धर्म क्या है गीता के अनुसार - किसी की जान लेना क्या धर्म है?
धर्म क्या है गीता के अनुसार? कृष्ण ने अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग तरह के कर्म को महत्व दिया है। आखिर उनके अनुसार धर्म क्या है? आइए जानते हैं-
कृष्ण ने अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग तरह के कर्म को महत्व दिया है। कभी वो युद्ध से बचने को कहते हैं तो कभी खुद अर्जुन से युद्ध करने को कहते हैं। आखिर उनके अनुसार धर्म क्या है? आइए जानते हैं-
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वैदेही: सद्गुरु, कृष्ण के अनुसार धर्म क्या है? कब किसी की जान लेना इंसान का धर्म होता है?
सद्गुरु: धर्म क्या है? कृष्ण के जीवन में बहुत लोगों ने उनसे यह सवाल पूछा था। जब द्रौपदी का विवाह होने वाला था, तो उन्होंने हर संभव कोशिश की कि द्रौपदी का विवाह पांच पांडवों से हो। उस वक्त द्रौपदी ने उनसे पूछा, 'आपको पता है धर्म क्या है?' एक बार कृष्ण ने भीम से कहा था, 'हस्तिनापुर दुर्योधन के लिए छोड़ दो। चलो हम नया नगर बसाएंगे।' इस पर भीम ने जवाब दिया, 'आप देशद्रोही हैं। मैं दुर्योधन को मार डालना चाहता हूं, और आप मुझसे यह कह रहे हैं कि मैं यह राज्य उसके लिए छोड़ कर चला जाऊं, कहीं और जाकर अपना राज्य बसाऊं।
तो इस तरह इस दुनिया में कोई भी कर्म न तो सौ-फीसदी सही है और न सौ-फीसदी गलत। आपको बस यह देखना है कि आपके कर्मों से ज्यादा से ज्यादा लोगों का भला हो, और फिर उसी हिसाब से कर्म करिए। जब बाहरी क्रियाकलापों की बात आती है, तो उस पल के लिए उचित निर्णय लेना ही धर्म है। कोई यह तय नहीं कर सकता कि क्या सही है और क्या गलत। जब कर्म करने की बात आती है तो सौ-फीसदी स्पष्टता सिर्फ एक मूर्ख या एक कट्टर इंसान के दिमाग में ही होती है। बाकी सभी लोग हमेशा अपने निर्णय को तौलते हैं, कि क्या सही है और क्या गलत। कोई दूसरा तरीका ही नहीं है। इस सृष्टि की प्रकृति ही ऐसी है।
अब आप किसी की हत्या की बात कर रहे हैं। जरा सोच कर देखिए, जब आप खाते हैं, तो आप किसी की हत्या कर रहे होते हैं, जब आप सांस लेते हैं तो आप किसी की जान ले रहे होते हैं, जब आप चलते हैं तो भी पैरों तले किसी जीव की जान लेते हैं। अगर आप यह सब नहीं करना चाहते तो आपका अपना जीवन खतरे में पड़ जाएगा और तब आप खुद की जान ले रहे होंगे। तो आप किस धर्म का पालन करेंगे? बात बस इतनी है कि आप भीतर से कैसे हैं।
कृष्ण का पूरा का पूरा जीवन बस इसी बात को दर्शाता है। उनके जीवन में 'तुम और मैं' नहीं था। बस 'मैं और मैं' या 'तुम और तुम' ही था। चाहे वे गोपियों के साथ हों, चाहे वे एक राजनेता के तौर पर काम कर रहे हों या फिर वे गीता का उपदेश दे रहे हों, उनका संदेश हमेशा एक ही था - सभी को अपने साथ समाहित करने का। एक बार जब सिर्फ 'मैं और मैं' वाली बात आ जाए, तो कर्म तो बस परिस्थिति और उचित निर्णय से तय होता है। कोई भी कर्म सौ-फीसदी सही या सौ-फीसदी गलत नहीं हो सकता। लेकिन जैसा कि कृष्ण ने हमेशा इस बात पर जोर दिया और मैं भी हमेशा यही कहता हूं, कि स्वधर्म यानी 'अपने अंदर कैसे होना है' इस मामले में आप सौ-फीसदी स्पष्ट हो सकते हैं।