भारत के जल संकट के 3 कारण
भारत के सामने विशाल जल संकट खड़ा है। बरसात के मौसम में बाढ़ आ रही है, और बरसात के बाद सूखा पड़ रहा है। सदगुरु इस संकट के तीन कारण बता रहे हैं, और उससे निपटने के उपाय भी।
#1 अकुशल खेती
सदगुरु: भारत में 50% से ज्यादा ज़मीन पर खेती होती है। इसका अर्थ ये है कि हम 50% से ज्यादा ज़मीन को लगातार जोत रहे हैं, लेकिन यदि हम खेती में ज्यादा वैज्ञानिक प्रक्रियायें लाएं, तो केवल 30% ज़मीन ही सारे भारतीयों को खिलाने के लिये पर्याप्त है।
तस्वीर श्रेय: पिक्साबे से नंदु कुमार
यह संस्कृति खास तौर पर कर्नाटक में थी कि उन पेड़ों को वे अपने बेटों, बेटियों के नाम दे देते थे। जब एक बेटी के विवाह का अवसर आता था तो वे एक पेड़ काट डालते और उससे सारा खर्च निकल जाता था।
अभी हम जिस ढंग से खेती कर रहे हैं वह पिछले 1000 साल से वैसा ही है, कुछ भी नहीं बदला। ये बहुत ही अकुशल ढंग से की जा रही है। उदाहरण के लिये, भारत में 1 किग्रा चावल उगाने के लिये 3500 लीटर पानी खर्च होता है। चीन में इससे आधे में काम चल जाता है और उनकी उत्पादकता हमारी उत्पादकता से दो गुनी है। हमें अपनी खेती में आधुनिक विज्ञान का ज्यादा उपयोग करना चाहिये। हमारे विश्वविद्यालयों में बहुत सारे वैज्ञानिक हैं, बहुत ज्ञान उपलब्ध है, बहुत तकनीकें हैं लेकिन वह खेती की ज़मीन तक नहीं पहुँच रहा।
रैली फ़ॉर रिवर्स के दौरान हमनें तीन वियतनामी विशेषज्ञों को बुलाया था क्योंकि वियतनाम फलों का एक बड़ा निर्यातक देश है। जब हमनें उनसे बात करनी शुरू की तो वे हम पर हँस रहे थे। उन्होंने कहा, "22 साल पहले, हम तीनों दिल्ली के एग्रीकल्चर कॉलेज में पढ़ते थे। हमनें वहाँ से सब कुछ सीखा और वो सारी बातें हमनें अपनी ज़मीन पर आज़मायीं। आप के पास सब ज्ञान है पर आप लोग बस रिसर्च पेपर लिखते हैं और अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में जाते हैं। आप वो चीजें ज़मीन पर नहीं करते। यही आप की समस्या है"।
इसीलिये हम तमिलनाडु एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी और कोयम्बटूर के फारेस्ट कॉलेज के साथ मिल कर काम कर रहे हैं, जिससे हमारे विश्वविद्यालयों में उपलब्ध ज्ञान, तकनीकी जानकारी का इस्तेमाल खेती की जमीनों पर किया जा सके।
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#2 पेड़ों की कमी
चित्र श्रेय: फार्मिंग इंडिया रामकुमार राधाकृष्णन, विकिपीडिया
40 साल पहले, मैं जब एक फ़ार्म में रहता था, तो देखता था कि सभी किसानों के खेतों में कुछ पेड़ ज़रूर होते थे। ये किसान के लिये एक तरह से बीमे जैसा था। यह संस्कृति खास तौर पर कर्नाटक में थी कि उन पेड़ों को वे अपने बेटों, बेटियों के नाम दे देते थे। जब एक बेटी के विवाह का अवसर आता था तो वे एक पेड़ काट डालते और उससे सारा खर्च निकल जाता था। अगर बेटे को उच्च शिक्षा के लिये यूनिवर्सिटी जाना होता तो एक और पेड़ से उसका भी खर्च निकल आता।
खेतों पर हमेशा पेड़ होते ही थे। लेकिन 40 साल पहले रासायनिक खादों की कंपनियों ने भारत के गाँवों में ऐसा प्रचार करना शुरू किया कि अगर आप खेतों पर पेड़ रखेंगे तो उनकी जड़ें सब खाद खा जायेंगी और फसल कमज़ोर होगी। तो उन्होंने किसानों को पेड़ काट डालने के लिये तैयार किया। ये सोच कर कि रासायनिक खादें पेड़ों पर व्यर्थ हो जायेंगी, हमने लाखों पेड़ काट दिए।
आज परिस्थिति ये हो गयी है कि हमारा पानी का प्रत्येक स्रोत - चाहे ज़मीन के नीचे का पानी हो या नदियों का - कम हो रहा है। उसका कारण ये है कि भले ही पिछले 100 सालों से, सारे उपमहाद्वीप में, बरसात लगभग एक जैसी ही हो रही है, पर पेड़ों के न रहने से ज़मीन के अंदर पानी को रोक कर रखने की हमारी क्षमता समाप्त हो गयी है। जब बरसात होती है तो पानी रुकता नहीं, बह जाता है और बाढ़ आ जाती है। और फिर जब बरसात ख़त्म हो जाती है तो सूखा पड़ जाता है।
यदि आप आज के जल संकट के बारे में विचार करें तो 1947 में, देश में प्रति व्यक्ति जितना पानी था, आज उसका 25% ही उपलब्ध है। यह प्रगति नहीं है। यह तो कोई विकास नहीं है। तमिलनाडु के कई शहरों में बहुत समय से ऐसा हो रहा है कि लोग तीन दिनों में एक ही बार नहाते हैं।
तो हमें यह सुनिश्चित करना चाहिये कि सारा पानी बह कर तेजी से नदियों में न पहुंच जाये। यह करने का एक ही रास्ता है कि हमारी ज़मीन पर ज्यादा से ज्यादा पेड़ हों। यह कोई रॉकेट विज्ञान नहीं है। यह मेरा मुख्य उद्देश्य हो गया है। मैं सारे विश्व को, संयुक्त राष्ट्र संघ को, केंद्र सरकार को, राज्य सरकारों को यही कह रहा हूँ। बड़े बाँध, रोधी बाँध, बराज ये सब पानी के उपयोग के लिये ठीक हैं पर आप इनसे पानी की मात्रा नहीं बढ़ा सकते। ज़मीन के अंदर पानी को रोकने का सिर्फ एक ही तरीका है - पेड़ लगाना।
इसीलिये, हमनें कावेरी पुकारे अभियान शुरू किया है। हम पूरी कावेरी घाटी में, वृक्ष आधारित खेती को बढ़ावा दे कर, किसानों को उनके खेतों में 242 करोड़ पेड़ लगाने में मदद कर रहे हैं। कावेरी एक पहला कदम है। अगर हम ये काम कावेरी घाटी में 12 वर्ष में सफलतापूर्वक कर लेते हैं, तो ये राष्ट्र के लिये और विश्व के उष्ण कटिबंधीय इलाकों के लिये एक क्रांतिकारी कदम सिद्ध होगा।
#3बढ़ती जनसंख्या
तस्वीर श्रेय: आबादी की समस्या, साद अख्तर, Flickr
हम जो भी संकट झेल रहे हैं - चाहे वो पर्यावरण हो या पानी या अन्य मुद्दे - इन समस्याओं के पीछे जितने भी कारण हैं, उनमें से एक बड़ा कारण है, मनुष्यों द्वारा गैर जिम्मेदार ढंग से बच्चे पैदा करना। भारत में 130 करोड़ लोग हैं - हमारे पास जमीन, नदियाँ, पहाड़ या आसमान का टुकड़ा भी इन 130 करोड़ लोगों के लिये पर्याप्त मात्रा में नहीं है।
यदि आप आज के जल संकट के बारे में विचार करें तो 1947 में, देश में प्रति व्यक्ति जितना पानी था, आज उसका 25% ही उपलब्ध है। यह प्रगति नहीं है। यह विकास नहीं है। तमिलनाडु के कई शहरों में ऐसा होने लगा है कि लोग तीन दिनों में एक ही बार नहाते हैं।
हमारी संस्कृति ऐसी है कि चाहे कुछ भी हो, चाहे आप भोजन न करें, पर आप स्नान अवश्य करते हैं। ये हमारी जलवायु की माँग है। लेकिन अब लोग रोज नहीं नहा पा रहे हैं। ये कोई विकास या खुशहाली की बात नहीं है। अगर यही स्थिति रही तो ऐसा समय भी आ सकता है जब आप को पानी एक दिन छोड़ कर पीना पड़ेगा!
हमने मृत्यु को संभाल लिया है पर जन्म की ओर ध्यान नहीं दिया। या तो हम जागरूकतापूर्वक अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण करें या फिर प्रकृति बहुत ही निर्दयी ढंग से ये करेगी - चुनाव हमारा है।
मनुष्य होने का मूल यही है कि हम होशपूर्वक काम करें। मुझे लगता है, अगर हम मनुष्य हैं तो हमें ये जागरूकता से करना चाहिये और अपने आप को किसी भी खराब परिस्थिति से बचाना चाहिये।