मौनी अमावस्या : मौन में प्रवेश करने का एक अवसर
योगिक परंपरा में कई अवसरों पर मौन-धारण किया जाता है, इनमें से एक है मौनी अमावस्या। क्या है इसका महत्व और कैसे धारण करें मौन बता रहे हैं सद्गुरु:
योगिक परंपरा में कई अवसरों पर मौन-धारण किया जाता है, इनमें से एक है मौनी अमावस्या। क्या है इसका महत्व और कैसे धारण करें मौन बता रहे हैं सदगुरु:
सदगुरु:
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अंग्रेजी शब्द ‘साइलेंस’ बहुत कुछ नहीं बता पाता है। संस्कृत में ‘मौन’ और ‘नि:शब्द’ दो महत्वपूर्ण शब्द हैं। मौन का अर्थ आम भाषा में चुप रहना होता है-यानी आप कुछ बोलते नहीं हैं। ‘नि:शब्द’ का मतलब है जहां शब्द या ध्वनि नहीं है - शरीर, मन और सारी सृष्टि के परे। ध्वनि के परे का मतलब ध्वनि की गैरमौजूदगी नहीं, बल्कि ध्वनि से आगे जाना है।
अंतरतम में मौन ही है
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि पूरा अस्तित्व ही ऊर्जा की एक प्रतिध्वनि या कंपन है। इंसान हर कंपन को ध्वनि के रूप में महसूस कर पाता है। सृष्टि के हर रूप के साथ एक खास ध्वनि जुड़ी होती है। ध्वनियों के इसी जटिल संगम को ही हम सृष्टि के रूप में महसूस कर रहे हैं। सभी ध्वनियों का आधार ‘नि:शब्द’ है। सृष्टि के किसी अंश का सृष्टि के स्रोत में रूपांतरित होने की कोशिश ही मौन है। अनुभव और अस्तित्व की इस निर्गुण, आयामहीन और सीमाहीन अवस्था को पाना ही योग है। नि:शब्द का मतलब है: शून्यता।
ध्वनि सतह पर होती है, मौन अंतरतम में होता है। अंतरतम में ध्वनि बिल्कुल नहीं होती है। ध्वनि की अनुपस्थिति का मतलब कंपन और गूंज, जीवन और मृत्यु, यानी पूरी सृष्टि की अनुपस्थिति। अनुभव में सृष्टि के अनुपस्थित होने का मतलब है – सृष्टि के स्रोत की व्यापक मौजूदगी की ओर बढ़ना। इसलिए, ऐसा स्थान जो सृष्टि के परे हो, ऐसा आयाम जो जीवन और मृत्यु के परे हो, मौन या नि:शब्द कहलाता है। इंसान इसे कर नहीं सकता, इसे सिर्फ हुआ जा सकता है।
मौन का अभ्यास करने और मौन होने में अंतर है। अगर आप किसी चीज का अभ्यास कर रहे हैं, तो निश्चित रूप से आप वह नहीं हैं। अगर आप पूरी जागरूकता के साथ मौन में प्रवेश करने की चेष्टा करते हैं तो आपके मौन होने की संभावना बनती है।
कालचक्र से परे जाने का एक अवसर
मौनी अमावस्या शरद-संक्रांति के बाद की दूसरी या महाशिवरात्रि से पहले की अमावस्या होती है। यह बात हमारे देश के अनपढ़ किसान भी जानते हैं कि अमावस्या के दौरान बीजों का अंकुरण और पौधों का विकास मंद हो जाता है। किसी पौधे के रस को ऊपर तक पहुंचने में बहुत मुश्किल होती है और यही सीधी रीढ़ वाले इंसान के साथ भी होता है। खास तौर पर इन तीन महीनों के दौरान, संक्रांति से लेकर महाशिवरात्रि तक, उत्तरायण के पहले चरण में, 00 से 330 उत्तर तक के अक्षांश में, पूर्णिमा और अमावस्या दोनों का असर बढ़ जाता है।
योगिक परंपराओं में प्रकृति से मिलने वाली इस सहायता का लाभ उठाने के लिए बहुत सी प्रक्रियाएं हैं। इनमें से एक है, मौनी अमावस्या से लेकर महाशिवरात्रि तक मौन रखना। उस साल इसका महत्व बढ़ जाता है जब यह बारह वर्ष के सौर-चक्र को पूरा कर रहा हो और तब सभी जल राशियों और जल के भंवरों पर इसका काफी प्रभाव होता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा शरीर हमारे लिए सबसे घनिष्ठ और आत्मीय जल-भंडार है, क्योंकि इसमें 70 फीसदी पानी है।
इंसानी अनुभव में समय की धारणा बुनियादी रूप से सूर्य और चंद्रमा की गति से ही आए हैं। यह चुनाव हमें खुद करना है कि हम काल-चक्र की सवारी करें या काल के अंतहीन चक्रों में फंसे रहें। यह समय और यह दिन सबके परे जाने का एक अनुपम अवसर प्रदान करता है।