सद्गुरु: वह सब जो गतिमान है, घूम रहा है, कैसे भी हो, रुकने वाला तो है ही। लेकिन जो स्थिर है, वो हमेशा के लिये है।अस्तित्व में कोई भी गति लगातार नहीं चलती, कोई संचार चिरकाल के लिये नहीं होता।कुछ चीज़ें लंबे समय के लिये हो सकती हैं, लेकिन हमेशा के लिये नहीं। जो गतिशील है, वो अपने आप को थका ही डालेगा लेकिन जो स्थिर है वो हमेशा के लिये है। हम ध्यान के रूप में जिसका प्रचार करते हैं, जिसे हम ध्यान कहते हैं वो अंत में तो अस्तित्व का मूल, मर्म बनने के लिये, स्थिरता की ओर बढ़ना ही है। इसका अर्थ ये नहीं है कि वैसा करने के लिये आप को कोई संघर्ष करना है या बहुत प्रयत्न करने हैं। यह वैसा है... क्या आप वेधना, प्रवेश करना सीखते हैं? ये ऐसा कुछ नहीं है जो प्रयत्नपूर्वक करना है क्योंकि 'करना' अपने आप में गति है। यह वो है जिसमें आप सहज रूप से आ जाते हैं क्योंकि स्थिरता वो में से ही गति की प्रक्रिया जन्मी है, इस स्थिरता में से वो सतह मिलती है जो गति है, संचार है।
ऊपरी सतह पर बहुत प्रकार के कार्य होते हैं, कई प्रकार के रंग हैं, बहुत सी ध्वनियां गूंजती हैं, वे सब (स्थिरता के) विरुद्ध नहीं होते। पर एक बार जब आप को स्थिरता का स्वाद मिल जाता है तब आप चाहें तो सतह से खेल सकते हैं अन्यथा आप बस वहां होते हैं। अगर आप मूल बात नहीं जानते, यदि आप ने मर्म का स्वाद नहीं लिया है तो आप हमेशा एक प्रकार की मज़बूरी के साथ गतिमान रहते हैं। यकीन कीजिये, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप के लिये, जीवन अभी कितना ज्यादा उत्साहवर्धक, आनन्ददायक है, एक दिन तो आप थक जायेंगे। मैं बस आशा करता हूँ कि आप थक कर न गिरें(मरें)। आप तब गिरें जब आप सिद्ध हो जायें, पक जायें, मीठे हो जायें। एक फल पेड़ से इसलिये गिरना चाहिये कि वह पक चुका है, इसलिये नहीं कि वो थक चुका है। क्योंकि पकने के साथ परिपक्वता आती है, मिठास आती है, नयी सम्भावना आती है। अगर आप थक गये हैं और गिर जाते हैं तो यह जीवन से सही ढंग से अलग हो जाना नहीं है।
अतः, ध्यान कोई विकल्प नहीं है।यह जीवन का कोई काल्पनिक, लहर में आ कर किया जाने वाला प्रयास नहीं है। अगर आप नहीं जानते कि स्थिर कैसे हुआ जाये तो आप बस बीमार होंगे, कोई और रास्ता नहीं है। आप की बीमारी के कई नाम हो सकते हैं। क्या आप को मालूम है, सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में टी बी होना भी एक फैशन था ! सही में !! वैसे ही आजकल ऐसी कई बीमारियां हैं जो एक फैशन हैं। उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि इसमें कितना दर्द है, पीड़ा है, ये फिर भी फैशन है। लेकिन उसके कारण ये सही बात तो नहीं हो जाती। आप के लिये, चुनने को बस ये है - या तो आप स्थिर होना सीख लें नहीं तो आप को किसी न किसी प्रकार की बीमारी रहेगी। मनुष्य इसीलिये बीमार होता है क्योंकि वो नहीं जानता कि वह स्थिर कैसे रहे। अगर वो स्थिर रहना जान ले तो बीमार नहीं होगा चाहे उसका शरीर सड़ रहा हो। ये कोई कल्पना की उड़ान नहीं है, लहरी विकल्प नहीं है जो हम ले लें।
अगर हम ये करें.... अगर हम जीवन को और जीवन की प्रक्रिया को गौर से देखें तो इसकी गहराई में उतर जाना स्वाभाविक है, इसके मर्म को समझ लेना बड़ी सफलता है। यदि असफलता ही जीवन का आदर्श होती, अगर असफलता का फैशन होता... तो आप चोट न खाते, रैंप पर चलते। लेकिन ये करने जैसा नहीं है क्योंकि हर कोई, हर कोई, एक छोटा सा कीड़ा भी, अपने जीवन में, अपनी सफलता की समझ के अनुसार, सफल होने का प्रयत्न कर रहा है। ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो असफल होना चाहता हो। लेकिन मनुष्य सफल तभी होता है, जब वो अपने आप को, वो जो भी है, पूर्ण रूप से प्रकट करे। ऐसा तब तक संभव नहीं है जब तक वो ध्यानपूर्ण न हो। मैं जब ध्यानपूर्ण होने की बात करता हूँ तो एक व्यवस्थित, संगठित, संरचित ध्यान प्रक्रिया की बात नहीं कर रहा हूँ। लेकिन, मनुष्य को ध्यानपूर्ण होना चाहिये नहीं तो वह अपने अस्तित्व की प्रकृति को समझ नहीं पायेगा। अगर आप अपने होने की प्रकृति को, उसके स्वभाव को भी नहीं जानते तो अपने आप को पूर्ण रूप से प्रगट करना, प्रदर्शित करना आप के लिये संभव ही नहीं है।