बच्चों में उत्सुकता व जिज्ञासा कैसे बढ़ायें?
कई पुरस्कारों के विजेता और जाने-माने फ़िल्म अभिनेता अनुपम खेर के साथ इस दिलचस्प चर्चा में सद्गुरु बात कर रहे हैं कि जो उत्सुकता और जिज्ञासा का भाव पहले सभी बच्चों में सामान्य रूप में दिखता था, वो अब, आजकल के बच्चों में तेजी से गायब हो रहा है।
अनुपम खेर: Aजब मैं बच्चा था तो मेरे मन में हरेक चीज़ के लिये बहुत ही उत्सुकता और जिज्ञासा का भाव रहता था। वैसी बात मुझे आजकल के बच्चों में दिखाई नहीं पड़ती।
सद्गुरु: ऐसा इसलिये है कि वन्डर(आश्चर्य) की जगह डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू (इंटरनेट) ने ले ली है। ये बच्चे 6 साल के होते-होते सारे ब्रह्मांड को जान लेते हैं।
अनुपम खेर: यही मैं भी कह रहा था - वे सब कुछ जानते हैं। उन्हें बस गूगल पर ढूंढना होता है और सारी जानकारी मिल जाती है। पर जानकारी सही तौर पर ज्ञान दे - यह ज़रूरी नहीं है। खैर, हम फिर से मेरे सवाल की ओर चलें- आज के समय में हम कैसे सुनिश्चित करें कि उनमें भोलापन और उत्सुकता बनी रहे?
सद्गुरु: देखिये, उत्सुकता और भोलापन ये दो अलग-अलग बातें हैं। उत्सुकता कोई भोलेपन में से पैदा नहीं होती। उदाहरण के लिये, आधुनिक विज्ञान ने अद्भुत खोजें की हैं। वे उन सभी तरह की चीज़ों में गये हैं जो हमें कभी संभव नहीं लगती थीं। आप जब बच्चे थे तो निश्चित रूप से आकाश की तरफ देखते थे, है कि नहीं।
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अनुपम खेर: बिल्कुल!
सद्गुरु: बचपन में, मैं छत पर बैठ कर आकाश को अलग-अलग भागों में बाँट लेता था, और फिर बहुत ध्यान से तारों को गिनता था - मैंने एक बार 1700 तक तारे गिने थे - और फिर सब गड़बड़ हो जाती थी। उस समय जो कुछ था, वो अब नहीं रह गया है, जो नहीं था वो आ गया है। इतना गिनना ही अपने आप में बहुत बड़ा आश्चर्य था - 1700 - इस संख्या ने मेरा दिमाग ही उड़ा दिया था। वैज्ञानिक अब हमें बताते हैं कि वहाँ 10,000 करोड़ से भी ज्यादा आकाशगंगायें हैं, तारे नहीं, 10,000 करोड़ से भी ज्यादा गेलेक्सीज़! जैसे-जैसे आप खोजते हैं, जानते हैं, आपका आश्चर्य बढ़ता जाता है क्योंकि आपको अस्तित्व के स्वभाव का पता लगता है। वैज्ञानिक इतनी ज्यादा उलझन में हैं कि उन्हें समझ नहीं आ रहा कि कौन सी दिशा में जायें, क्योंकि जहाँ भी वे देखते हैं वहाँ पहले से कहीं ज्यादा गहराई दिखाई पड़ती है। क्या आप जानते हैं - सिर्फ आपके चेहरे की त्वचा पर अभी ही करोड़ों जीवाणु हैं। हम जीवन को जितना करीब से देखेंगे, आप में बस आश्चर्य का विस्फोट होगा।
अब उत्सुकता चली गई है, वो भोलापन होने या न होने से नहीं, पर इस वजह से कि आजकल हम जिसे ज्ञान कहते हैं, वो जीवन के बारे में बस हमारे मूर्खतापूर्ण निष्कर्ष हैं। आजकल लोग अपनी ध्यान ना देने पाने की कमी को किसी गुण की तरह पेश करते हैं, जैसे कि ये कोई बहुत अच्छी बात हो। इस अस्तित्व में आप कुछ भी तभी जान पायेंगे जब आप उसकी तरफ बहुत ज्यादा मात्रा में ध्यान देंगे। पर, लोग ऐसे हो गये हैं कि वे किसी भी चीज़ की ओर ध्यान नहीं दे सकते। ऐसी अवस्था में आपके लिये कोई आश्चर्य नहीं होगा, सिर्फ निष्कर्ष ही होंगे। आपके दिमाग में बस अपने ही संवाद चलते हैं। कोई समझ नहीं होती। अगर सच्ची समझ हो तो आपके दिमाग में जो सारा शोर है, वो रुक जायेगा। अगर आप किसी सुंदर और दिलचस्प चीज़ को ध्यान से देखते हैं, तो सबकुछ रुक जाता है।
यही कारण है कि लोगों को सिनेमा में बहुत मजा आता है। बत्तियाँ बुझी होती हैं, और उन 90 मिनटों के लिये उनका पूरा ध्यान फ़िल्म पर होता है। उनके अंदर के संवाद पूरी तरह से बंद हो जाते हैं - क्योंकि अब कुछ और हो रहा है। उनको पता नहीं होता कि आगे क्या होने वाला है और यही बात उनका ध्यान बनाये रखती है। पर, महत्वपूर्ण बात ये है कि लगातार उनका ध्यान बना रहता है, जिससे उन्हें लगता है कि आज उनके साथ कुछ अलग हुआ है - आज वे सिनेमा हॉल गये हैं। अगर आप बत्तियाँ जलाये रखें तो आप देखेंगे कि सिनेमा उतना प्रभावशाली नहीं रहेगा या अगर उनके साथ कोई लगातार बातचीत कर रहा है तो भी ये उतना प्रभावशाली नहीं रहेगा। तो सारा अंतर जो है वह ‘ध्यान’ देने की वजह से है, पर्दे पर जो हो रहा है, उसकी वजह से नहीं। पर्दे पर जो हो रहा है वो उनका ध्यान बनाये रखने का मुख्य कारण तो है, पर लगातार ध्यान बनाये रखना अनुभव को वैसा बनाता है, जैसा वो है। ये ध्यान का एक सामान्य प्रकार है जिसे हम धारणा कहते हैं।
कोई अपने ध्यान को ज्यादा गहरा कैसे बना सकता है?
अनुपम खेर: तो आज के समय में कोई किस तरह से ध्यान को लगातार बनाये रख सकता है?
सद्गुरु: हरेक को अपने बारे में कुछ करना चाहिये। हर स्कूल को एक ऐसा आयाम लाना चाहिये जिसमें बच्चों को लगातार कुछ समय तक किसी चीज़ पर ध्यान देना पड़े। ये संगीत भी हो सकता है, नृत्य भी। आप अगर पूरा ध्यान नहीं देते तो संगीत या नृत्य नहीं कर सकते। पर, ध्यान दिये बिना कोई परीक्षा पास कर सकते हैं। क्या आप जानते हैं, हमारा एक ईशा होम स्कूल है जो बाकी के ज्यादातर स्कूलों की तुलना में बहुत अलग तरीके से चलाया जाता है। एक दिन मैं उनके असेम्बली हॉल में गया और मैंने देखा कि वे सब, छह - साढ़े छह साल के बच्चे एक जगह पर शांति से बैठ भी नहीं पा रहे थे। तो, मैंने वहाँ ये, एक सरल सी चीज़ लागू कराई। रोज़ सुबह हरेक को, 15 मिनट तक सा रे ग म प ध नी सा गाना होगा। बस दो महीनों बाद वे सब स्थिर बैठे हुये थे। तो बस, ऐसा ही कुछ करना है।
Iअगर आप उन्हें जंगल में, अंधेरे में चलायें तो आप देखेंगे कि ध्यान देने की और आश्चर्यबोध की उनकी योग्यता यकायक बढ़ जायेगी। अगर आप उन्हें किसी सुरक्षित जगह पर एक रात के लिये ही बिना टॉर्च के, बिना किसी रोशनी के, बिना सेल फोन के ले जायें तो केवल एक रात में ही उनके आश्चर्यबोध में जबर्दस्त बदलाव होगा पर आजकल हम उन्हें इन चीजों के लिये शारीरिक रूप से नाकाबिल बना रहे हैं। बस कम्प्यूटर के सामने बैठे रहने से वे शारीरिक रूप से अयोग्य ही बन रहे हैं जब उन्हें कुछ भी शारीरिक परेशानी होगी, कोई चोट पहुँचेगी तो वे बस विरोध करेंगे, और कुछ नहीं कर पायेंगे। ये कुछ ऐसा है, जिसकी माता पिता को चिंता करनी चाहिये, इस पर ध्यान देना चाहिये। अपने बच्चे को पालने, उसे बड़ा करने का मतलब उसे बस स्कूल भेजना नहीं है कि वो बस अच्छे नंबर और बाक़ी सब बकवास पाये। बच्चे को अपने शरीर और मन की योग्यताओं का पूरा विकास करना चाहिये। बस, तभी उनके जीवन में सफलता अभिव्यक्त होगी। सिर्फ परीक्षा में मिले अंकों से उनकी सफलता व्यक्त नहीं होगी।