सदगुरु को दीक्षा देने की प्रक्रिया कैसे प्रभावित करती है?
यहाँ सदगुरु उनके द्वारा की जाने वाली प्राण-प्रतिष्ठा की विधि तथा लोगों को दी जाने वाली दीक्षा की प्रक्रियाओं के अंतर को समझा रहे हैं। वे यह भी स्पष्ट कर रहे हैं कि यदि स्थान अनुकूल न हो या कुछ प्राण-प्रतिष्ठा की विधियों के दौरान लोग आवश्यक अनुशासन न रखें, तो कैसे यह उनके ऊर्जा एवं शारीरिक स्तर पर प्रभाव डालता है।
शाम्भवी महामुद्रा -- एक प्राण-प्रतिष्ठा की विधि
दीक्षायें कई प्रकार की होती हैं, और हालाँकि हम उनमें से कई प्रक्रियाओं को दीक्षा विधि कहते हैं, पर वे सभी दीक्षा नहीं होतीं। जिस प्रारंभिक प्रक्रिया में हम लोगों को दीक्षित करते हैं, जिसे शाम्भवी महामुद्रा कहा जाता है, वह वास्तव में दीक्षा नहीं है, वह दीक्षा से ज़्यादा एक प्राण-प्रतिष्ठा की तरह है। हम इसमें लोगों का प्रतिष्ठापन करते हैं। ईशा योग केंद्र के आदियोगी आलयम में हमने जो आदियोगी लिंग का प्रतिष्ठापन किया था, उस तरह एक आकार को प्रतिष्ठापित करने की तुलना में, जीवित मनुष्यों को प्रतिष्ठापित करना ज्यादा सरल है। इसके लिये बहुत ज़्यादा काम करना पड़ता है क्योंकि आपको एक निर्जीव वस्तु को लगभग सजीव जीवन में बदलना होता है – उसे एक जीवित और समझदार रूप में बदलना होता है। वे (आदियोगी लिंग) आपके बारे में सब कुछ जानते हैं।
इसके लिये बहुत काम करना पड़ता है। लेकिन एक जीवित मनुष्य को प्रतिष्ठापित करना सरल है। जीवित मनुष्यों के साथ एक ही समस्या है - वे उल्टा घूम जाने (यू टर्न लेने) में बहुत कुशल होते हैं। जिस दिन हमने आप को शाम्भवी की दीक्षा दी थी, तब ऐसा लगा था कि आप किसी अलग स्तर पर हैं, आपने इसे गहराई से अनुभव किया था। कुछ लोग उस अवस्था को कुछ दिनों, सप्ताहों, महीनों और वर्षों तक रख पाये, और कुछ के लिये ये ऐसा था कि जैसे ही वे सभागृह से बाहर निकले, उन्होंने इसे छोड़ दिया।
शाम्भवी महामुद्रा एक शक्तिशाली प्रतिष्ठापन क्रिया है। आपको बस इतना ही करना है कि आप खुद को उपलब्ध रखें। यह एक प्रतिष्ठापन है - काम पहले ही कर दिया गया है। मंदिर बना दिया गया है, आप को बस वहां जाना है और बैठना है। आप को रोज इसका लाभ लेना है – आपका काम बस यही है।
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दीक्षा - एक बीज जिसका पोषण करना है
लेकिन, शून्य ध्यान, शक्ति चलन, सम्यमा - ये सब वास्तविक दीक्षा विधियां हैं। वे एक ख़ास प्रकार की हैं। पहले हम प्रारंभिक कार्यक्रम के रूप में शून्य ध्यान को ही रखते थे। शून्य एक असली दीक्षा प्रक्रिया है। दीक्षा एक बीज की तरह होती है। आप को इसका पोषण करना है। तब ही ये पनपेगा, बढ़ेगा। बहुत लोगों ने इसका अनुभव किया है। जब उनको शून्य में दीक्षित किया गया, तो उन्होंने अदभुत महसूस किया। घर जा कर उन्होंने दो महीने ये किया और उनका जीवन बदल गया। उनका मेटाबोलिज़्म बदल गया। उनकी नींद कम हो गयी, भोजन कम हो गया और सब कुछ ज़बर्दस्त था। लेकिन वे किन्हीं मामलों में उलझ गए और कुछ सप्ताह बाद उन्होंने इसे छोड़ दिया। फिर, बाद में, उन्हें शून्य की याद आयी लेकिन फिर कुछ नहीं हुआ। ये गायब हो गया। क्योंकि यह एक बीज है, इसका पोषण करते रहना आवश्यक है। अगर आप इसे पानी नहीं देंगे तो यह मर जायेगा। अगर आप इसकी देखभाल नहीं करेंगे तो यह चला जायेगा।
इसलिए हमने प्रारंभिक कार्यक्रम के रूप में शाम्भवी को अपना लिया, जो कि एक प्रतिष्ठापन प्रक्रिया है। यह कभी नहीं जायेगी, यह रहेगी। आप का काम बस इतना है कि आप स्थान को साफ़ करें और उसे बनाये रखें। यह अपना स्थान बनाती है और तुरंत अनुभव देती है। अगर आप इसे अच्छी तरह से रखें तो ये स्वयं को विकसित करती है। लेकिन ये शून्य की तरह बढ़ती नहीं। शून्य बढ़ता है ! खालीपन कैसे बढ़ता है ? क्योंकि खालीपन बढ़ा है, इसीलिये ब्रह्माण्ड इतना फैला हुआ है। एक लाख करोड़ तारों और आकाश गंगाओं की वजह से ये इतना बड़ा नहीं बन पाया होता। खालीपन के फैलाव की वजह से ब्रह्माण्ड इतना बड़ा है। तो यह बढ़ता है। और यह असीमित रूप से बढ़ सकता है।
कार्यक्रमों के दौरान गड़बड़ियां
क्योंकि शाम्भवी एक प्रतिष्ठापन की प्रक्रिया है, तो अगर दीक्षा देते समय स्थान या लोगों के कारण कोई गड़बड़ियां हों, तो हाँ, मुझ पर असर पड़ता है। आजकल मैं दस हज़ार लोगों तक को एक साथ दीक्षित करता हूँ। अगर वे सब एक व्यक्ति की तरह हों तो कोई समस्या नहीं होती। लेकिन वहां अगर 15 -20 लोग भी ऐसे हों जो कुछ गड़बड़ी कर रहे हों, तो इसका मुझ पर बहुत ख़राब असर होता है। मेरे आसपास के लोग ये देख पाते हैं। कोई एक दीक्षा कार्यक्रम ऐसा होता है कि मैं वहां जाता हूँ और सब कुछ बहुत सुखदायी होता है और मैं अच्छी तरह से वापस आता हूँ। कोई दूसरा कार्यक्रम ऐसा होता है जो मुझे एकदम ख़राब हालत में ला देता है। आप बाद में अपनी शाम्भवी क्रिया के साथ क्या करते हैं, उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मैंने आपमें निवेश कर दिया है। मेरा निवेश व्यर्थ जा सकता है, लेकिन मेरी मूल ऊर्जा के ढाँचे पर उसका असर नहीं होगा।
अब हम भाव स्पंदन कार्यक्रम सिर्फ प्राण-प्रतिष्ठित स्थानों पर कर रहे हैं जो ख़ास तौर से इसी उद्देश्य के लिए बनाये गये हैं। एक समय ऐसा था जब हम भाव स्पंदन कार्यक्रम तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में, सभी प्रकार की जगहों - सरायों, विवाह सभागृहों इत्यादि में करते थे। तो कार्यक्रम के एक दिन पहले वहां शादी या अन्य पार्टियां होती थीं। सुबह हमारे स्वयंसेवक सब कुछ साफ़ कर के कार्यक्रम के लिये स्थान को तैयार कर देते थे और शाम को हम भाव स्पंदन शुरू करते थे। इन स्थानों पर मुझे बहुत तकलीफ होती थी। भाव स्पंदन ऐसी जगहों पर करने के बाद कई बार मेरी रीढ़ की हड्डी पर नींबू के आकार की गांठें उभर आती थीं जिन्हें ठीक करने में कभी-कभी कई दिन लग जाते थे। लेकिन अब क्योंकि हम भाव स्पन्दन कार्यक्रम प्रतिष्ठापित स्थानों पर करते हैं, तो सब कुछ एक आनंददायक खेल की तरह होता है। लेकिन ये अगर ऐसे स्थान पर किया जाये जो इस उद्देश्य के लिये नहीं बना है, तो यह एक अलग(कष्टदायक) खेल हो जाता है।
प्रतिष्ठापन के दौरान हो सकने वाला नुकसान
नुकसान कहाँ हो सकता है? संभव है कि जब प्रतिष्ठापन प्रक्रियायें हो रहीं हों, जैसे आदियोगी लिंग के प्रतिष्ठापन समारोह में, सभी 14000 लोग जो उस कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे, एक व्यक्ति की तरह बैठे थे। आज भी मैं उन लोगों को झुक कर प्रणाम करता हूँ। ये अब तक का सबसे अदभुत और असाधारण लोगों का ग्रुप, जो मैंने देखा है - विशेष रूप से इसलिये क्योंकि मैंने इस प्रक्रिया के अधिकांश भाग को बहुत थोड़े से लोगों की उपस्थिति में करने की योजना बनायी थी लेकिन अपने अन्य कार्यक्रमों की वजह से मैं ऐसा नहीं कर सका। मैं यहाँ प्रतिष्ठापन से कुछ दिन पहले ही आ पाया था और मेरे लिये यह एक चिंता का विषय था कि इतनी बड़ी भीड़ के सामने प्रतिष्ठापन प्रक्रिया कैसे संपन्न होगी? लेकिन यह स्थान(आदियोगी आलयम) किसी सार्वजनिक स्थान जैसा नहीं था। वहां 14000 लोग थे, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे मैं बस एक व्यक्ति के साथ था। अगर लोग ऐसे हों तो हम अदभुत काम कर सकते हैं।
हमने लिंग भैरवी का प्रतिष्ठापन बहुत थोड़े लोगों के साथ किया था, लेकिन मुझे वहां वैसा अनुशासन नहीं मिला, जैसे अनुशासन की मुझे ज़रूरत थी। मैं अपनी तरफ़ से पूर्ण रूप से वहां लगा हुआ था, लेकिन मेरे आसपास कुछ लोग इधर-उधर की चालबाज़ियां कर रहे थे। उसके बाद डेढ़ साल तक मेरी स्वाद एवं गंध की संवेदना ही समाप्त हो गयी थी। मैं किसी भी गंध के प्रति अत्यन्त संवेदनशील हूँ और मेरी स्वाद की संवेदना भी बहुत गहन है। लेकिन 18 महीनों से भी अधिक समय तक ऐसा लगता रहा मानो मैं बेस्वाद प्लास्टिक जैसा कुछ खा रहा हूँ। मुझे यह भी पता नहीं चलता था कि मैं खा क्या रहा हूँ? बस पोषण के लिये मैं कुछ खा लेता था। और भी कई बातें हुईं। लगभग तीन बार मैं बायीं तरफ गिर गया। एक बार तो अच्छी खासी चोट लग गयी, कई बार मैं बच गया। वो चोट अब काफी हद तक ठीक हो गयी है।
तो यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम कर क्या रहे हैं ? जैसे अभी हाल ही में किसी ने मुझसे पूछा, “ये योग कार्यक्रम (ईशा योग, इनर इंजीनियरिंग आदि के अलग-अलग तरह के कार्यक्रम) किसलिये हैं?” तो कार्यक्रम सुरक्षा की दृष्टि से बनाये जाते हैं, दोनों के लिये, वे जो प्रदान करते हैं और वे जो ग्रहण करते हैं। अगर आप एक पैकेज बना कर देते हैं तो वे इसे एक शानदार तरीके से उपयोग में ला सकते हैं, या वे उसे नष्ट भी कर सकते हैं - ये कार्यक्रम में भाग लेने वालों पर निर्भर करता है। लेकिन एक कार्यक्रम की जगह अगर आप एक मुक्त प्रक्रिया देते हैं, तो आपको बिलकुल भरोसेमंद लोगों की ज़रूरत होगी, वरना उनकी मूर्खतायें आप को नष्ट भी कर सकती हैं - यह बिलकुल हो सकता है। मैंने कहीं न कहीं इस तरह की कीमत चुकाई है, लेकिन हमनें जिस तरह के अच्छे परिणाम प्राप्त किये हैं, उन्हें देखते हुए यह कीमत ठीक ही है, ज़्यादा नहीं है।