शिव की तीसरी आँख की कहानी और उसका महत्त्व
शिव ने अपनी तीसरी आँख से अपने कर्मों को कैसे जलाया, इसकी कहानी सुनाते हुए, यहाँ सदगुरु शिव की तीसरी आँख के संकेत को स्पष्ट कर रहे हैं और बता रहे हैं कि कैसे, इसके खुलने पर सब कुछ साफ समझ में आता है और अनुभव बढ़ते हैं।
जब शिव ने अपनी तीसरी आँख खोली
सद्गुरु:शिव ने अपनी तीसरी आँख कैसे खोली, इसकी एक कहानी है। भारत में प्रेम और वासना के देवता को कामदेव कहते हैं। काम का अर्थ है, जबर्दस्त इच्छा, वासना। वासना एक ऐसी चीज़ है, जिसके बारे में लोग सीधे सीधे बात करना नहीं चाहते। वे इसे किसी और, सुंदर रूप में बताना चाहते हैं, तो प्रेम का नाम दे देते हैं। कहानी कहती है कि कामदेव ने एक पेड़ के पीछे छुप कर शिव के हृदय पर बाण छोड़ा। शिव थोड़ा अशांत हो गये। उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोली जो थोड़ी तेज़ है, गुस्से वाली है। इससे उन्होंने काम को जला कर राख डाला। आम तौर पर, यही कहानी हर किसी को सुनायी जाती है।पर, ज़रा आप अपने आप से पूछिये ! आपकी वासना आपके अंदर जगती है या किसी पेड़ के पीछे ? सही तो यही है कि ये आपके अंदर ही जगती है। वासना सिर्फ वही नहीं है जो स्त्री/पुरुष के लिये हो। हर इच्छा वासना ही है, चाहे वो शारीरक संबंध की हो या सत्ता की या फिर पद - हैसियत की या कोई और। मूल रूप से, वासना का मतलब यही है कि आपके अंदर अधूरेपन का एक अहसास है, किसी चीज़ के लिये जबर्दस्त इच्छा है, जिसके कारण आपको लगता है, "अगर मेरे पास वो नहीं है तो मैं अधूरा हूँ, मुझे वो किसी भी तरह से चाहिये ही है"।
शिव की तीसरी आँख : यौगिक पहलू
इस आधार पर शिव और काम की कहानी का एक यौगिक पहलू भी है। शिव योग के लिये प्रयास कर रहे थे, जिसका मतलब ये है कि वे सिर्फ पूरा होने का ही नहीं, बल्कि असीमित होने का भी प्रयास कर रहे थे। जब उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोली तो काम के रूप में, अपनी खुद की वासना को देखा और उसे जला डाला। इसके कारण उनके शरीर में से धीरे धीरे राख बाहर निकली। इससे यह पता चलता है कि उन्होंने अपने अंदर उस पहलू का अनुभव किया जो भौतिकता से परे है। इससे उनकी शारीरिक मजबूरियाँ बाकी न रहीं।
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शिव की तीसरी आँख क्या है ?
तीसरी आँख का मतलब है वो आँख जो सब कुछ देख सकती है, पर जो भौतिक रूप में नहीं है। आप जब अपने हाथ पर नज़र डालते हैं तो उसे देख सकते हैं क्योंकि ये रोशनी को रोकता है और वापस भेजता है। आप हवा को नहीं देख पाते क्योंकि वो रोशनी को नहीं रोकती, पर, अगर हवा में थोड़ा धुआँ हो तो आप उसे देख सकेंगे क्योंकि आप वही देख सकते हैं जो रोशनी को अपने में से हो कर गुज़रने न दे, रोक ले। आप वो चीज़ नहीं देख सकते जो रोशनी को अपने में से हो कर गुज़रने देती है। देखने का काम करने वाली हमारी दो आँखों का यही स्वभाव है क्योंकि वे सब कुछ स्वीकार कर लेती हैं।.
हमारी ये ग्रहणशील आँखें बाहर की ओर ही देखती रहती हैं। तीसरी आँख आपका और आपके अस्तित्व का स्वभाव जानने के लिये, आपके अंदर देखने के लिये है। ये कोई माथे पर लगा हुआ एक और अंग नहीं है, न ही माथे पर पड़ी हुई कोई दरार है। अनुभव करने का वो आयाम, जिससे आप भौतिकता से परे की चीज़ों का अनुभव कर सकें, उसी को हम तीसरी आँख कहते हैं।
जीवन को तीसरी आँख से देखना
एक और पहलू ये है कि हमारी ग्रहणशील, भौतिक आँखों पर कर्म का असर होता है। कर्म का अर्थ है हमारे पिछले कामों की बची हुई यादें। हर वो चीज़ जो आप इन आँखों से देखते हैं, उस पर कर्म का असर होता है। आप इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते। किसी को देखने पर आप सोचेंगे, "वो बढ़िया है, वो बढ़िया नहीं है, वो अच्छा है, वो खराब है...."। आप किसी चीज़ को उस तरह नहीं देख पायेंगे जैसी वह है क्योंकि कर्मों की यादें आपकी नज़र पर और आपकी देखने की योग्यता पर असर डालती हैं। ये आपको सिर्फ उसी तरह सब कुछ दिखायेंगी जैसे आपके कर्म हैं, जैसी आपकी पिछली यादें हैं।
जो जैसा है, उसे अगर वैसा ही देखना है तो एक ज्यादा गहरी समझ, ज्यादा गहरी पहुँच वाली आँख को खोलना पड़ेगा जिस पर यादों की धूल न छायी हुई हो। हमारी परंपराओं में, भारत में, जानने का अर्थ किताबें पढ़ना, किसी से ज्ञान की बातें सुनना या बस जानकारी इकट्ठा करना नहीं है। जानने का मतलब है अपने जीवन में एक नयी, अंदर की नज़र को खोलना। आप चाहे कितना भी सोचें, कितना भी तर्क का सहारा लें, वो आपके मन को सब कुछ साफ कर के नहीं समझा सकता। आप जिस तर्क आधारित समझ को तैयार करते हैं, उसे आसानी से गलत रूप दिया जा सकता है। कठिन परिस्थितियाँ इसे पूरी तरह से गड़बड़ कर सकती हैं।
सिर्फ जब आपकी अंदर की दृष्टि खुल जाती है तभी एकदम सही समझ आती है। इस दुनिया में कोई भी आदमी, कोई भी परिस्थिति इस समझ को गलत रूप नहीं दे सकेंगे। सच्ची तरह से जानना तभी होगा जब आपकी तीसरी आँख खुलेगी।