अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर सद्गुरु समाज में महिलाओं की मौजूदा स्थिति के साथ-साथ निजी स्तर व संपूर्ण मानवता के स्तर पर नारी सशक्तिकरण के बारे में अपने विचार साझा कर रहे हैं। वह कहते हैं, ‘अपने भीतर मौजूद स्त्री तत्व व पुरुष तत्व के बीच संतुलन रखकर ही आप बुद्धि व अनुभव के स्तर पर जीवन के गहन आयाम को समझ सकते हैं।’
स्त्रीत्व और पुरुषत्व दोनों ही सभी में मौजूद हैं
जितने भी शारीरिक प्रकटीकरण हैं, वह सब दो ध्रुवों के बीच होते हैं - सकारात्मक-नकारात्मक, पुरुषत्व-नारीत्व, शिव-शक्ति, स्त्री-पुरुष।
अगर आप केवल पुरुष तत्व को ही पोषित करेंगे तो आप में मर्दानेपन की मूर्खता अभिव्यक्त होगी। इसी तरह से अगर आप केवल स्त्रीसुलभता को ही पोषित करेंगे तो आपमें हद से ज्यादा कलात्मकता और भावनाओं की अभिव्यक्ति होगी।
जैसे ही हम दो ध्रुवों के बीच भेद पैदा करते हैं, वैसे ही उन दोनों के बीच हमारी समझ के अनुसार श्रेष्ठता और निम्नता की धारणाएँ बनाने लगते हैं। इन धारणाओं से भ्रम, भद्देपन व शोषण के कई स्तर पैदा हुए हैं। शारीरिक रूप से स्त्री या पुरुष होना बस स्त्रीत्व या पुरुषत्व की एक ज्यादा ठोस अभिव्यक्ति है। अगर आप यहां स्त्री के रूप में बैठी हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपके भीतर आपके पिता मौजूद नहीं हैं और यही बात पुरुषों पर भी लागू होती है कि उनमें उनकी मां मौजूद होती हैं। अगर आप इस सत्य को पहचान कर अपने भीतर मौजूद स्त्री व पुरुष दोनों ही तत्वों को इस तरह से पोषित करेंगे कि दोनों ही समान स्तर पर रहें तो आप एक संतुलित इंसान होंगे। अगर आप केवल पुरुष तत्व को ही पोषित करेंगे तो आप में मर्दानेपन की मूर्खता अभिव्यक्त होगी। इसी तरह से अगर आप केवल स्त्रीसुलभता को ही पोषित करेंगे तो आपमें हद से ज्यादा कलात्मकता और भावनाओं की अभिव्यक्ति होगी।
स्त्रीत्व और पुरुषत्व - दोनों को उचित पोषण मिलना चाहिए
कई तरह से एक महिला संपूर्ण मानव जाति का एक फूल है। बिना जड़ के कोई पौधा या पेड़ नहीं होता, लेकिन बिना फूल के जीवन में परिपूर्णता नहीं होती।
अगर हम बस इसी नजरिए से हर चीज़ को देखेंगे कि क्या उपयोगी है और क्या नहीं तो हमें तमाम फूलों से निजात पानी होगी और सब्जी उगानी होगी।
हमें एक ऐसे समाज के निमार्ण की जरूरत है, जहां जीवन के स्त्रीसुलभ पक्ष जैसे संगीत, कला व सौंदर्यबोध भी उसी तरह से महत्वपूर्ण हों, जैसे अर्थषास्त्र, विज्ञान व तकनीक। आज के दौर में महिलाएं बुरी तरह से पुरुष जैसा बनने की कोशिश कर रही हैं, क्योंकि पुरुष की तरह बनने से ही सफलता या कामयाबी साबित होती है। अगर हम चाहते हैं कि हमारे जीवनों में सुंदरता हो तो समाज में नारी सुलभता या स्त्रीत्व को उसका उचित स्थान मिलना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि खूबसूरती और उपयोगिता दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। अगर हम बस इसी नजरिए से हर चीज़ को देखेंगे कि क्या उपयोगी है और क्या नहीं तो हमें तमाम फूलों से निजात पानी होगी और सब्जी उगानी होगी। अगर हमारे जीवन में खूबसूरती और सौंदर्यबोध नहीं होगा तो जीवन निरर्थक हो जाएगा।
सुरक्षा के लिए उठाया गया कदम शोषण बन गया
पारंपरिक तौर पर भारतीय संस्कृति में स्त्री तत्व को अगर ज्यादा नहीं तो कम से कम उतना तो महत्वपूर्ण माना ही जाता रहा है, जितना पुरुष तत्व को।
अफसोस की बात है कि चंचलता और मनमौजी होना नारी सुलभता या स्त्रीत्व माना जाता है। इसमें कोई गहराई और गहन सुंदरता नहीं है।
लेकिन हमारे यहां लगातार हुए हमलों के चलते पिछली कुछ सदियों में समाज के हालात बदलते गए। उन हमलावरों ने सबसे पहले जिन पर हाथ डाला, वो आपकी पत्नी और बेटियाँ थीं। तो सुरक्षा कारणों से हमने उन्हें घर के भीतर तक ही सीमित रखना शुरू कर दिया। जो कदम सुरक्षा के नजरिए से उठाया गया था, वो कुछ समय बाद एक स्थापित चलन बन गया। आज भारत एक आजाद देश है, अब समय आ गया है कि हम इस पहलू पर पुनर्विचार करें। इसका यह मतलब नहीं कि हम पश्चिम की नकल करते हुए या तो जहां तक संभव हो औरतों को मर्दाना बना दें या फिर उन्हें बार्बी डॉल बनाकर रखें। अफसोस की बात है कि चंचलता और मनमौजी होना नारी सुलभता या स्त्रीत्व माना जाता है। इसमें कोई गहराई और गहन सुंदरता नहीं है।
स्त्रीत्व के बिना डिप्रेशन के मामले बढ़ेंगे
समाज में स्त्री तत्व व पुरुष तत्व को बराबर अनुपात में रखना सबसे महत्वपूर्ण है।
अगर आपमें नारी सुलभता या स्त्रीत्व सक्रिय है, तो वह गुण छोटी-छोटी चीजों में खूबसूरती ढूंढने का जरिया पा लेता है।
जो जड़ या पौधा स्वाभाविक तौर से नहीं फलता, वह कुम्हला जाता है। अगर स्त्री तत्व को स्वाभाविक अभिव्यक्ति नहीं मिलेगी तो वह अवसाद या कुंठा की ओर बढ़ने लगता है। एक पूरी तरह से मर्दानगी भरा दिमाग स्याह, दूषित और कुंठित या डिप्रेस्ड हो उठता है। यही चीज आज आपको दुनिया, खासकर पश्चिम में दिखाई दे रही है, लेकिन इसकी शुरुआत भारत में भी हो चुकी है, अब यहां भी निराशा की खासी प्रबलता पाई जा रही है। अगर आपमें नारी सुलभता या स्त्रीत्व सक्रिय है, तो वह गुण छोटी-छोटी चीजों में खूबसूरती ढूंढने का जरिया पा लेता है। लेकिन इससे उलट अगर आपने अपने भीतर से स्त्रीत्व को पूरी तरह से खत्म कर दिया है तो आपको बाहर की हर चीज आदर्श या उत्तम लगेगी, लेकिन यह आपके लिए कारगर नहीं होगी।
समाज में पुरुषत्व कैसे बढ़ता है?
अगर समाज की संस्कृति में दूसरों से अधिक कुशल, प्रतिस्पर्धा से भरपूर और बेहतर होने की चाहत हो, तो समाज में पुरुषत्व जबरदस्त रूप से बढ़ जाता है।
यह बात हर जगह देखी जा सकती है - इसीलिए यह बेहद महत्वपूर्ण है कि दुनिया की औरतें अर्थव्यवस्था की प्रक्रिया का हिस्सा बनें और एक सौम्य अर्थव्यवस्था को तैयार करने में अपनी भागीदारी दें।
समाज में जितना पुरुषत्व बढ़ता जाएगा, उतनी ही आर्थिक संपन्नता आएगी, लेकिन उस स्थिति में आर्थिक प्रक्रिया मानव की खुशहाली का जरिया नहीं बन पाएगी, बल्कि इंसान खुद इस आर्थिक प्रक्रिया का एक यंत्र बन कर रह जाएगा। आज आर्थिक इंजन मानव ईंधन पर चल रहा है और हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी बन चुकी है जो हमारे बच्चों को ऐसे खांचे के रूप में तैयार कर रही है, जो इस मशीन या इंजन में फिट बैठ सकें। इस मायने में, पैदा होने से लेकर अपने मरने तक लोग बस थोड़ा बेहतर जीने कोशिश में जुटे हुए हैं। विश्व के समाजों में पुरुषत्व जबरदस्त रूप से बढ़ गया है।
अब समय आ गया है कि हम इस स्थिति को उलट दें। आज लोगों के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू अर्थव्यवस्था बनती जा रही है। यह बात हर जगह देखी जा सकती है - इसीलिए यह बेहद महत्वपूर्ण है कि दुनिया की औरतें अर्थव्यवस्था की प्रक्रिया का हिस्सा बनें और एक सौम्य अर्थव्यवस्था को तैयार करने में अपनी भागीदारी दें। आज हमारी आर्थिक गतिविधियां इस धरती और उस पर मौजूद जीवन के सभी रूपों के लिए युद्धों से ज्यादा नुकसान का कारण बन रही हैं। अब समय आ गया है कि पुरुषत्व से भरे इस नज़रिए को कुछ सौम्य बनाया जाए।
आज अर्थव्यवस्था में भी स्त्रीत्व लाना जरुरी है
दुनिया के बिजनेस नेतृत्व में, बोर्डरूम्स में, हमें ऐसी महिलाओं की जरूरत है, जो पुरुषों से ज्यादा मर्दाने व्यवहार की कोशिश करने की बजाय अपने भीतर कुछ नारी सुलभता या स्त्रीत्व को जीवंत बनाए रखने में सफल हों।
रोजाना के जीवन में लोगों को महिला या पुरुष के खांचे में रखकर देखने की जरूरत भी कहां पड़ती है कि कौन मर्द है और कौन औरत? लोगों को उनके जननांगों के आधार पर पहचानना जीवन जीने का एक बेहद बुनियादी या रूढ़ तरीका है।
हमें ऐसे पुरुषों की जरूरत है, जिनमें जरूरत पड़ने पर
स्त्रीत्व से भर जाने में कोई झिझक या शर्म महसूस न हो। यह संतुलन समाज में आना ही चाहिए। केवल इसी संतुलन से समाज में सशक्तिकरण आएगा। हमें पुरुषत्व को स्त्रीत्व से, या फिर स्त्रीत्व को पुरुषत्व से श्रेष्ठ बनाने की भारी कीमत चुकानी होगी। अपने भीतर इन दोनों तत्वों में संतुलन का भाव ही केवल हमारे जीवन में कल्याण लेकर आएगा। उसे साकार करने के लिए हमें अपनी पहचान को अपने भौतिक ढांचे से ऊपर उठाना होगा। रोजाना के जीवन में लोगों को महिला या पुरुष के खांचे में रखकर देखने की जरूरत भी कहां पड़ती है कि कौन मर्द है और कौन औरत? लोगों को उनके जननांगों के आधार पर पहचानना जीवन जीने का एक बेहद बुनियादी या रूढ़ तरीका है।
सिर्फ कुछ पहलूओं में पुरुष या स्त्री बनने की जरूरत है
आध्यात्मिक प्रकिया का मतलब ही अनुभव के स्तर पर एक ऐसे आयाम की ओर बढ़ना है, जो आपके भौतिक ढांचे से परे हो।
चूंकि लैंगिक विभिन्नता की वजह से एक खास तरह का शोषण हो चुका है, इसलिए हम लोग इस लैंगिक पहचान को इतना बढ़ा-चढ़ा कर रखते हैं। लेकिन इससे औरत का भला होने वाला नहीं है।
अगर जीवन के प्रति आपका अनुभव आपकी भौतिक प्रकृति से परे निकल जाता है तो फिर क्या फर्क पड़ता है कि आप एक आदमी हैं या औरत? हो सकता है कि जीवन के कुछ पहलुओं में हमें महिला या पुरुष होने की जरूरत पड़ती हो। उससे परे यह जरूरी नहीं कि आप जीवन के हर पल में अपनी यह लैंगिक पहचान अपने ऊपर ओढ़े रहें। चूंकि लैंगिक विभिन्नता की वजह से एक खास तरह का शोषण हो चुका है, इसलिए हम लोग इस लैंगिक पहचान को इतना बढ़ा-चढ़ा कर रखते हैं। लेकिन इससे औरत का भला होने वाला नहीं है। हमें एक ऐसे समाज के निर्माण की जरूरत है, जहां आप अगर वो सब कर रही हैं, जो जरूरी है, तब तक हमें इसकी परवाह करने की जरूरत नहीं है कि आप महिला हैं या पुरुष। अगर आपको इसकी परवाह होगी कि कौन क्या है तो आप अनिवार्य रूप से लोगों को श्रेष्ठतर या निम्नतर के तौर पर आंकेंगे।
अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग निष्कर्ष निकाले हैं, जो आपको पक्षपाती, पूर्वाग्रही व भेदकारी सोच की तरफ ले जाते हैं। अगर हम धरती के सभी जीवों के साथ एक होकर काम नहीं कर सकते तो कम से कम हम लोगों को सारी मानवता के साथ एक प्रजाति के तौर पर तो काम करना चाहिए। किसी चीज को श्रेष्ठतर या किसी को निम्नतर करके देखना समझदारी की बेहद शुरूआती प्रकृति है। लोगों में जितने भी विचार या पूर्वाग्रह होते हैं, वे उन्हें कई तरीके से सिखाए जाते हैं। यहां किसी को भी अपने से श्रेष्ठतर या कमतर करके देखने की जरूरत नहीं है।
भगवान शिव के अर्धनारीश्वर बनने की कथा
आपको वह कहानी तो पता ही होगी, जहां आदियोगी शिव ने पार्वती को अपने एक हिस्से के रूप में अपने भीतर समाहित किया और वह खुद आधे पुरुष व आधी नारी यानी अर्द्धनारीष्वर हो गए।
वह परम पुरुष माने जाते हैं, क्योंकि उनका आधा हिस्सा औरत का है। यह कथा आपको आपके अस्तित्व की प्रकृति की याद दिलाने के लिए है।
वह परम पुरुष माने जाते हैं, क्योंकि उनका आधा हिस्सा औरत का है। यह कथा आपको आपके अस्तित्व की प्रकृति की याद दिलाने के लिए है। बस इसलिए कि आपके पास एक पुरुष शरीर है, इसका यह मतलब यह नहीं कि आपको अपने भीतर के नारी सुलभता या स्त्रीत्व को मारना होगा, इसी तरह से अगर आप महिला हैं तो आपको भी अपने भीतर के पुरुषत्व को खत्म करने की जरूरत नहीं है। अपने भीतर मौजूद स्त्री तत्व व पुरुष तत्व के बीच संतुलन रखकर ही आप बौद्धिक व अनुभव के स्तर पर जीवन के गहन आयामों को समझ सकते हैं। ध्रुवों या छोरों का यह सिद्धांत योग के एक बुनियादी प्रकार में दिखाई देता है, जिसे हठ योग कहा जाता है। जहां ‘ह’ का मतलब सूर्य और ‘ठ’ का मतलब चंद्र से है। हठयोग में शरीर की ज्यामिति पर ऐसे काम किया जाता है कि आपके अस्तित्व के सौर व चंद्र आयामों में एक ऐसा संतुलन जाता है, जिससे आप उन दोनों के सर्वश्रेष्ठ गुणों का फायदा ले सकते हैं। नारी सुलभता या मर्दानेपन की एक तिरछी अभिव्यक्ति के भद्दे नतीजे होते हैं।
समानता का आध्यात्मिक वातावरण तैयार करना होगा
नारी सुलभता या स्त्रीत्व का सशक्तिकरण तभी हो सकता है, जब सारी मानवता इस संतुलन से सशक्त हो जाए।
यही समय है कि एक ऐसा मनोवैज्ञानिक व आध्यात्मिक वातावरण भी तैयार किया जाए, जहां महिला व पुरुष समान पैमानों पर उतर सकें।
अगर समाज में विवाद या झगड़ा होगा तो स्वाभाविक तौर पर पुरुषों का वर्चस्व रहेगा। केवल संतुलित और स्थिर समाज में ही महिलाएं अपने भीतर छिपी तमाम योग्ताओं को तलाशने में सफल हो पाएंगी। बहुत ही कम ऐसे समाज हैं, जो यह दावा कर सकते हैं कि उनकी महिलाएं खुद को पूरी तरह से अभिव्यक्त कर पाती हैं। आज हम ऐसी स्थिति में पहुँच गए हैं, जहां तकनीक ने एक ऐसी भौतिक जगह तैयार कर दी है, जिसमें महिला व पुरुष बराबरी से भागीदारी कर सकते हैं। यही समय है कि एक ऐसा मनोवैज्ञानिक व
आध्यात्मिक वातावरण भी तैयार किया जाए, जहां महिला व पुरुष समान पैमानों पर उतर सकें। अगर स्त्रीत्व और पुरुषत्व को बराबरी से सामने आने का मौका मिलता है, तभी मानव अपने भीतर से पल्लवित होंगे और जीवन के परम रूप का अनुभव कर पाएंगे।