अपने जीवन को 'देने' की प्रक्रिया बना लें
इस ब्लॉग में सद्गुरु कहते हैं कि अपने जीवन को देने की प्रक्रिया बना लें, और ऐसे जीएं कि आप खुद को हर पल अर्पित कर रहे हों। ऐसा करके आप खुद को विसर्जित कर सकते हैं।
इस ब्लॉग में सद्गुरु जीवन की सम्पूर्णता को अनुभव करने एक आसान तरीका बता रहे हैं। वे कहते हैं कि अपने जीवन को देने की एक प्रक्रिया बना लें, और ऐसे जीएं कि आप खुद को हर पल अर्पित कर रहे हों। ऐसा करके आप खुद को विसर्जित कर सकते हैं...
इस धरती पर मानव-जीवन को बदल देने वाले महान आंदोलन, क्रांतियां और असाधारण बातें इसलिए नहीं हुईं कि कोई स्वर्ग से तुफान सा आया और ये सब हो गया। जब उन चीज़ों पर जरुरी ध्यान दिया गया, थोड़े से लोगों द्वारा छोटी-छोटी बातों को ध्यान से किया गया, तो वही चीज एक असाधारण प्रक्रिया में बदल गई।
अगर आप पर्याप्त ध्यान और ऊर्जा लगाएं, तो एक इंसान के ह्रदय में उठने वाले भाव व विचार सारे संसार को प्रेरित कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, महात्मा गांधी ने बस थोड़े से लोगों के साथ अपना आंदोलन को शुरु किया। देखते ही देखते वे मुट्ठी भर लोग लाखों लोगों में बदल गए और यह एक महान आंदोलन बन गया।
अगर आप छोटी बातों पर फोकस करते हुए जरुरी ध्यान व ऊर्जा लगाते हैं, तो यही एक तूफान में बदल सकता है। लेकिन अक्सर होता यह है कि लोग किसी काम के लिए ऐसा जुनून नहीं दिखाते जो हमेशा बना रहे। वे रुक-रुक कर ध्यान देते हैं, जिससे उस काम को वह गति नहीं मिल पाती है। लेकिन अगर आप केवल एक विचार या भाव पर भी पूरा ध्यान दें, तो यह एक व्यक्ति और समाज के लिए असाधारण प्रक्रिया बन सकती है।
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जीवन के प्रति कंजूसी
अधिकतर इंसान एक औसत दर्जे का या साधारण जीवन जी रहे हैं, उसका एक कारण है, वे हर चीज़ के बारे में बहुत कंजूस हैं।
एक बार ऐसा हुआ कि शंकरन पिल्लै के घर में आग लगी। वह इतना कंजूस था कि उसने फायर स्टेशन को बस दो मिस्ड काॅल की।
मैंने पाया कि लोग मेरे साथ भी ऐसा करते हैं। यह किसी का डर नहीं है, जो उसे एक सीमा में रोक रहा है। ऐसा नहीं कि कुछ आपको निगल लेगा। यह कैलकुलेशन या हिसाब-किताब है जो आपको रोक रहा है। एक कंजूस आदमी का हिसाब-किताब कभी खत्म नहीं होता, वह लगातार चलता जाता है। उसके पास अगर एक फल होगा, तो उसके लाखों हिस्से करेगा, और तब कहीं जा कर किसी को वह एक हिस्सा देगा। ऐसा करने में भले ही उसका आधा जीवन क्यों न लगे। यही तो हो रहा है। लोग थोड़ा सा देने में सारा जीवन लगा देते हैं। इसी वजह से कुछ घटित नहीं होता। आप किसी आश्रम में जाइए, किसी गुरु से भेंट कीजिए, किसी मंदिर में जाइए या अनुष्ठान कीजिए या फिर सिर के बल खड़े हो जाइए, या ध्यान कीजिए - कुछ नहीं घटित होता, क्योंकि आप बहुत कंजूस हैं। आप खुद को पूरा किसी को नहीं दे सकते - यही समस्या है। यह पूरा जीवन केवल संपूर्णता के बीच घटित होता है। जो पूरी तरह से देगा, वही जीवन को उसकी संपूर्णता में जानेगा। दूसरे नहीं जान पाएंगे।
हिसाब-किताब का नतीजा
जब लोगों को कुछ पाना हो तो वे सारे तर्क भुला देते हैं, और जब कुछ देने की बारी आती है तो वे पूरी तरह तार्किक हो जाते हैं। यही हिसाब-किताब तो मानवता के प्राण ले रहा है।
लोग अक्सर मुझसे यह सवाल करते हैं, ‘हम सभी एक स्रोत से हैं। फिर ऐसा क्यों होता है कि हममें से एक फलता-फूलता है और दूसरा वैसे ही रह जाता है?’ ऐसा इसलिए है क्योंकि वे भविष्य के लिए बचत कर रहे हैं। यह कुछ ऐसा ही है जैसे एक कुत्ता बेसुध होकर खाने की हड्डी यहां-वहां रख कर भूल गया हो। लोगों ने उस अद्भुत प्रकृति को अपने भीतर कहीं गहराई में, भविष्य के लिए छिपा दिया, क्योंकि वे स्वर्ग में जा रहे हैं और वहां उन्हें अपने उस स्नेह व आनंद के साथ जीना है।
जहाज को समंदर में उतारना होगा
एक जहाज बंदरगाह में सबसे ज्यादा सुरक्षित रहता है, लेकिन इसे वहां रखने के लिए तो नहीं बनाया गया। इसे समंदर में उतारने के लिए बनाया गया था।
गौतम बुद्ध की एक कहानी है। एक सच्ची घटना नहीं, एक कहानी है। कहते हैं कि गौतम बुद्ध ने जब निर्वाण हासिल कर लिया और परम मुक्ति के द्वार की ओर चले तो द्वार की ओर उनका मुख नहीं बल्कि पीठ थी। उनसे पूछा गया, ‘बुद्ध! जीवन भर आपकी यही समस्या रही। संसार में सभी राजा बनना चाहते हैं, धन कमा कर महल में रहना चाहते हैं। वहां भी आप उल्टी दिशा में गए। राजा से रंक हो गए। महल से गरीबी तक आ गए। वहाँ भी आपकी गाड़ी पीछे की ओर जा रही थी। अब जबकि आप किसी तरह अच्छा कर यहां तक पहुंच गए हैं, हमने आपके लिए द्वार भी खोल दिया है, तो आप वही विपरीत चाल चल रहे हैं?’ गौतम बोले, ‘मैं भीतर जाना नहीं चाहता इसलिए उस ओर पीठ कर रखी है। मैं प्रतीक्षा में हूं कि मुझसे पहले सभी इसे पार कर लें। मुझे कोई जल्दी नहीं है। अगर मैं दूसरे लोगों से थोड़ा पहले भीतर प्रवेश कर गया, तो यह मेरी ओर से थोड़ा कुरुचिपूर्ण या सुंदर नहीं होगा।’
देने में खुद को विलीन कर दीजिए
लोग अक्सर अपने दिल और दिमाग की कंजूसी से अपना ध्यान हटाने के लिए फटाफट साॅल्यूशन चाहते हैं। पिछले चौबीस घंटों के दौरान आपमें से कितने लोग किसी को देख कर इस तरह मुस्कुराए कि आपकी आंखों से पानी आ गया? मुस्कुराने में कंजूसी क्यों?
हिसाब-किताब के साथ विलय या विसर्जन संभव नहीं है। यह अर्पण करने या देने से ही संभव होगा - आपको अपने जीवन का हर पल देना होगा। बस देने की एक प्रक्रिया बनना होगा। अगर ऐसा न हुआ, तो आपका विलय या विसर्जन नहीं होगा। अगर आप विलीन नहीं होंगे तो समाधान भी नहीं पाएंगे।
मैं चाहता हूं कि आप इसे आजमाएं। अगले चौबीस घंटों के दौरान, खुद को पूरी तरह से देने या अर्पित करने का अनुभव कम से कम एक पल के लिए कीजिए। कुछ इस तरह दीजिए कि आपके भीतर का सबकुछ पिघल जाए। चौबीस घंटों में बस देने का एक पल - क्या आप ऐसा कर सकते हैं?