कहानी:

एक दिन सारे शिष्य अपने ज़ेन गुरु के चारों ओर बैठ गये। उनमें से एक बोला, "गुरुदेव, कृपया आज हमें कोई कहानी सुनाईये"। गुरु बोले, "ठीक है पर कहानी पूरी होने पर मैं तुम्हें एक प्रश्न पूछूँगा"! कहानी सुनने की उत्सुकता में वे सब बोले, "ठीक है, हम तैयार हैं"। तब गुरु ने कहानी शुरू की....

"एक गाँव में एक मोटी भैंस थी। रोज ही मैदान में चरने के लिये जाते समय वह एक झोपड़ी के पास से गुजरती। झोपड़ी की छत पर लोगों ने भूसे के बंडल रखे हुए थे जिससे झोपड़ी अंदर से ठंडी रहे। वो भैंस अपना सिर उठा कर, उसकी पहुँच में जितने बंडल आते, उतने गिरा कर नाश्ता करती। एक बार जब वो बहुत प्रयत्न कर के भी कोई बंडल नहीं खींच पायी तो उसने सोचा, "जब इन लोगों ने झोपड़ी की छत पर इतने बंडल रखे थे तो झोपड़ी के अंदर और कितने सारे रखे होंगे?"! लेकिन झोपड़ी की खिड़की हमेशा बंद रहती थी और भैंस देख नहीं पाती थी कि अंदर क्या है।

एक दिन, चरने के लिये मैदानों की ओर जाते समय जब वो झोपड़ी के पास से गुजरी तो उसकी आँखें आश्चर्य से चमक उठीं। खिड़की खुली थी। उत्साहित हो कर भैंस खिड़की के पास गयी और सावधानी से उसने अपना सिर अंदर डाला। वो कुशलता से अपना सिर घुमा रही थी जिससे उसके सींग कहीं फँस न जायें। जैसी कि उसे आशा थी, झोपड़ी के एक कोने में भूसे के बहुत सारे बंडल थे।

उन पूरे 14 सालों में वो किसी से एक भी शब्द नहीं बोला था, न ही उसने किसी भी वजह से अपने खड़े होने की मुद्रा में कोई परिवर्तन किया था। उसको यह समझ में नहीं आ रहा था कि उसे आत्मज्ञान क्यों नहीं हो रहा था।

 

लेकिन अपनी गर्दन को पूरी तरह से तान कर भी वो भूसे तक नहीं पहुँच पा रही थी। तब उसने अपने शरीर को थोड़ा और अंदर दबा कर खिड़की से अन्दर जाने की कोशिश की। उसके सींग, चेहरा, गर्दन सब कुछ अंदर थे पर भूसा अभी भी उसकी पहुँच से बाहर था। धीरे धीरे उसने अपने अगले पैर खिड़की के अंदर डाले। फिर पैरों को दीवार से लगा कर अपने शरीर को अंदर खींचा। धीरे धीरे उसका विशाल शरीर खिड़की की छड़ों से गुज़रते हुए, अंदर चला गया और तब उसके शरीर के सबसे बड़े हिस्से, कूबड़ और पेट अंदर थे। अब सिर्फ पिछले पैर बाकी थे। तब उसने धीरे धीरे, अपने को संभालते हुए,एक-एक कर के दोनों पैर अंदर किये।

 

अपनी सफलता पर जोर से रंभाते हुए उसे लगा कि वो पूरी ही झोपड़ी में आ गयी है। अब उसने अपने आप को तानते हुए भूसे तक पहुंचने की कोशिश की पर वो नहीं पहुँच सकी क्योंकि उसकी पूँछ अभी भी बाहर फँसी हुई थी।

 

गुरुजी ने अपनी कहानी पूरी करते हुए प्रश्न पूछा, "ये कहानी सम्भव है या नहीं"?

 

शिष्य बोले, "ऐसा बिल्कुल सम्भव नहीं है"।

 

"क्यों"? गुरुजी ने पूछा।

 

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भैंस का सबसे छोटा भाग पूँछ है। जब उसने अपना सिर और चारों पैर अंदर डाल लिये तो वो अपनी पूँछ क्यों अंदर नहीं ला सकी"? शिष्यों ने पूछा।

 

तब गुरु बोले, "तुम सब में भी बहुत सी भैंसें हैं"!

 

सदगुरु का स्पष्टीकरण

 

सदगुरु: बाहुबली की एक अदभुत कहानी है। बाहुबली ने बहुत सारे युद्ध लड़े थे। एक समय ऐसा आया जब उसे अपने ही भाई के विरुद्ध लड़ाई लड़नी पड़ी। उस युद्ध में बहुत बड़ी संख्या में योद्धा मारे गये। युद्धभूमि मृत शरीरों से ढक गयी और खून की नदियाँ बह रहीं थीं।

 

जब उसने यह देखा तो उसे गहरा धक्का लगा और उसके अंदर एक जबरदस्त बदलाव आ गया। उसके मन में एक सवाल उठा, "मैंने क्यों इतने सारे लोगों के जीवन समाप्त कर दिये"? लेकिन उसे उत्तर नहीं मिला। अगले ही क्षण उसने युद्ध का त्याग कर दिया और उसके पास जो कुछ भी था, सब कुछ छोड़ दिया। सम्पूर्ण ध्यान के साथ, एक भी इंच हिले बिना वह 14 वर्ष तक गहरे ध्यान में खड़ा रहा। उस साधना की तीव्रता के कारण उसके भीतर बहुत सारी चीजें टूट गईं जिनसे वो बंधा हुआ था।

 

कभी कभी मैं जब ये देखता हूँ तो ये इतना दुखदायी होता है कि मुझे पीड़ा होती है। ये लोग इतनी छोटी सी, मूर्खतापूर्ण चीज़ को क्यों पकड़े हुए हैं ?

 

वो राजा जो सारी दुनिया को जीतना चाहता था अत्यंत विनम्रता से खड़ा था, और एक गधे के सामने भी झुकने को तैयार था। पर उसे आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ।

 

उन पूरे 14 सालों में वो किसी से एक भी शब्द नहीं बोला था, न ही उसने किसी भी वजह से अपने खड़े होने की मुद्रा में कोई परिवर्तन किया था। उसको यह समझ में नहीं आ रहा था कि उसे आत्मज्ञान क्यों नहीं हो रहा था। फिर उस दिशा में एक योगी आये। योगी ने मुड़ कर बहुबली की ओर देखा। बाहुबली को उनसे पूछने की इच्छा हुई, "मैं और क्या करूँ"? पर 14 वर्ष मौन में खड़े रहने के बाद, उसको अपना मुंह खोलने और कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई। उसकी जगह, एक प्रश्न के रूप में, उसकी बायीं आँख से एक प्रश्न जैसा आँसू बह निकला, जिसका अर्थ था, "मैं अपना राज्य छोड़ चुका हूँ, मैंने अपने परिवार का भी त्याग कर दिया है, अपने महल, अपनी सब सुख सुविधाओं का भी। मैं इतना पिघल गया हूँ कि एक कीड़े के सामने भी झुक रहा हूँ। मेरे लिये अब करने को क्या बचा है"?

 

योगी ने तब बाहुबली से कहा, "तुम एक अदभुत मनुष्य बन गये हो। अब एक कीड़े या कीटाणु के सामने भी तुम झुक सकते हो, पर क्या तुम अपने भाई के सामने इस तरह झुकने को तैयार हो? नहीं! बस यही एक बात तुम्हें पकड़े हुए है।

 

अब बाहुबली को अपनी इस अवस्था की समझ आयी। अपने भाई के लिये घृणा के कारण उसे जो चीज़ रोक रही थी, उस चीज़ को उसने छोड़ दिया। और उसी क्षण उसे मुक्ति मिल गयी!

 

इसी तरह बहुत से लोग ईशा योग सेंटर में आते हैं। अपने घर का आराम, पैसा, परिवार, सब कुछ छोड़ कर। बहुत से लोग तो युवावस्था के सुख छोड़ कर बहुत छोटी आयु में ही आ जाते हैं। वे अपनी पसंद का नहीं खाते, कोई नशा नहीं करते, वासना के शिकार नहीं होते, वे जो कुछ कर रहे हैं उसका अहंकार छोड़ कर दिन रात काम करते हैं। पर फिर भी, अनजाने में ही सही, किसी चीज़ को पकड़े रखते हैं।

 

कभी कभी मैं जब ये देखता हूँ तो ये इतना दुखदायी होता है कि मुझे पीड़ा होती है, “ये लोग इतनी छोटी सी, मूर्खतापूर्ण चीज़ को क्यों पकड़े हुए हैं?”

 

आप जब एक आयाम से दूसरे आयाम में जाते हैं, आप जब ऐसी जगह प्रवेश कर रहे हों, जिसके बारे में आप को कुछ भी पता नहीं है तब अचेतनता में आप किसी परिचित चीज़ को पकड़े रखते हैं और उसे छोड़ने के लिये तैयार नहीं होते। लोग अपने भूतकाल की किसी चीज़ से जुड़े रहते हैं या ऐसा कुछ जो उन्होंने सीखा है या जिसका उन्होंने आनंद लिया है। आप उन्हें स्वर्ग भी ले जायें तो भी उनकी छोटी उंगली किसी चीज़ से लिपटी रहती है। ये कुछ भी हो सकता है, जैसे उनका सेलफोन या फिर कोई खास चादर जिसका वे उपयोग कर रहे हैं। या फिर वे किसी खास जगह को अपना मान कर चलते हैं और वहीं पर बैठ कर ध्यान करना चाहते हैं।

 

तो चाहे सारा शरीर पार हो जाये पर इस तरह बस उनकी पूँछ कहीं पीछे फँसी रहती है। अगर सही समय पर पूँछ काट दी जाये तो वे आत्मज्ञानी हो जायेंगे।