जिंदगी का नाटक : कैसे खेलें?
इस बार के स्पॉट में, सद्गुरु एक नाटक की रचना में निर्देशक, कलाकारों और दर्शकों की भूमिका के माध्यम से, हमें जीवन के नाटक को संभालना सिखा रहे हैं।
ArticleFeb 21, 2016
जिंदगी में कदम-कदम पर हमें नाटक करना पड़ता है। वैसे तो यह जिंदगी ही नाटक है, लेकिन इस नाटक पर क्या हमारा नियंत्रण है? इसी विषय पर इस बार के स्पाॅट में सद्गुरु बता रहे हैं कि आखिर कैसे संभालें इस नाटक को -
जब भी कोई नाटक होता है तो उसमें तीन तरह के लोग शामिल होते हैं। पहला समूह दर्शकों को होता है, दूसरा समूह अभिनेताओं व कलाकारों का और तीसरा समूह उनका जिनकी वजह से उस नाटक का मंचन संभव हो पाता है, जैसे नाटक का निर्देशक, सेट डिजाइनर आदि। इन सबमें निर्देशक ही ऐसा आदमी होता है जो नाटक को सबसे अच्छे तरीके से समझता है। दूसरे लोगों की तुलना में नाटक से सबसे ज्यादा जुड़ाव भी उसी का होता है। उसकी वजह यह है कि नाटक की परिकल्पना वही करता है, वही इसका निर्माण करता है, वही इसे साकार बनाता है, इसलिए नाटक से उसका जुड़ाव जबरदस्त होता है। कलाकारों को सिर्फ अपनी भूमिका के बारे में ठीक से पता होता है, हो सकता है कि उन्हें बाकी नाटक के बारे में ज्यादा जानकारी न हो। जबकि दर्शकों को तो नाटक के बारे में कोई भी जानकारी नहीं होती - वो तो मंचन के दौरान जो भी भावनाएं सामने आती हैं, उनसे प्रभावित होते हैं।
जब नाटक का मंचन होता है तो सबसे ज्यादा बहकावे में दर्शक ही आता है, क्योंकि कुछ देर बाद वो इसमें इस कदर डूब जाता है कि उसे यह सब हकीकत लगने लगता है। उसके लिए यह नाटक मनोवैज्ञानिक धरातल पर चलता है, जहां वो हंसेगा, रोएगा, अपनी प्रतिक्रिया देगा। नाटक से दर्शकों का जुड़ाव सबसे कम होता है, लेकिन उसमें उनका उलझाव सबसे ज्यादा होता है।
वैसे किसी को यह जानने की जरूरत नहीं है कि आप भीतर की ओर मुड़ चुके हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि इसके पीछे कोई गोपनीय बात या रहस्य है, बात सिर्फ इतनी है कि इस मामले से किसी का कोई लेना देना नहीं है।
कुछ ऐसे ही अवसर आपके जीवन में भी सामने आते हैं। जीवन तो वैसे भी नाटक ही है। यहां आप एक कलाकार हो सकते हैं। आप दर्शक भी हो सकते हैं, जो पूरी तरह से उसमें डूब जाते हैं। या फिर आप एक निर्देशक हो सकते हैं, जो इस पूरे नाटक का निर्माण और संचालन कर रहा है। या फिर अगर आपके पास काम करने के लिए इतने सारे लोग और दर्शक न हों तो आप इन तीनों की भूमिका खुद ही निभा सकते हैं। लेकिन जब आपके भीतर निर्देशक तत्व जीवंत होगा, सिर्फ तभी आपका नाटक उस दिशा में जाएगा जहां आप उसे ले जाना चाहते हैं, अन्यथा वह एक अंतहीन नाटक हो कर पूरी तरह से आपके नियंत्रण से बाहर हो जाएगा।
जहां तक आपके बाहरी नाटक की बात है तो आप सौ फीसदी इस नाटक को निर्देशित नहीं कर सकते। क्योंकि हो सकता है कि आपके पास बहुत आज्ञाकारी अभिनेता न हों, जो आपकी पटकथा के अनुसार ही चलें। फिलहाल अगर आपका बाहरी नाटक आपकी मर्जी के मुताबिक नहीं चलता, तो आपके भीतर होने वाला मनोवैज्ञानिक नाटक धीरे-धीरे नियंत्रण से बाहर होने लगता है। इसलिए आपको अपने मनोवैज्ञानिक नाटक का खुद निर्देशक हो जाना चाहिए। बाहरी नाटक तो अपने तरीके से चलता ही रहेगा।
हममें से हरेक के जीवन में बाहरी तौर पर एक अलग तरह का नाटक चल रहा है। इसमें कुछ भी पूरी तरह आपके हिसाब से नहीं चल रहा। लेकिन आपका मनोवैज्ञानिक नाटक सौ फीसदी आपके हिसाब से चलना चाहिए। अगर आपका मनोवैज्ञानिक नाटक आपके तरीके से चलता रहा तो फिर बाकी बाहरी चीजें अपने आप ठीक होने लगेंगी। अगर हर चीज सुखद है, अच्छी चल रही है तो फिर मौजूदा समय यह महसूस करने का है कि यह सब नाटक है और इसे अच्छी तरह से कीजिए। अगर आपने ऐसा नहीं किया तो आपका इस पर नियंत्रण खोने लगेगा और किसी न किसी मोड़ पर जाकर यह पूरा नाटक किसी न किसी रूप में भद्दा या तकलीफदायक होने लगेगा, जैसे - किसी तरह का कोई दुव्यवहार, कोई रोग, मृत्यु या किसी तरह की कोई आपदा या त्रासदी सामने आने लगेगी।
आप इसके भद्दे या खराब होने का इंतजार मत कीजिए। इसलिए आप तुरंत अपने मनोवैज्ञानिक नाटक की कमान अपने हाथ में ले लीजिए। आपके भीतर आपके अपने किरदारों को आपकी बात सुननें चाहिए।
जीवन तो वैसे भी नाटक ही है। यहां आप एक कलाकार हो सकते हैं। आप दर्शक भी हो सकते हैं, जो पूरी तरह से उसमें डूब जाते हैं। या फिर आप एक निर्देशक हो सकते हैं, जो इस पूरे नाटक का निर्माण और संचालन कर रहा है।
वैसे किसी को यह जानने की जरूरत नहीं है कि आप भीतर की ओर मुड़ चुके हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि इसके पीछे कोई गोपनीय बात या रहस्य है, बात सिर्फ इतनी है कि इस मामले से किसी का कोई लेना देना नहीं है। अपने परिवार, पति-पत्नी व समाज के साथ आप नाटक खेलते समय पचास फीसदी उनके हिसाब से चल सकते हैं, बाकी पचास फीसदी आप अपने हिसाब से चल सकते हैं। लेकिन आपका मनोवैज्ञानिक नाटक सौ फीसदी आपके हिसाब से होना चाहिए। यही बात आध्यात्मिक पहलू पर भी लागू होती है, यह सौ फीसदी आपके हिसाब से होना चाहिए। केवल बाहरी दुनिया में पचास फीसदी मौकों पर आप समझौता कर सकते हैं। लेकिन आपका मनोवैज्ञानिक नाटक और आपकी भीतरी दुनिया सौ फीसदी आपके मुताबिक होनी चाहिए।
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