मानसिक रोगः जिम्मेदार कौन ?
सवाल: सद्गुरु, कुछ साल पहले एक सत्संग में आपने जिक्र किया था कि मानव पीड़ा का सबसे बड़ कारण मानसिक रोग हैं। आखिर एक इंसान के अचानक मानसिक रूप से अस्वस्थ होने की वजह क्या होती है? क्या यह संभव है कि मानसकि रूप से बीमार व्यक्ति पूरी तरह से ठीक हो जाए और उसकी दवाई छूट जाए?
सवाल: सद्गुरु, कुछ साल पहले एक सत्संग में आपने जिक्र किया था कि मानव पीड़ा का सबसे बड़ कारण मानसिक रोग हैं। आखिर एक इंसान के अचानक मानसिक रूप से अस्वस्थ होने की वजह क्या होती है? क्या यह संभव है कि मानसकि रूप से बीमार व्यक्ति पूरी तरह से ठीक हो जाए और उसकी दवाई छूट जाए?
सद्गुरु:
अगर आपने इसे देखा है तो आप समझ सकते हैं कि इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है। दरअसल मानव मस्तिष्क में अपार संभावनाए होती हैं। अगर ये संभावनाए आपके अनुकूल काम करती हैं तो आपका जीवन खुशियों से भर उठता है। लेकिन अगर ये आपके खिलाफ काम करने लगीं तो फिर आपको कोई नहीं बचा सकता। दरअसल, इस स्थिति में आपकी पीड़ा का कारण कहीं बाहर से नहीं आ रहा। अगर आपकी पीड़ा का कारण कहीं बाहर से मसलन आपके पड़ोस, आपकी सास या आपके बॉस की तरफ से आ रहा होता तो आप उससे भाग सकते थे। वे कुछ करते, जिसके बदले में आप एक खास तरह से उस पर प्रतिक्रिया देते। लेकिन आप एक ऐसी जगह या हालात में है, जहां बिना किसी के कुछ किए भी अपने आप तकलीफें आ रही हैं तो यह अपने आप में एक मनोवैज्ञानिक स्थिति होगी।
सवाल है कि कोई व्यक्ति इस स्थिति से बाहर कैसे आ सकता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस बीमारी से नुकसान कितना हुआ है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो इससे बाहर आ जाते हैं, लेकिन वहीं कुछ लोगों में यह समस्या एक भौतिक रूप ले लेती है और मस्तिष्क का नुकसान कर देती है। इस स्थिति में दवाइयों के जरिए उसकी बाहर से मदद करनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में लोग बड़े पैमाने पर सीडेटिव (ऐसी दवाइयां जो मानसिक शांति के लिए दी जाती हैं) का सेवन कर रहे हैं, लेकिन इसमें एक खतरा है कि इनका असर सिर्फ एक हिस्से में न होकर पूरे दिमाग में होता है।
विवेक और अविवेक के बीच बहुत बारीक सा अंतर है। आपमें से बहुत से लोगों को इस रेखा को पार करने में बड़ा मजा आता होगा। मान लीजिए आप किसी पर गुस्से में फट पड़े और उसने आपसे डर कर वह काम कर दिया, जो आप चाहते थे। अब आप कहेंगे कि पता है, ‘मैं गुस्से में पागल होकर उस पर फट पड़ा और उसने डर कर तत्काल वह काम कर दिया, जो मैं चाहता था।’ आप गुस्से में पागल हुए और वापस सामान्य स्थिति में आ गए, आपके कहने से लगता है कि आपने इस स्थिति का आनंद उठाया। मान लीजिए आप गुस्से में पागल हो जाते और वापस सामान्य स्थिति में आ ही ना पाते तो? फिर तो यह अलग स्थिति होती।
आप गुस्से, नफरत, ईर्ष्या, शराब या मादक चीजों की लत के चलते इस रेखा को पार करते रहते हैं। आप समझदारी की रेखा को लांघते रहते हैं, साथ ही आप इस दौरान होने वाले पागलपन का भी मजा लेते रहते हैं और फिर इस स्थति से बाहर आ जाते हैं। मैं चाहता हूं कि आप जानें कि बहुत से लोग इसी कोशिश में बर्बाद हो गए। कभी ये लोग हमारी-आपकी तरह बिलकुल सामान्य थे। लेकिन एक दिन सबकुछ खत्म हो गया। एक दिन अचानक कहीं कोई फ्यूज उड़ा ओर वे सड़कर पर आ गए।
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इसी तरह से हमारे शरीर में बीमारी आती है। हो सकता है कि आज आप पूरी तरह से ठीक हों और कल सुबह आपका डॉक्टर आपसे कुछ और कहे। इस तरह की चीजें लोगों के साथ हर रोज हो रही है। यही चीज इंसान के दिमाग के साथ भी हो सकती है। अगर यह चीज आपके शरीर के साथ होती है यानी आप शारीरिक रूप से बीमार पड़ते हैं तो कम से कम आपको अपने आसपास के सब लोगों से हमदर्दी मिलती है, लेकिन अगर यही दिक्कत आपके दिमाग के साथ हो जाए तो आपको हमदर्दी मिलने की संभावना ना के बराबर होती है। तब कोई भी आपके आसपास नहीं रहना चाहता, क्योंकि मानसकि रूप से बीमार व्यक्ति को झेलना बहुत मुश्किल है। ऐसे में आपको भी पता नहीं होता कि कब वे बीमार हैं और कब वे बीमारी का नाटक कर रहे हैं, आप इसका फैसला नहीं कर पाते। जब वे बीमारी का नाटक कर रहे होते हैं तो आप उनके प्रति कठोर रुख अपनाते हुए उन पर काबू पाना चाहते हैं, लेकिन जब वे सच में बीमार होते हैं तो आपको उनके प्रति करुणा रखनी चाहिए। यह कोई आसान काम नहीं है, बिल्कुल दो छोरों पर बंधी रस्सी पर चलने जितना मुश्किल है। यह पीड़ित व्यक्ति के लिए कष्टदायक तो है ही, लेकिन उससे ज्यादा कष्टदायक उसके आसपास के लोगों के लिए होता है।
आज यह शहरी इलाकों में ज्यादा हो रहा है, लेकिन इससे भी ज्यादा इसको पश्चिमी देशों में देखा जा सकता है। अगर आप अमेरकिा में रहना चाहें और वहां अगर आप 30 दिन का उपवास भी करते हैं तो भी आपके बिल में 3000 डॉलर जुड़ जाएंगे। दरअसल, वह समाज बना ही इस तरह का है, जहां वह व्यक्ति विशेष से काफी तरह की अपेक्षाएं रहती हैं, वहां व्यक्ति काम से छुट्टी लेकर यूं ही नहीं बैठ सकता। हर व्यक्ति लगातार काम करने की क्षमता नहीं रखता। बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें कुछ खास चीजों से दूर हटने की जरूरत होती है। अगर उनके जीवन में पर्याप्त साधना हो तो आप उन्हें 364 दिन चौबीसों घंटे सक्रिय रख सकते हैं। दरअसल, जीवन बहुत छोटा है और हम में से कोई भी व्यक्ति खाली नहीं बैठना चाहता। लेकिन अगर लोग साधना नहीं कर रहे तोयह बहुत जरूरी है कि लोगों के पास काम के बीच कुछ वक्त और मौका खाली हो।
हमने ऐसे समाज की रचना की है, जहां रहने के लिए लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जहां हर वक्त एक प्रतिस्पर्द्धा चलती रहती है। इंसान के शरीर के भीतर ऐसी प्रतिक्रिया होती है जिसे ‘फाइट एंड फाइट’ कहते हैं(इसमें भयानक तनाव या उत्तेजना के प्रति शरीर एक खास तरह के हॉरमोन -एंडरलीन, स्रावित कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है)। हालंकि अनजाने में लोग अकसर कहते मिल जाएंगे कि ‘मुझे एंडरलीन अच्छा लगता है।’ आप समझ नहीं रहे कि एंडरलीइन का असर क्या होता है। एंडरलीन हमारे शरीर में एक इमरजेंसी-सिस्टम है। मान लीजिए अचानक आपके सामने एक शेर आ जाता है, जिसे देखकर आपके शरीर में एंडरलीन हॉरमोन स्रावित होने लगता है और आपको वहां से भागने में मदद करता है। लेकिन अगर आपके शरीर में सहज रूप से यूं ही एंडरलीन प्रवाहित होता रहे तो आप सड़क पर चलते-चलते मर जांएगे। आपको उस स्थिति में हर वक्त नहीं रहना चाहिए। अगर आप मरेंगे नहीं तो बुरी तरह से टूट जाएंगे।
हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था भी बहुत ज्यादा अपेक्षाएं रखने वाली और बोझ डालने वाली है। हर कोई इसके लिए तैयार नहीं होता। किसी के लिए यह आसान सी बात होती है, जबकि कोई दूसरा एक साधारण से वाक्य को पच्चीस बार पढ़ने के बाद भी कुछ समझ नहीं पाता। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वह कुछ और कर पाने में सक्षम नहीं है। लेकिन हम उसे कुछ और करने की इजाजत ही नहीं देते। ‘उसे तो पहले यही करना होगा।’ आज समाज में ऐसे बहुत से ढांचे हैं जिन्हें क्रूर कहा जा सकता है, जो इंसान की भलाई और कल्याण के हिसाब से बिल्कुल उचित नहीं हैं। दरअसल, हम तो बस उन बड़ी मशीनों के पुर्जे बनाने की कोशिश कर रहे है, जो हमने बनाई हैं। हम चाहते हैं कि ये मशीने बनी रहें, सुचारु रूप से चलती रहें, लेकिन इस कोशिश में एक इंसान के साथ क्या हो रहा है, हम इसकी बिल्कुल परवाह नहीं करते। दरअसल यह मशीन एक छलावा है, जो कभी भी भरभरा कर गिर सकती है। अगर आप उस तरह की सामग्री से नहीं बने हैं कि इस बड़ी मशीन का पुर्जा बन सकें तो आप कई तरीके से छिन्न भिन्न हो सकते हैं।
हर इंसान को फलने फूलने के लिए एक खास तरह के शारीरिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक निजता के साथ-साथ एक खास तरह के माहौल की जरूरत होती है। इंसान के जीवन में शुरू से ही यह माहौल गायब है। यहां तक कि एक नवजात शिशु को भी यह माहौल नहीं मिल पा रहा। एक समय ऐसा था जब मां बच्चे को अपनी छाती से लगाती थी तो फिर उसे वक्त या किसी की भी चिंता नहीं रहती थी। आज मां बच्चे को दूध पिलाते समय घड़ी देखती रहती है कि बच्चा जल्दी से दूध क्यों नही पी रहा, उसे काम पर भी जाना है। यहां तक कि बच्चे के जन्म के एक हफ्ते बाद ही वह काम पर वापस चली जाती हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि महिलाओं को काम नहीं करना चाहिए, बल्कि मैं यह कह रहा हूं कि इंसान को अच्छी तरह से जीना चाहिए। अगर इंसान को अच्छी तरह रहर्ना और जीना है तो उसे कुछ खास तरह की भीतरी सच्चाइयों को भी समझना होगा। हर बच्चे को ‘आगे चलकर मेरा क्या होगा’ जैसी किसी सोच या चिंता के बिना बड़ा होना चाहिए। लेकिन हो यह रहा है कि स्कूल के पहले दिन से ही बच्चे को अपने पड़ोस के बच्चे से दो नंबर कम आने का तनाव होने लग रहा है। यह सब बेकार की बात है। यह भाव इंसान को खत्म कर देगा। जबकि हम सोचते हैं कि यही इंसान का प्रदर्शन या उपलब्धि, उसका कल्याण और उसकी कुशलता है, जो पूरी तरह से गलत है। अगर आपने इंसान को ही खत्म कर दिया तो फिर आपके द्वारा बनाए गए ढांचे का औचित्य ही क्या बचता है?
सबसे बड़ी बात यह कि हर व्यक्ति शारीरिक और मानसिक स्तर पर एक जैसा नहीं होता। मानसिक रूस से बीमार लोगों की देखभाल करने का कोई खास तरीका नहीं होता, यह काम अपने आप मे काफी मुश्किल और जटिल है। अगर आप ऐसे लोगों की देखभाल के लिए एक स्वस्थ माहौल तैयार करना चाहते हैं तो इसके लिए बहुत बड़े बुनियादी ढांचे की जरूरत होगी, जिसमें भौतिक ढांचे से लेकर इंसानी ढांचा तक सभी शामिल है। अफसोस कि मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति इस दिशा में इतनी सामग्री और इतने इंसानों को लगाने के लिए इच्छुक है।
ऐसे लोगों को इस स्थिति से बाहर लाने के लिए बहुत ज्यादा विशेषज्ञता, देखभाल के साथ एक खास तरह से उसमे लगने की जरूरत होती है। हो सकता है कि इसके बाद भी इन्हें पूरी तरह से बाहर नहीं लाया जा सके। आपको उन्हें अपनी सीमाओं के भीतर ही सहजता और सुविधा का अहसास कराना होगा, ताकि आप उन्हें उनकी पीड़ाओं से कुछ राहत दिला सकें। लेकिन इसके लिए अत्यधिक समर्पित देखभाल के साथ-साथ एक खास तरह की विशेषज्ञता और परानुभूति की जरूरत होती है।