Sadhguruकैसे करें अपने मन को शांत? क्या योग द्वारा मन को काबू में किया जा सकता है? इस लेख में सद्‌गुरु बता रहे हैं मन को स्थिर करने का महत्त्व और एक दिलचस्प कहानी एक ऐसे गुरु की जिसने अपने मन पर पूरी तरह काबू पा लिया है।

सद्‌गुरु: सत्य की खोज अपने आप में एक बहुत बड़ा छलावा है, क्योंकि जिसे हम ‘सत्य’ कहते हैं, वह हमेशा और हर कहीं मौजूद होता है। हमें उसे खोजना या ढूंढना नहीं है। वह तो हमेशा मौजूद है। फिलहाल समस्या सिर्फ यह है कि आप जीवन का अनुभव सिर्फ सीमित आयाम के जरिये ही करने में सक्षम हैं – जिसे मन कहते हैं।

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पतंजलि ने योग को ‘चित्त वृत्ति निरोध’ कहा है। इसका मतलब है कि अगर आप मन की चंचलता या गतिविधियों को स्थिर कर सकते हैं, तो आप योग को प्राप्त कर सकते हैं। आपकी चेतनता में सब कुछ एक हो जाता है। योग में मन को स्थिर करने के लिए अनेक उपकरण और उपाय हैं। हम अपने जीवन में बहुत सारी चीजें करते हैं, ऐसी प्रक्रियाओं से गुजरते हैं, जिन्हें हम अपनी उपलब्धियां कहते हैं, मगर मन की चंचलता से परे जाना सबसे बुनियादी चीज और सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। यह इंसान को उसकी खोज, अंदर और बाहर के अंतर, हर चीज से मुक्त कर देता है। सिर्फ अपने मन को स्थिर करके वह एक चरम संभावना बन सकता है।

ज्यादातर लोगों का मकसद अपने जीवन में खुशी और शांति हासिल करना होता है। हम अपने जीवन में जो खुशी और शांति जानते हैं, वह आम तौर पर इतनी नाजुक और क्षणिक होती है कि वह हमेशा बाहरी स्थितियों के अधीन होती है।

ज्यादातर लोगों का मकसद अपने जीवन में खुशी और शांति हासिल करना होता है। हम अपने जीवन में जो खुशी और शांति जानते हैं, वह आम तौर पर इतनी नाजुक और क्षणिक होती है कि वह हमेशा बाहरी स्थितियों के अधीन होती है। इसलिए ज्यादातर लोग एक सटीक बाहरी स्थिति बनाए रखने की कोशिश में पूरा जीवन बिता देते हैं, जो हासिल करना असंभव है। योग आंतरिक स्थिति पर जोर देता है। अगर आप एक सटीक आंतरिक स्थिति पैदा कर सकते हैं, तो बाहरी स्थिति चाहे जैसी भी हो, आप पूर्ण आनंद और शांति में मग्न हो सकते हैं।

मौन नायक

यह मुझे दक्षिण भारतीय योग परंपरा की एक कहानी की याद दिला देता है। एक बार तत्वार्य नामक एक शिष्य था। उसे अपने जीवन में एक बहुत महान गुरु का सान्निध्य मिला था, जिनका नाम स्वरूपानंद था।

यह गुरु मौन रहते थे। इंसान के रूप में वे कभी-कभार बात भी करते थे, मगर एक गुरु के रूप में उन्होंने कभी कुछ नहीं बोला था। वह एक मौन गुरु थे। तत्वार्य को अपने गुरु के साथ अपार आनंद और खुशी मिलती थी, उसने अपने गुरु के लिए एक भरणी रची। भरणी तमिल में एक प्रकार की रचना होती है, जिसे आम तौर पर सिर्फ महान नायकों के लिए रचा जाता है।

समाज में विरोध हुआ और कहा गया कि ऐसे व्यक्ति के लिए भरणी नहीं लिखी जा सकती, जिसने कभी अपना मुंह खोला तक न हो और चुपचाप बैठे रहने के सिवा और कुछ न किया हो। यह सिर्फ किसी महान विजेता या महानायक के लिए ही रचा जा सकता है – जैसे किसी ने एक हजार हाथियों को मारा हो। इस इंसान ने कभी अपना मुंह तक नहीं खोला है। निश्चित रूप से वह भरणी लिखे जाने के काबिल नहीं हैं। तत्वार्य ने कहा, ‘नहीं, मेरे गुरु इससे कहीं ज्यादा के लायक हैं, मगर मैं उनके लिए सिर्फ इतना ही कर सकता हूं।’

शहर में इस बारे में खूब बहस और चर्चा हुई। फिर तत्वार्य ने तय किया कि इस मुद्दे को सुलझाने का तरीका सिर्फ यही है कि इन लोगों को अपने गुरु के पास ले जाया जाए। उसके गुरु एक पेड़ के नीचे मौन बैठे थे। वे सब जाकर वहां बैठ गए और तत्वर्य ने गुरु के सामने समस्या रखी - ‘मैंने आपके सम्मान में एक भरणी रची है, जिसका लोग विरोध कर रहे हैं। इनका कहना है कि भरणी सिर्फ महान नायकों के लिए ही रची जा सकती है।’

गुरु ने सारी बात सुनी और चुपचाप बैठे रहे। सभी लोग चुपचाप बैठे रहे। घंटों बीत गए, वे चुपचाप बैठे रहे। दिन बीत गया और वे चुपचाप बैठे रहे। इस तरह सब लोग वहां आठ दिनों तक यूं ही बैठे रहे। उन सभी के आठ दिनों तक मौन बैठे रहने के बाद, स्वरूपानंद ने अपने मन को सक्रिय किया। तब अचानक सबकी विचार प्रक्रिया भी सक्रिय हो गई। तब जाकर उन्हें महसूस हुआ कि असली नायक तो यह है जिसने ‘मन’ और ‘अहं’ नाम के इन मतवाले हाथियों को वश में कर लिया था। आठ दिनों तक गुरु के साथ बैठने के दौरान ये दोनों हाथी शांत और स्थिर थे। फिर उन्होंने कहा, ‘यही वह इंसान है, जो वाकई भरणी के लायक है।’