैसे पूरी दुनिया या कम-से-कम इस धरती की व्यवसायिक ताकतें आपको लगातार यही बता रही हैं कि आप सबसे अलग हैं। डराने-धमकाने, धौंस दिखाने की वारदातें सिर्फ इसलिए नहीं होतीं क्योंकि कोई बुरा है। जब खुद को सबसे अलग समझने की सोच फलती-फूलती है तो दबंगई सहज ही जगह बना लेती है। समावेशी होना ही इसका समाधान है। समावेशी होने का यह अर्थ नहीं कि “मैं तुमसे प्रेम करता हूं, तुम मुझसे।” इसको समझने के लिए आपको साफ तौर पर सिर्फ यह देखना होगा, बल्कि इस बात का अनुभव करना होगा कि ज़िंदगी सबको समा लेने वाली प्रक्रिया है। अस्तित्व में बने रहने का और कोई तरीका है ही नहीं।

 

Pimkie