...तब शायद बच्चों की नींद उड़ जाए
इस हफ्ते स्पॉट में सद्गुरु अपनी ताजातरीन योजना उजागर कर रहे हैं। वे एक ऐसी जगह बनाना चाहते हैं जहां हमारे बच्चे आश्चर्य से भर जाए, अजूबों की दुनिया में खो जाए। वो जो कुछ देखें और महसूस करें, उसको ले कर वे हैरत में डूबे जाएं। पढ़िए और सोचिए!
हम एक साइंस एक्स्प्लोरेटोरियम बनाना चाहते हैं, जो हमारे बच्चों को एक मौका देगा विज्ञान के करीब जाने का, खुद खोज-बीन करके उसे समझने और जानने का। यह सिर्फ हमारे आश्रम के बच्चों के लिए नहीं होगा। वैसे तो यह देश के हर बच्चे के लिए होगा, लेकिन इस देश की दूरियों में फैली विशालता की वजह से यह ज्यादातर दक्षिण भारत के स्कूलों के ही काम आ पाएगा। यह डेढ़ से दो लाख वर्ग फीट में फैला साइंस लैब होगा, जो कुछ ऐसा बना होगा कि बच्चा अगर एक बार इसके अंदर जाए तो वो आश्चर्य से भर जाए, अजूबों की दुनिया में खो जाए।
अगर आप एक माला हाथ में लें, तो देखेंगे कि वह एक खास आकार बना लेता है। अगर आप जानते हैं कि ऐसा क्यों होता है, तो आप ब्रह्मांड की प्रकृति को समझ जाएंगे। यह ऐसा आकार ही क्यों बना रहा है? यह और कुछ क्यों नहीं कर रहा? अगर यह समझ लेते हैं, तो आप सौरमंडल और ब्रह्मांड की प्रकृति को गहराई से समझ जाएंगे। इस संसार में सब चीजें एक-दूसरे से इसी तरह जुड़ी हुई हैं। कमी बस इतनी है कि उसकी छान-बीन नहीं होती, खास तौर से हिंदुस्तान में। एक असली घटना सुनिए... एक डिनर पार्टी में एक नौजवान औरत, एक मशहूर वैज्ञानिक के बगल में बैठी हुई थी। लेकिन उसे उनके बारे में कुछ नहीं मालूम था। उनकी तरफ देख कर उसने विनम्रता के साथ पूछा, “सर, आप क्या करते हैं?” वे बोले, “मैं विज्ञान का अध्ययन कर रहा हूं।” उस युवती ने कहा, “ओह! ये तो मैंने दसवीं क्लास में ही पूरा कर लिया था।” विज्ञान के बारे में हमारी सोच बस ऐसी ही है। हम सोचते हैं कि विज्ञान एक हो चुका काम है, जिसका हमें बस अध्ययन ही करना है। नहीं, ऐसा नहीं है- विज्ञान का काम पूरा नहीं हुआ है – यह तो अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुआ है। इसने तो बस अभी अपने दो-चार नन्हे-नन्हे कदम ही उठाए हैं। हम टेक्नालाजी और गैजेट्स में पूरी तरह डूब कर विज्ञान की खोजबीन का रास्ता ही भूल गए हैं। इंसानियत को असली ताकत तभी मिलेगी जब हम सिर्फ नई सोच के साथ नई खोजबीन करेंगे, केवल उसका दोहन नहीं। फिलहाल तो ये आलम है कि ये जो टेक्नोलाजी है वो विज्ञान की हमारी छोटी-से-बड़ी हर जानकारी का बस शोषण कर रही है। विज्ञान शोषण का नहीं, खोज का रास्ता है, जिस पर हमें आगे बढ़ना होगा। विज्ञान, आध्यात्मिक प्रक्रिया जैसा ही होता है; फर्क सिर्फ इतना है कि इसकी दिशा हमारे अंदर की ओर नहीं, बाहर की ओर होती है। जिस भी इंसान में सचमुच खोजबीन की वैज्ञानिक आदत है, वह अपने भीतर आध्यात्मिक रुझान महसूस किए बिना नहीं रह सकता।
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हम गुंबद के आकार का एक थिएटर बनाना चाहते हैं, जहां शानदार आइमैक्स प्रभाव देखने को मिलेगा। यह थ्री-डी यानी थ्री-डाइमेंशनल होता है जिसमें लगता है मानो हर चीज आपके बिलकुल करीब आ कर आपको छू रही है; मानो सौ फीसदी असली हो। इसके लिए फिल्में खास तरीके से बनाई जाती हैं। हम भौतिकशास्त्र, जीवविज्ञान और रसायनशास्त्र (फिजिक्स, बायोलाजी, और केमिस्ट्री) से जुड़ी बहुत सारी चीजें लगाएंगे जिनसे बच्चों को तरह-तरह की अनुभूतियां होंगी। हम एक हजार बच्चों के रहने की जगह भी तैयार करेंगे ताकि वे दो दिन तक यहां रह कर खुशी-खुशी वैज्ञानिक खोजबीन में डूबे रहें। शायद इसके बाद आपके बच्चे सो न सकेंगे; क्योंकि वो जो कुछ देखेंगे और महसूस करेंगे, उसको ले कर वे हैरत में डूबे रहेंगे।
उनमें से सारे बच्चे आगे चलकर जरूरी नही है कि वैज्ञानिक बनें, लेकिन मौका देने पर हर इंसानी दिमाग में जिज्ञासा जरूर उठती है। ‘पेड़ में शाखाएं इस तरह क्यों लगी हैं?’ अगर आप इसको ध्यान से देखें तो पाएंगे कि इसमें तो ब्रह्मांड की पूरी डिजाइन का रहस्य छिपा हुआ है। आपकी रक्त-नलिकाएं भी इसी तरह शरीर में हर कहीं पहुंचती हैं, नदियां भी इसी तरह जगह-जगह बंटती हैं। इन सबके लिए कोई एक डिजाइन सूत्र होना चाहिए और हां, वह है! स्कूल-कालेज की किताब में कुछ पढ़ कर यह सोच लेने से कि विज्ञान एक पूरा हो चुका काम है, एक प्रबुद्ध और समृद्ध समाज नहीं बन पाएगा।
लोगों को या तो आध्यात्मिक प्रक्रिया में डूबे रहना चाहिए या फिर विज्ञान में, क्योंकि दोनों ही सत्य की तलाश करते हैं, दोनों ही खोज के रास्ते हैं, सिर्फ निष्कर्ष नहीं हैं। दोनों ही ये नहीं सोचते कि ‘मैं इनके साथ क्या कर सकता हूं?’ ये तो बस जानने की चाह में हैं। इंसानी दिमाग में जब जानने की ललक होती है तभी वह बुद्धि की गहराई से बर्ताव करता है, पूरी जिम्मेदारी दिखाता है; वरना स्वभाव से तो वह इस्तेमाल की ही बात सोचेगा। ‘मैं इसका इस्तेमाल कैसे करूं? मैं उसको कैसे अपने काम में लाऊं?’ शुरू-शुरू में ऐसी सोच चीजों को ले कर होती है, फिर लोगों को ले कर और फिर तमाम दुनिया को ले कर। हम बस यही सोचते रहते हैं कि दुनिया की तमाम चीजों का इस्तेमाल कैसे करें, क्योंकि हम टेक्नालाजी में रम गए हैं, विज्ञान की ओर हमारा रुझान नहीं है। इसलिए हम चाहते हैं कि अपने बच्चों में तलाश और खोजबीन का सच्चा जज्बा पैदा करें।
फिलहाल हम एक टीम बनाने का काम शुरू कर रहे हैं। हमने शिकागो साइंस म्यूजियम और सैन फ्रैंसिस्को के एक्स्प्लोरेटोरियम के लोगों के साथ कई बैठकें की हैं। पिछले कुछ दौरों में मैंने खुद इन संस्थाओं में जा कर लोगों से बात की है। अब उन्होंने एक रिपोर्ट भेजी है कि इस काम को कैसे पूरा किया जा सकता है। हम एक ताकतवर, उत्साही और तेज टीम बनाने की कोशिश में हैं, जो इसके निर्माण की जिम्मेदारी लेगा। अगर आपमें वह ऊर्जा और वह प्रतिबद्धता है, तो आपको इसमें शामिल होना चाहिए। अगर हम वह बना सके जो मेरे दिमाग में है, तो यह एक ऐसी राष्ट्रीय स्तर की रचना होगी जिसका आनंद आने वाली कई-कई पीढ़ियों तक के बच्चे ले सकेंगे। मैं एक छोटा-सा मिनिएचर मॉडेल बनाने के लिए कह रहा हूं, जो सचमुच में संतुलित, उद्देश्यपूर्ण और उपयोगी इंसान पैदा कर सके। वैसे इंसान जो वैज्ञानिक खोजबीन में दिलचस्पी रखते हों, न कि सिर्फ गैजेट्स में – इसके लिए एक ‘लाइव डेमो’ देना होगा। आप कितनी भी बातें करें, कोई यकीन नहीं करेगा, आपको इसे काम करते हुए दिखाना होगा, तभी दुनिया उसको मानेगी और अपनाएगी। तो मेरे खयाल से अगले दस-पंद्रह साल में अगर हम वो कर सके जो करना चाहते हैं, अगर हमारे पास जरूरी धनराशि, काबिलियत और प्रतिभा हो, अगर हम इसे साकार कर सकें, तो हम एक ऐसा मॉडेल बनाएंगे, जिसको दुनिया अपनाना चाहेगी, क्योंकि यह निश्चित रूप से वैसा इंसान पैदा करेगा, जैसा हमें चाहिए।