प्रश्न : सद्‌गुरु : ध्यान के प्रति पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध कर लिया है तो उस व्यक्ति को कैसे पता चलेगा कि कब चीजें सही दिशा में जा रही हैं ? क्या ये शारीरिक या मानसिक स्तर पर व्यक्त होता है?

सद्‌गुरु शारीरिक बदलाव शायद हमेशा ज्यादा स्पष्ट रूप में दिखते हैं। ध्यान से कई शारीरिक और मानसिक बदलाव आते हैं, तथा दूसरे कई अन्य बदलाव आते जो शारीरिक और मानसिक अभिव्यक्तियों से परे हैं। इन सब बातों पर प्रश्न उठाये जा सकते हैं पर किसके द्वारा ? उन्हीं लोगों के द्वारा जो सिर्फ शारीरिक और मानसिक स्तर की बातें ही समझते हैं, वे लोग जो मशीनों पर ज्यादा विश्वास रखते हैं, जो ये सोचते हैं कि मशीनों को बनाने वाले मनुष्यों की तुलना में मशीनें ज्यादा भरोसेमंद हैं। उस तरह के लोग हमेशा ऐसे सवाल उठाते रहते हैं।

मृत या दिमागी तौर पर मृत?

कई वर्षों पहले की एक बात मैं आप को बताना चाहूंगा। मैं एक जगह गया था जहाँ योग और योगियों पर सभी प्रकार के प्रयोग किये जा रहे थे। उन्हें लगा कि प्रयोग करने के लिये मैं एक अच्छा साधन था, किसी ऐसे जानवर जैसा जिस पर आम तौर पर प्रयोग किए जाते हैं। सामान्य रूप से मैं अपने आप को ऐसी बेहूदगियों में नहीं फँसने देता पर उस समय मुझे उनके लिये कुछ करना था, इसलिए मैं तैयार हो गया।

मेरे शरीर के अलग अलग भागों पर, खास तौर पर सिर के भाग में, 14 से भी ज्यादा इलेक्ट्रोड्स लगाये और फिर मुझे बोले, "अब आप ध्यान कीजिये"! मैंने कहा, "मैं कोई ध्यान नहीं जानता"। वे बोले, "नहीं, नहीं, आप तो हर किसी को ध्यान सिखाते हैं"। मैंने जवाब दिया, "मैं लोगों को ध्यान सिखाता हूँ क्योंकि वे एक स्थान पर स्थिर नहीं बैठ पाते।

उन्होंने मुझे बताया कि वे मेरे दिमाग में गामा तरंगों पर परीक्षण करना चाहते हैं। मुझे मालूम भी नहीं था कि मेरे दिमाग में ऐसी तरंगें भी थीं। मेरे शरीर के अलग अलग भागों पर, खास तौर पर सिर के भाग में, 14 इलेक्ट्रोड्स लगाये और फिर मुझे बोले, "अब आप ध्यान कीजिये"! मैंने कहा, "मैं कोई ध्यान नहीं जानता"। वे बोले, "नहीं, नहीं, आप तो हर किसी को ध्यान सिखाते हैं"। मैंने जवाब दिया, "मैं लोगों को ध्यान सिखाता हूँ क्योंकि वे एक स्थान पर स्थिर नहीं बैठ पाते। तो उन्हें बैठाये रखने के लिये मुझे उनको कुछ सिखाना पड़ता है"। तो वे बोले, "ठीक है, तो बताईये, आप क्या कर सकते हैं" ? मैंने कहा, " अगर आप कहें तो मैं बस स्थिर बैठा रहूँगा"। तब उन्होंने कहा, "ठीक है, वैसा ही कीजिये"। तो मैं बैठ गया। 

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लगभग 15 से 20 मिनट बाद, मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मेरे घुटनों पर धातु की किसी चीज़ से मार रहा था। फिर उन्होंने मेरी कोहनियों और टखनों पर मारना शुरू किया – सभी ऐसी जगहों पर जहाँ सबसे ज्यादा दर्द होता है। मैं नहीं जानता था कि उन्हें मेरे जोड़ों में क्या रुचि थी ? ये लगातार होता रहा और फिर उन्होंने मेरी पीठ पर मारना शुरू किया। मेरी रीढ़ अत्यधिक संवेदनशील है और जब वे मेरी पीठ पर मारने लगे तो मुझे लगा कि अब मुझे उनको बता देना चाहिये। अगर वे मुझे बाहर लाना चाहते थे तो उनके "बाहर आ जाईये" कहने से मैं एक मिनट का समय ले कर बाहर आ जाता। ये सब करने की क्या ज़रूरत थी ?

जब मैंने आँखें खोलीं तो वे सब मेरी ओर अजीब नज़रों से देख रहे थे। "क्या मैंने कुछ गलत किया" ? मैंने पूछा। वे बोले, "नहीं, पर हमारी मशीन के अनुसार आप मर चुके हैं"। मैंने कहा, "अच्छा ! ये तो बहुत ज़बरदस्त निदान है"। फिर उन्होंने एक दूसरे से विचार विमर्श किया और कहा, "या तो आप मर चुके हैं या आप का दिमाग मर चुका है"। मैं बोला, "ये आप का दूसरा निदान बहुत अपमानजनक है। मैं पहली बात स्वीकार कर लूँगा। आप को जो कहना हो, कहिये। लेकिन मैं ज़िंदा हूँ इसलिए आपके कहने से फर्क नहीं पड़ेगा। पर दिमागी रूप से मृत होने का प्रमाणपत्र कोई अच्छी बात नहीं है"।

शारीरिक रूप से और मानसिक रूप से, आप की ये बढ़ी हुई योग्यता लोगों की भीड़ में भी आप को अलग खड़ा कर देगी, अगर आप क्रियायें पर्याप्त रूप से करें।

 

अगर आप अपने जीवन को इस तरह की टूटी -फूटी जानकारी और आधे-अधूरे ज्ञान के आधार पर देखेंगे तो निश्चित रूप से आप गलत परिणाम निकालेंगे। लेकिन फिर भी ये महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया आजकल ऐसे ही चलती है। चूंकि मैं अपने आप पर ऐसे परीक्षण फिर से नहीं कराना चाहता था तो मैंने अपने कुछ साधकों से उनके दिमाग का परीक्षण कराने को कहा। देश के एक प्रसिद्ध संस्थान में परीक्षण किये गये और उन परीक्षकों को क्या पता चला ? ये कि इन साधकों के दाँये और बाँये दिमाग के बीच एक अदभुत समन्वय(तालमेल) है। उन परीक्षकों ने कहा, "हमने आजतक कभी ऐसा नहीं देखा था"। और ये उन साधकों की स्थिति थी जिन्होंने ये क्रिया बस तीन महीने या उससे थोड़े ही ज्यादा समय तक की थी।

 

दाँये और बाँये दिमाग का सामंजस्य

 

जीवन के संदर्भ में इसका अर्थ ये होता है कि अपनी पाँच ज्ञानेंद्रियों से आप को जो भी जानकारी मिलती है वो सामान्य रूप से बाँये दिमाग में जाती है। जो भी जानकारी आप के शरीर के बाकी भागों से मिलती है, जो तार्किक नहीं होती, जो छोटे छोटे टुकड़ों में नहीं होती, पर जिसमें एकरूपता होती है और जो आप के जीवन के लिये अत्यंत आवश्यक होती है, वो आप के दाँये दिमाग में आती है, जो तार्किक काम नहीं करता। आप शायद इसके प्रति जागरूक न हों पर आप हमेशा इन सूचनाओं का उपयोग करते रहते हैं, वरना आप यहाँ हो ही नहीं सकते। जब तक आप के बाँये और दाँये दिमाग के बीच सक्रिय सामंजस्य(तालमेल) नहीं होता, तब तक आप ये सूचनायें होशपूर्वक प्राप्त नहीं कर सकते।

 

 

जागरूकता के साथ अपने अंदर जीवन के उस भाग तक पहुँच पाना, उस जानकारी और ज्ञान तक सचेत होकर पहुँचने से आप ऐसी ऊंचाई को छू सकते हैं, जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की है। अब तक आप अपने जीवन में जो काम बहुत मेहनत से कर पा रहे थे, वो अब बस ऐसे ही कर सकेंगे। कितने ही लोगों के लिये, उनके जीवन में ध्यान का प्रभाव उनके कार्य में तथा उनके जीवन जीने के ढंग में दिखता है। मैं कहूंगा कि आप अगर एक खास तरह की गतिविधि करते हैं, जैसे कि आजकल के सॉफ्टवेयर इंजीनयर जो काम 30 दिन में करते हैं, क्रिया शुरू करने के 6 महीनों के अंदर, वे उसी काम को एकदम सहजता से, बिना कोई खास प्रयत्न किये, बहुत ही कम समय में कर सकेंगे। हाँ, अगर वे अपने काम को कॉन्ट्रैक्ट के हिसाब से खींचना चाहते हैं तो ये उनका मामला है, उससे मुझे कुछ लेना देना नहीं। दुनिया में काम करने की आप की योग्यता ज़बरदस्त रूप से बेहतर हो जाती है, लगभग सुपर मानव जैसी हो जाती है। शारीरिक रूप से और मानसिक रूप से, आप की ये बढ़ी हुई योग्यता, लोगों की भीड़ में भी आप को अलग खड़ा कर देगी, अगर आप क्रियायें पर्याप्त रूप से करें। यदि स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो कितने ही चिकित्स्कीय संशोधन आज आप को ये बताते हैं कि ये ध्यान आप के लिये जादुई चीजें करता है।

 

असली चीज़ धीरे-धीरे विकसित होती है

 

 

शारीरिक लाभ, स्वास्थ्य संबंधी लाभ, मानसिक क्षमतायें बढ़ना, जीवन को सुगमता से चला पाना, आदि, ये सभी मुख्य लाभ नहीं हैं। जो असली चीज़ है वो धीरे-धीरे विकसित होती है। उसे आप तब ही जानेंगे जब वो खिल जायेगी। तब तक आप को लगेगा कि कुछ भी नहीं हो रहा। ये ऐसा है जैसे कि आप ने अपने घर में फूलों का एक पौधा लगाया है। जैसे जैसे वो बढ़ता है, आप को बस पत्तियाँ आती हुई दिखती हैं, फूल नहीं। आप का पड़ोसी आप से कहता है, "ये बेकार है। आप कह रहे थे कि इसमें फूल आयेंगे पर इसमें तो सिर्फ पत्तियाँ आ रही हैं। बेहतर होगा कि इसे काट डालो और जलाने के काम में ले लो"। आप ने कहा, "हो सकता है, कल सुबह कुछ हो जाये"। फिर अगली सुबह कुछ नहीं होता। आप और प्रतीक्षा करते हैं, अगले दिन, फिर एक और दिन... धीरे-धीरे पूरा साल निकल जाता है, और कई साल। अगर आपको ये पता न होता कि इस पेड़ में फूल आने में कितना समय लगेगा तो आप ने इसे अब तक सैकड़ों बार कटवा दिया होता। लेकिन अगर आप इसका पोषण करते रहे, तो एक दिन, जब इसमें फूल लगेंगे तब ये अपनी पूरी बहार में होगा, तब ही आप समझेंगे कि इस पेड़ में पत्तियाँ महत्व की नहीं थीं, इसकी छाया का भी कोई खास महत्व नहीं था, इसका ऑक्सीजन देना भी उतनी महत्व की बात न थी। असली चीज़ थी ये फूल - आख़िरकार इसमें फूल आ गए और ये अतुलनीय रूप से सुंदर हो गया।