सांस ही बंधन, सांस ही मुक्ति
सद्गुरु बता रहे हैं कि सांस सिर्फ ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान भर नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। आखिर कैसे, आइए जानते हैं-
सद्गुरु बता रहे हैं कि सांस सिर्फ ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान भर नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। आखिर कैसे, आइए जानते हैं-
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अपने तन और मन पर कई तरह के काम करने के लिए सांस को साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। प्राणायाम एक विज्ञान है, जिसमें आप जागरूक होकर एक खास तरीके से सांस लेते हुए अपने सोचने, महसूस करने, समझने और जीवन को अनुभव करने का तरीका बदल सकते हैं। अगर मैं आपसे आपकी सांस पर ध्यान देने के लिए कहूं, जो आजकल लोगों के बीच सबसे आम चलन है, तो आपको लगेगा कि आप अपनी सांस पर ध्यान दे रहे हैं। लेकिन आप बस हवा की गति से पैदा होने वाली हलचल को ही महसूस कर पाते हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि जब कोई आपके हाथ को छूता है तो आपको लगता है कि आप दूसरे व्यक्ति के स्पर्श को जानते हैं, लेकिन असल में आप सिर्फ अपने शरीर में पैदा हुए अनुभव को ही जान पाते हैं, आप यह नहीं जानते कि दूसरा व्यक्ति कैसा महसूस करता है।
अगर आप सांस से होकर गहराई में अपने अंदर तक, सांस के सबसे गहरे केंद्र तक जाते हैं, तो वह आपको उस बिंदु तक ले जाएगा, जहां आप वास्तव में शरीर से बंधे हुए हैं। एक बार आपको पता चल जाए कि आप कहां और कैसे बंधे हुए हैं, तो आप अपनी इच्छा से उसे खोल सकते हैं। आप चेतन होकर शरीर को उसी सहजता से त्याग सकते हैं, जैसे अपने कपड़ों को। जब आपको पता होता है कि आपके कपड़े कहां पर बंधे हुए हैं, तो उन्हें उतारना आसान होता है। जब आपको नहीं पता होता, कि वह कहां बंधा हुआ है, तो चाहे आप उसे जैसे भी खींचे, वह नहीं उतरता। आपको उसे फाड़ना होगा। इसी तरह अगर आपको नहीं पता कि आपका शरीर किस जगह आपसे बंधा हुआ है, और आप उसे छोड़ना चाहते हैं, तो आपको किसी न किसी रूप में उसे नुकसान पहुंचाना होगा। लेकिन अगर आपको पता हो कि वह कहां बंधा हुआ है, तो आप बड़ी सफाई से एक दूरी से उसे पकड़ सकते हैं। जब आप उसे त्यागना चाहें, तो पूरे होशोहवाश में उसे त्याग सकते हैं। जीवन बहुत अलग हो जाता है। जब कोई अपनी इच्छा से शरीर को पूरी तरह त्याग देता है, तो इसे हम महासमाधि कहते हैं। आम तौर पर इसी को मुक्ति या मोक्ष कहा जाता है। सब कुछ बराबर हो जाता है, शरीर के अंदर और शरीर के बाहर में कोई अंतर नहीं रह जाता। खेल समाप्त हो जाता है।
हर योगी को इसकी चाह होती है। चाहे जान-बूझकर या अनजाने में हर इनसान भी इसी दिशा में प्रयास कर रहा है। वह विस्तार करना चाहता है, और यह चरम विस्तार है। बात सिर्फ इतनी है कि वे किस्तों में अनंत की ओर बढ़ रहे हैं, जो एक बहुत लंबी और असंभव प्रक्रिया है। अगर आप 1,2,3,4 गिनते जाएंगे, तो आप एक अंतहीन गणना बन कर रह जाएंगे। आप कभी अनंत तक नहीं पहुंच पाएंगे। जब इंसान इस बात की व्यर्थता समझ जाता है, तो वह स्वाभाविक रूप से अपने अंदर की ओर मुड़ जाता है ताकि जीवन की प्रक्रिया को शरीर से अलग कर सके।