ज्यादा सोचना बंद कैसे करें?
क्या आप खुद को सोचने के विवशतापूर्ण दुष्चक्र में फंसा हुआ पाते हैं? जानिए, सद्गुरु मन में फंसे रहने के बारे में क्या कह रहे हैं?और यह भी बता रहे हैं कि कोई व्यक्ति कैसे इससे बाहर निकल सकता है, और कैसे ज्यादा सचेतन बन सकता है?
आपकी पहचानें गलत हैं और एक बार जब पहचानें गलत हो जाती हैं, तो मन की गतिविधि बिना रुके जारी रहती है। आप उसे रोक नहीं सकते, चाहे आप जो कर लें। बात बस इतनी है कि अगर यह एक सीमा के अंदर है तो आपको लगता है कि यह सामान्य है। यह सामान्य नहीं है। आप पागलपन के सामाजिक रूप से स्वीकार्य स्तर के अंदर हैं। हर कोई उसी तरह से है, तो आपको लगता है कि यह ठीक है। लेकिन आप, मन में एक भी विचार लाए बिना, यहां यूं ही बैठने के आनंद को नहीं जानते। अगर मैं खुद को चार-पांच दिनों तक बंद कर लूं, तो उन चार-पांच दिनों में मुझे एक भी विचार नहीं आयेगा। मैं कुछ भी नहीं पढूंगा, यहाँ तक कि खिड़की के बाहर भी नहीं देखूंगा, बस बिना किसी विचार के मैं बैठा रहूँगा।
मान लीजिए आप शानदार सूर्योदय को देखने लगे, कुछ देर के लिए आपके विचार गायब हो गए क्योंकि कहीं विशाल कुछ घटित हो रहा है। या आप किसी ऐसे काम में डूब गए जो आपको महत्वपूर्ण लगता है, उस समय कुछ देर के लिए विचार गायब हो जाते हैं। और वही आपके जीवन के सबसे सुंदर पल होते हैं।
अगर आप किसी अधिक विशाल चीज के संपर्क में आते हैं तो छोटी चीजें स्वाभाविक रूप से गायब हो जाती हैं। आपके भीतर जीवन का जो स्रोत कार्य कर रहा है, वह विचार प्रक्रिया से कहीं अधिक विशाल घटना है। चूंकि आप उसके संपर्क में कभी नहीं आते, इसीलिए यह विचार इतना महत्वपूर्ण बन गया है। या यूँ कहें कि, अगर आपको अपने विचार बहत महत्वपूर्ण लगते हैं तो इसका मतलब है आपके विकृत नजरिये में सृष्टिकर्ता का सृष्टि महत्वपूर्ण नहीं है। आपकी अपनी सृष्टि बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है। आप अपने भीतर मौजूद सृष्टिकर्ता पर ध्यान नहीं देते, और न ही उसके सृजन पर, बस आप अपने ही सृजन से साथ व्यस्त हैं। क्या यह सृष्टिकर्ता का घोर अनादर नहीं है? आपका ध्यान आपके अंदर मौजूद जीवन के स्रोत पर एक पल के लिए भी नहीं गया है। अगर आप यहां बस यूं ही बैठ पाने के आनंद को जानते, कुछ सोचते हुए या कुछ करते हुए नहीं, बस एक जीवन के रूप में, तब जीवन बहुत अलग होता।
सृष्टि के स्रोत के संपर्क में आना
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जब बात बाहरी दुनिया की आती है तो अलग-अलग इंसान की काबिलियत अलग-अलग होती है। लेकिन बात जब आंतरिकता की आती है तो हम सबकी क्षमता एक समान हैं। ऐसा इस वजह से संभव नहीं हुआ है क्योंकि आपने कभी ध्यान ही नहीं दिया है; इसलिए भी नहीं क्योंकि यह मुश्किल है या यह पहुंच से बाहर है या आप अयोग्य हैं। आंतरिक प्रकृति के लिए हर इंसान एक बराबर सक्षम है। बाहरी कार्य के लिए, चाहे आप बिल्डिंग बनाना चाहते हों, या खाना पकाना चाहते हों, या कोई दूसरी चीज करना चाहते हों, हममें से हर किसी की काबिलियत अलग-अलग है। लेकिन बात जब आंतरिक सच्चाई की आती है, तो उसमें हम सब एक समान काबिल हैं। यह एक व्यक्ति के साथ घटित हुआ है और दूसरे व्यक्ति के साथ घटित नहीं हुआ है, ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि उसने ध्यान नहीं दिया है, बस इतनी ही बात है।
लोग इन निष्कषों पर पहुंच गए है कि आध्यात्मिक प्रक्रिया बहुत मुश्किल है क्योंकि वे गलत चीजें करते रहते हैं। बाहरी दुनिया के साथ आपको एहसास हो गया है कि जब तक आप सही चीजें नहीं करते, वो काम नहीं करेंगी। यही अंदर के साथ भी सच है। किसी दिन एक यात्री पास के गांव में आया और पूछा, ‘ईशा योग केंद्र कितनी दूर है?’
गांव के एक लड़के ने जवाब दिया, ‘यह 24,996 मील दूर है।’
उसने कहा, ‘क्या! इतनी दूर?’
लड़के ने कहा, ‘हां, जिस रास्ते पर आप जा रहे हैं, उधर से। अगर आप पीछे घूम जाएं, तो यह बस चार मील है।’
आप एक दिशा में देख रहे हैं और आध्यात्मिक होने की कोशिश कर रहे हैं - अब यह एक बहुत लंबा रास्ता है। आपको पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाकर वापस आना होगा। अगर आप बस पीछे घूम जाएं तो यह यहीं पर है, क्योंकि आप जिसे खोज रहे हैं, वह आपके भीतर है, आपके बाहर नहीं। जो चीज आपके भीतर है, उससे आपको कोई भी वंचित नहीं कर सकता, स्वयं आपके अलावा। क्या कोई आपको अपनी ही आंतरिकता में प्रवेश करने से रोक सकता है? अगर यह नहीं हो रहा है, तो आपको समझना चाहिए कि आपने आवश्यक इच्छाशक्ति नहीं पैदा की है। दूसरी कोई वजह नहीं है।
क्या आप अपने मन से बाहर हैं?
अभी, विचार को दबाने की कोशिश मत कीजिए। सबसे बड़ी भूल ये हुई है कि लोगों ने आपको बता दिया है कि -‘अपने मन को कंट्रोल करो।’ जैसे ही आप अपने मन को कंट्रोल करने की कोशिश करते हैं, तो आप खत्म। मान लीजिए आप अभी शाम्भवी महामुद्रा का अभ्यास कर रहे हैं। अगर आप प्रक्रिया करते हैं, तो वह आपके और आपके शरीर के बीच, आपके और आपके मन के बीच थोड़ी दूरी पैदा कर देगी। आप शाम्भवी करें और यूं ही बैठे रहें - आपका शरीर यहां है, आपका मन वहां है और जिसे आप ‘मैं स्वयं’ के रूप में देखते हैं, वह कहीं और है। एक बार जब यह अंतर आ जाता है, तब मन के साथ कोई संघर्ष नहीं रह जाता।
एक बार जब आप मन से बाहर आ जाते हैं, फिर कोई समस्या नहीं होती। अगर कोई आपसे कहता है, ‘तुम अपने दिमाग से बाहर हो,’ यानी ‘आउट ऑफ माइंड’ हो, तो उसे आप अपना अपमान मत समझिये। यह सबसे बड़ा सम्मान है जो वे आपको दे सकते हैं। वे आपसे कह रहे हैं कि ‘आप एक बुद्ध हैं।’ बुद्ध का मतलब है कि वह इंसान जो अपने दिमाग से बाहर है। लोग सोचते हैं कि दिमाग से बाहर होना पागलपन है। यह पागलपन नहीं है। पागलपन हमेशा दिमाग में होता है। अगर आप अपने दिमाग से बाहर हैं तो आप सौ प्रतिशत समझदार होंगे। वह पागलपन का अंत है। अब आप जीवन को बस वैसा ही देखते हैं जैसा वह है।
एक बार जब आप जीवन को वैसा ही देखते हैं जैसा वह है,न की उस तरह जैसे आपका मन दिखा रहा है, तब आप देखेंगे कि हर चीज कितनी छोटी है। आपका मन जो कर सकता है, दुनिया जो कर सकती है, वह इतना नगण्य है कि आप उसके साथ जिस हद तक चाहें उस हद तक खेल सकते हैं। अगर आप नहीं चाहते, तो आप बस स्वयं को पीछे खींच सकते हैं। दोनों ही कार्य सचेतन हैं। अब आपमें कोई विवशता नहीं है। जिस पल आप सृष्टि के स्रोत का साक्षी बनना शुरू करते हैं, आपके अंदर की सारी विवशता चली जाती है, अब हर चीज चयन से होती है और जीवन सुंदर बन जाता है।
जो हो रहा है, उसके कारण जीवन सुंदर नहीं बनता, बल्कि इसलिए सुंदर बनता है क्योंकि आप वैसा करना चुन रहे हैं। कुछ भी सुंदर या भद्दा नहीं है। अगर आप उसे करना चुनते हैं और आप खुद को उसमें शामिल कर लेते हैं, तो हर चीज सुंदर होती है। अगर वह आपके ऊपर थोपी जाती है या वह विवशतापूर्ण है तो हर चीज भयानक होती है। यही बात मानसिक गतिविधि पर लागू होती है। अगर वह सचेतन हो, तो आप मन के साथ खेल सकते हैं, जो काफी शानदार साधन है। लेकिन चूंकि यह विवश है, तो यह तनावपूर्ण बन गया है