हमनें पिछले ब्लॉग में पढ़ा कि राजा शांतनु और गंगा के मिलन के बारे में । आगे पढ़ते हैं कैसे राजा शांतनु और गंगा  के मिलन से देवव्रत या भीष्म पितामह का जन्म हुआ…

शांतनु गंगा के प्रेम में इतने पागल थे कि वह राजी हो गए। गंगा उनकी पत्नी बन गई, जो पत्नी के तौर पर बहुत ही खूबसूरत और लाजवाब थी। फिर वह गर्भवती हुई और एक पुत्र को जन्म दिया। वह तुरंत बच्चे को लेकर नदी तक गई और उसे नदी में बहा दिया।

शांतनु को विश्वास नहीं हो रहा था कि उनकी पत्नी ने उनके पहले पुत्र को नदी में डुबो दिया। उनका हृदय फट रहा था, लेकिन उन्हें याद आया कि अगर उन्होंने वजह पूछी, तो गंगा चली जाएगी। जो शख्स पहले खुशी और प्रेम में उड़ता फिर रहा था, वह दुख से जड़ हो गया और अपनी पत्नी से डरने लगा। मगर फिर भी वह गंगा से बहुत प्रेम करते थे, दोनों साथ-साथ रहते रहे।

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16 साल गुजर गए, गंगा ने उन दोनों के पुत्र देवव्रत को लाकर शांतनु को सौंप दिया। देवव्रत ने खुद परशुराम से तीरंदाजी सीखी थी और वृहस्पति से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया था।
गंगा ने एक और पुत्र को जन्म दिया। वह बिना एक भी शब्द बोले जाकर बच्चे को नदी में डुबो आई। शांतनु पागल हो उठे। उनसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था मगर वह जानते थे कि उन्होंने एक भी शब्द कहा तो वह चली जाएगी।

दूसरे बच्चे, तीसरे बच्चे से लेकर सातवें बच्चे तक यह सिलसिला जारी रहा। शांतनु बुरी तरह आतंकित हो गए थे। वह अपनी पत्नी से खौफ खाने लगे क्योंकि वह उनके नवजात शिशुओं को नदी में डुबो दे रही थी। जब आठवें बच्चे का जन्म हुआ तो शांतनु असहाय की तरह गंगा के पीछे-पीछे नदी तक गए। जब वह बच्चे को डुबोने ही वाली थी, कि शांतनु ने जाकर बच्चे को छीन लिया और बोले, ‘अब बहुत हो गया। तुम यह अमानवीय हरकत क्यों कर रही हो।’ गंगा बोली, ‘आपने शर्त तोड़ दी है। अब मुझे जाना होगा। मगर जाने से पहले मैं आपको कारण जरूर बताऊंगी।’

वशिष्ट ऋषि का श्राप

‘आपने वशिष्ठ ऋषि के बारे में सुना होगा। वशिष्ठ अपने आश्रम में रहते थे और उनके पास नंदिनी नाम की एक गाय थी, जिसमें दैवी गुण थे। एक दिन, आठों वसु अपनी पत्नियों के साथ विमानों में बैठकर पृथ्वी पर छुट्टियां मनाने गए। वे वशिष्ठ के आश्रम से गुजरे और उन्होंने अविश्वसनीय दैवी गुणों वाली नंदिनी गाय को देखा। एक वसु प्रभास की पत्नी ने कहा, ‘मुझे वह गाय चाहिए।’ प्रभास ने बिना सोचे-समझे कहा, ‘चलो, वह गाय लेकर आते हैं।’

एक-दो वसुओं ने कहा, ‘मगर यह हमारी गाय नहीं है। यह एक ऋषि की गाय है। हमें इसे नहीं लेना चाहिए।’ प्रभास की पत्नी ने जवाब दिया, ‘कायर ही बहाने खोजते हैं। तुम गाय नहीं ला सकते इसलिए धर्म को बीच में ला रहे हो।’ प्रभास को अपनी मर्दानगी याद आ गई और उसने अपने साथियों की मदद से गाय को चुराने की कोश्शि की। जैसे ही वशिष्ठ को पता चला कि उनकी प्रिय गाय को चुराया जा रहा है, उन्होंने वसुओं को पकड़ लिया और बोले, ‘ऐसा काम करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई। तुम लोग अतिथि बन कर आए। हमने तुम्हारी इतनी खातिरदारी की और तुम मेरी ही गाय को चुराना चाहते हो।’

उन्होंने वसुओं को श्राप दे दिया - ‘तुम लोग इंसानों के रूप में जन्म लोगे और उसके साथ आने वाली सभी सीमाओं में बंध कर रहोगे। तुम्हारे पंख कतर दिए जाएंगे, जिससे तुम उड़ नहीं सकोगे। तुम्हें इस धरती पर जीवन बिताना होगा। तुम्हें बाकी इंसानों की तरह पैदा होना और मरना होगा।’ जब वसुओं को पता चला कि मैं (गंगा) देवलोक में हूं और मुझे इंसान के रूप में धरती पर जाने का श्राप मिला है, तो आठों वसुओं ने मुझसे प्रार्थना की - ‘कुछ ऐसा कीजिए कि हम आपके गर्भ से पैदा हों। और इस धरती पर हमारा जीवन जितना हो सके, उतना छोटा हो।’

भीष्म पितामह का बचपन

गंगा ने अंत में शांतनु से कहा, ‘मैं उनकी इस इच्छा को पूर्ण कर रही थी कि वे इस धरती पर पैदा हों, मगर उन्हें यहां जीवन बिताना न पड़े। वे जल्दी से जल्दी इस श्राप से मुक्त होना चाहते थे। इसलिए, मैंने सातों को लंबा जीवन जीने से बचा लिया।

शांतनु को विश्वास नहीं हो रहा था कि उनकी पत्नी ने उनके पहले पुत्र को नदी में डुबो दिया। उनका हृदय फट रहा था, लेकिन उन्हें याद आया कि अगर उन्होंने वजह पूछी, तो गंगा चली जाएगी।
आठवें का जीवन आपने बचा लिया, जो प्रभास है, जिसका इस चोरी में मुख्य हाथ था। शायद उसे इस धरती पर लंबा जीवन जीना होगा। वह अभी शिशु है, इसलिए मैं उसे अपने साथ ले जा रही हूं। सोलह वर्ष का होने पर, मैं उसे आपके पास वापस ले आऊंगी। उससे पहले मैं यह सुनिश्चित करूंगी कि एक अच्छा राजा बनने के लिए उसे जो कुछ भी जानना चाहिए, उन सब की शिक्षा उसे मिले।’

गंगा बच्चे को लेकर चली गई। शांतनु उदासीन और खोए हुए रहने लगे। वह राज्य में दिलचस्पी खो बैठे। कभी महान राजा रहा इंसान एक निराश और हताश व्यक्ति बन गया था। वह निराशा में इधर-उधर भटकने लगे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे।

16 साल गुजर गए, गंगा ने उन दोनों के पुत्र देवव्रत को लाकर शांतनु को सौंप दिया। देवव्रत ने खुद परशुराम से तीरंदाजी सीखी थी और वृहस्पति से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया था। उसने सबसे काबिल गुरुओं से हर चीज की शिक्षा प्राप्त की थी और अब वह राजा बनने के लिए तैयार था। जब शांतनु ने इस भरे-पूरे युवक को देखा जो बड़ी जिम्मेदारियां संभालने के लिए तैयार था, तो उनकी निराशा दूर हो गई और उन्होंने बहुत प्यार और उत्साह से अपने बेटे को अपनाया। उन्होंने देवव्रत को युवराज यानी भावी राजा बना दिया। देवव्रत ने बहुत अच्छे से राजपाट संभाल लिया। शांतनु फिर से स्वतंत्र और प्रसन्न हो गए। वह फिर से शिकार पर जाने लगे और फिर प्रेम में पड़ गए!

 आगे जारी...